किसी भी आपराधिक घटना के घटित होने पर जब पुलिस को सूचना मिलती है और यदि ऐसी सूचना संज्ञेय अपराध के संबंध में होती है तो पुलिस प्रथम सूचना दर्ज करती है। एक बार प्रथम सूचना दर्ज हो जाने पर पुलिस द्वारा आरोपी की गिरफ्तारी की जाती है। जबकि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 में स्पष्ट प्रावधान है कि प्रत्येक मामले में गिरफ्तारी आवश्यक नहीं है। गिरफ्तारी तब ही की जा सकती है जबकि अनुसंधान अधिकारी को गिरफ्तारी आवश्यक प्रतीत होती है। इसके लिये उसका यह संतोष होना आवश्यक है कि आरोपी आगे अन्य अपराध कर सकता है। उसकी अनुसंधान के लिये गिरफ्तारी आवश्यक है। साक्ष्य को प्रभावित करने से रोकने के लिये अन्य कोई उपाय नहीं है। विधि में स्पष्ट प्रावधान होते हुए भी पुलिस ने प्रत्येक मामले में गिरफ्तारी को आवश्यक मान लिया है। इसलिये सर्वोच्च न्यायालय ने अभी अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में इससे संबंधित विधि की व्याख्या करते हुए निर्देश जारी किये है कि गिरफ्तारी की आवश्यकता से संबंधित प्रावधानो का पालन किया जाये तथा 7 वर्ष तक की सजा के आरोपों में गिरफ्तारी तब ही की जाये जब कि विधि द्वारा निर्धारित मापदण्डों के अनुसार गिरफ्तारी की आवश्यकता के बारे में संतुष्टी हो जाये।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री चन्द्रमौली प्रसाद एवं पिनाकीचंद्र घोस के समक्ष यह मामला तब आया जब कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498 ए एवं दहेज प्रतिषेध अधिनियम की धारा 4 के अंतर्गत दहेज प्रताड़ना की प्रथम सूचना दर्ज होने के पश्चात याचिकाकर्ता द्वारा प्रस्तुत की गई अग्रिम जमानत का आवेदन निरस्त हो गया तथा उक्त याचिकाकर्ता की ओर से सर्वोच्च न्यायालय में अपनी गिरफ्तारी पर रोक लगाने हेतु निवेदन किया गया था।
सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि इन वर्षो में दाम्पत्य विवादों के मामलों की संख्या में अत्यधिक वृद्वि हो गई है। विवाहित महिलाओं को दहेज प्रताड़ना से मुक्ति दिलाने के लिये जिस धारा 498 ए का विधायन किया गया उसका उपयोग नाराज महिलाओं ने पति और परिजनों के विरूद्ध हथियार के रूप में किया जाने लगा है। इन मामलो में पति के अलावा वृृद्वावस्था के कारण बिस्तर पर विश्राम करने वाले पति के दादा दादी और पति के परिवार से बहुत दुर निवास करने वाली विवाहित बहनों तक को आरोपी बनाया जाने लगा है। वर्ष 2012 में 1,97,762 व्यक्तियों को ऐसे आरापो में गिरफ्तार किया गया है जो पिछले साल से 9.4 प्रतिशत अधिक था। इन गिरफ्तार व्यक्तियों में 47951 महिलाऐं थी जो आरोपित पति की माॅ और बहिने थी। भारतीय दण्ड संहिता के अंतर्गत जितने अपराध होते है उसका 6 प्रतिशत इन अपराधों का है। यद्यपि निर्णीत प्रकरणों में केवल 15 प्रतिशत ही आरोपी दोषी पाये गये शेष सभी निर्दोष पाये गये।
न्यायालय ने पाया कि गिरफ्तारी एक अत्यंत गम्भीर कदम है जो व्यक्ति की स्वतंत्रता को कम करता है तथा उसके जीवन में एक सदैव के लिये एक धब्बा लगा देता है इसलिये गिरफ्तारी के अधिकार का उपयोग बहुत ही सावधानी से किया जाना चाहिये। गिरफ्तार करने वाले पुलिस अधिकारी के अतिरिक्त मजिस्ट्रेट को भी इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है। आरोपित अपराध संज्ञेय और अजमानती है, गिरफ्तारी के लिये इतना भर पर्याप्त नहीं है। गिरफ्तार करने वाले पुलिस अधिकारी को गिरफ्तारी का न्यायोचित्य बताने योग्य होना चाहिये। केवल सामान्य क्रम में गिरफ्तारी उचित नहीं है। आरोपी के द्वारा पुनः कोई अपराध न किया जाये । साक्ष्य को प्रभावित नहीं किया जाये। धमकी या प्रलोभन से साक्ष्य नष्ट नहीं की जाये। यह सुनिश्चित करने के लिये तथा अनुसंधान में आवश्यक होने पर गिरफ्तारी की जा सकती है।
सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी याद दिलाया कि संविधान के अनुच्छेद 22 (2) तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 57 के अनुसार गिरफ्तारी के उपरांत 24 घण्टे में गिरफ्तार व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत करना आवश्यक है तथा 24 घण्टे से अधिक अवधि के लिये पुलिस अभिरक्षा में रखने के लिये धारा 167 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट द्वारा अधिकृत किया जाना आवश्यक है। जब कभी गिरफ्तारी उपरांत आरोपी को इस प्रावधान के अनुसार गिरफ्तारी उपरांत मजिस्ट्रेट के सामने लाया जाता है तो मजिस्ट्रेट का यह कर्तव्य है कि वह इस तथ्य का सत्यापन कर ले कि वास्तव में गिरफ्तारी के लिये धारा 41 मंें वंाछित परिस्थितियां विद्यमान रही है। यदि मजिस्ट्रेट यह पाता है कि इन स्थितियों के बिना ही गिरफ्तारी की गई है तो तत्काल गिरफ्तार व्यक्ति को रिहा कर देना चाहिये।
सन् 2008 के संशोधन के द्वारा जोड़ी गई धारा 41 ए के अनुसार संज्ञेय अपराध के आरोपी की यदि गिरफ्तारी आवश्यक नहीं समझी गई है तो उसे सूचना पत्र जारी करके बुलवाया जा सकता है और ऐसी सूचना पर उसके उपस्थित होने पर उसकी गिरफ्तारी आवश्यक नहीं समझी जावेगी। सर्वोच्च न्यायालय ने जोर देकर यह कहा कि पुलिस प्रायः धारा 41 में वर्णित सारे आधारों को अधिकांश मामलों में यथारूप वर्णित कर देती है यह उचित नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस याचिका के निराकरण के माध्यम से यह निर्देश जारी किये कि प्रत्येक मामले में अभियुक्त की गिरफ्तारी आवश्यक नहीं होती है। इसलिये पुलिस अनावश्यक गिरफ्तारी न करें तथा मजिस्ट्रेट यांत्रिक रूप से सामान्य क्रम में गिरफ्तार व्यक्ति की अभिरक्षा को आगे न बढ़ाये। सभी राज्य सरकारे अपने पुलिस अधिकारियों को निर्देश जारी करें कि धारा 498 ए के अन्तर्गत दर्ज मामलों में आरोपी को स्वतः गिरफ्तार न किया जाये बल्कि धारा 41 में वर्णित आधारों के बारे में ही संतुष्ट होने की स्थिति में गिरफ्तार किया जाये। गिरफ्तारी के पश्चात जब आरोपी को मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है तब पुलिस धारा 41 (1) (बी) (2) में वर्णित आधारों की सूची के साथ यह प्रतिवेदन दें कि किस आधार पर गिरफ्तारी आवश्यक समझी गई है। मजिस्ट्रेट भी पुलिस अभिरक्षा को आगे की अवधि के लिये अधिकृत करते समय इन बिन्दुओं पर अपना संतोष होने के आधार पर अभिलिखित करेगा। मामला पंजीबद्ध होने के दो सप्ताह में गिरफ्तारी न किये जाने के अपने निश्चय से पुलिस के द्वारा मजिस्ट्रेट व पुलिस अधीक्षक को अवगत कराना चाहिये। इसी प्रकार आरोपी को भी इस संबंध में सूचना पत्र जारी कर दिया जाना चाहिये।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ऐसे निर्देशों का पालन न करने वाले पुलिस अधिकारी के विरूद्व विभागीय कार्यवाही की जानी चाहिये तथा वे न्यायालय अवमान के लिये संबंधित उच्च न्यायालय में अभियोजित किये जाने चाहिये। इन निर्देशों के उल्लंघन में यदि न्यायिक मजिस्ट्रेट पुलिस अभिरक्षा अधिकृत करते है तो उनके विरूद्व भी संबंधित उच्च न्यायालय विभागीय कार्यवाही करें।
सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि यह निर्देश केवल दहेज प्रताड़ना के मामलों में ही नहीं बल्कि 7 साल तक की सजा के लिये प्रत्येक मामले के संबंध में लागु होंगें। इस निर्णय की प्रतियां पालन कराने के लिये भारत के सभी राज्यांे के मुख्य सचिवों, पुलिस महानिदेशकों एवं सभी उच्च न्यायालयों के रजिस्ट्रार जनरल को भेजने के निर्देश भी सर्वोच्च न्यायालय ने दिये।
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