Monday, November 16, 2015

एक लहु हम सब में बहता, जो रखता है नई पहचान कहीं,

एक कलर की ड्रेस में हम लगते थे कितने अच्छे,
नवोदय पिन्जरा लगता था और कैदी लगते थे बच्चें।
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कॉलेज एक सपना था और आज़ादी कि थी आशा,
सात साल बीत जाए और कब बीते ये हताशा।
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रोना-धोना, हँसना-गाना सब होता था बारी-बारी,
तब भी यारो की यारी पर सब जाते थे वारी-वारी।
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“हम पन्छी उन्मुक्त गगन के” पड़-पड़ कर आता था रोना,
पन्छी की जगह तब खुद को रख कर ख्वाबो में खुद को खोना।..
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रोया करते थे छुप-छुप कर, रातों को ना सो पाते थे,
माँ की याद और दिलाता, जब कन्धे पर उसके रोते थे।
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कोसा करते थे किस्मत को नवोदय की किसी चौखट पर,
आज हमे हैं फ़क्र बहुत किस्मत के उस तोहफ़े पर।
झगड़ा करते थे जिनसे तब किसी के लाख मनाने पे,
आज उन्ही को ढूँढा करते फेसबुक की ऑनलाइन दुनिया पे।
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आज भले हम “उन्मुक्त गगन” में चाहे कितना ऊँचा उड़ लेते हैं,
फ़िर भी हम कई बार हमेशा यादों में “कनक तीलियों” की खोते हैं।
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शायद जीवन के वो स्वर्णिम पल थे जो हमने वहाँ बिताए थे,
जब नवोदय की दुनिया में हमने अपने निशान बनाए थे।
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क्या पता था कुछ सालों बाद उस पिन्जरे से ऐसी चाहत हो जाएगी,
बस यादों से मन भर जाएगा और आंखे नम हो जाएगी।
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एक लहु हम सब में बहता, जो रखता है नई पहचान कहीं,
चाहे किसी भी नवोदय से हो, हैं हम में एक ही बात वही।
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बातों में नवोदय, ख्वाबों में नवोदय, जज़्बातों में नवोदय हो ।
हम ही नवोदय... हम ही नवोदय... हम ही नवोदय हो...ll

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