Thursday, November 12, 2015

पता नही क्यूँ मैं अक्सर गलती कर जाता हूँ जानता हूँ मैं चाँद को- छू नहीं पाउँगा, फिर भी उसकी ओर हाथ बढ़ाता हूँ.

पता नही क्यूँ
मैं
अक्सर गलती कर जाता हूँ
जानता हूँ
मैं चाँद को-
छू नहीं पाउँगा,
फिर भी
उसकी ओर हाथ बढ़ाता हूँ.
तुम
मेरा लक्ष्य नहीं
तुम
मेरा प्य़ार भी नहीं
मगर फिर भी
न जानें क्यूँ, अक्सर
यूँ ही
दिल के साज क्रँदन कर उठते हैं
तुम्हें छूने की
अहसास करने की अभिलाषा
ठाँठें मारने लगती है
और
ऐक जादू सा
वशीकृत कर लेता है
मुझे.
विस्मय से मैं
देखता हूँ अपनी ओर
और पाता हूँ,कि
मैं स्वयँ में
बदला हूँ
मैं अपना अस्तित्व, ईश्वरत्व
भुला बैठा हूँ
मैं
बस तुम्हारा सामीप्य
तलाशता हूँ
यह जानकर भी, कि
यह वैसी ही मरीचिका है
जैसे मछली
पानी के बिना नहीं रह सकती
पर
बार-बार पानी के बाहर मुँह निकाल
बाहर की हवा में
साँस लेने की चाहत में
कभी-कभी
अपना जीवन खो बैठती है
मैं भी उसी प्रकार की
अज्ञानता से ग्रस्त हूँ
और
अपने परिवेश के बाहर
हो
एक अनूठे प्रेम को -
पाने का प्रयास करता हूँ
जबकि मैं जानता हूँ,
प्रेम
आकाश की तरह मुक्त-
वि्स्तृत और विशाल, और
प्रकाश की गति से भी तीव्र गत से
मन को वेध देता है
और
रूह में समा जाता है

No comments:

Post a Comment