आजकल इस बात को लेकर काफी चर्चा है कि समाज में नाबालिक छोटी बच्चियों से लेकर
नवयुवतियों और यहाँ तक कि अधेड़ और वृद्ध महिलाओ तक के साथ यौनाचार, छेड़छाड़,
बलात्कार व सामूहिक बलात्कार की घटनाएँ
हो रही है। लगातार सामने आ रही बलात्कार की घटनाओं के कारण आज सड़कों, ऑफिसों या किसी सार्वजनिक स्थान पर नाबालिक
बच्चियां और महिलाये अपने आप को असुरक्षित महसूस करती है, इस प्रकार की घटनाओं की
वजह से दिल्ली को 'रेप कैपिटल' तक भी कहा जाने लगा है।
ईश्वर
ने नर और नारी की शारीरिक संरचना भिन्न इसलिए बनाई कि यह संसार आगे बढ़ सके। मानव
सभ्यता की शुरुआत से ही समाज पुरुषसत्तात्मक समाज के रूप में जाना जाता रहा है।
लेकिन आधुनिक युग में पहले के मुकाबले ज्यादा लड़कियां पढ़-लिख रही हैं और
कार्यक्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं, और कई
क्षेत्रों में तो महिलाये पुरुषों से आगे पहुच गई है
। जिससे महिलाओं के चेहरे से आत्मविश्वास और स्वच्छंद रवैया झलकता है, फिर भी समाज में नाबालिक
छोटी बच्चियों, नवयुवतियों, अधेड़ और वृद्ध महिलाओ के साथ यौनाचार, छेड़छाड़,
बलात्कार व सामूहिक बलात्कार की घटनाओं का ग्राफ चिंताजनक स्तर पर पहुंच गया है। आज जरुरत है
कि कैसे नाबालिक यौन शोषण व बलात्कार
जैसे अपराधों की रोकथाम की जाय? इस विषय पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिये कि
भारत के दिल्ली जैसे शहर में ज़्यादा बलात्कार क्यों होते हैं?
आखिर यह बेरहमी नाबालिक बच्चो व बच्चियों
के साथ अप्राकृतिक शारीरिक यौन-शोषण की प्रवृति कहाँ से पैदा होती है? क्या इसे समय रहते रोका नहीं जा सकता? क्या केवल
अपराधियों को दण्डित करना पर्याप्त है?
नाबालिक
बच्चो व बच्चियों के साथ अप्राकृतिक शारीरिक यौन-शोषण
और बलात्कार एक अपराध होने के साथ-साथ हमारी पारिवारिक व्यवस्था और सामाजिक चेतना
का भी विषय है । जहाँ कई लोग ऐसे हैं जो इस
तरह के अमानवीय व्यवहार को अनुचित नहीं मानते । वहीँ इस कृत्य का बीजारोपण होता है। इस बात को समझने के लिये इस तथ्य की ओर
ध्यान देना होगा कि बलात्कारियों में एक बड़ी संख्या ऐसे लोगो की है । जो पीड़ित नाबालिक बच्चो या महिला के परिवार के
सदस्य है, आस-पड़ोस में रहने वाले है, जान-पहचान वाले है, या फिर कुंठा और मनोवैज्ञानिक
रूप से विकृत मानसिकता वाले है।
इस बात को कुछ विस्तार में समझा जाना चाहिए । हम जानते हैं कि
शहरों में ऐसे परिवारों की संख्या सैकड़ो-हजारो में नहीं बल्कि लाखो-करोड़ो में है ।
जो जगह की कमी और परिवार को सीमित रखने की जरुरत को ना समझने के कारण एक ही कमरे
में 8-10 या अधिक सदस्यों के साथ रहने को विवश है। ऐसी परिस्थिति में जब पति-पत्नी स्वाभाविक
सेक्स-क्रिया करेंगे और इस दौरान बच्चो की नींद खुल जाय और वे यह देखे तो उनके मन
पर क्या प्रभाव पड़ता होगा? क्या उनमे भी इस प्रकार की क्रिया करने की इच्छा पैदा
नहीं होगी? क्योंकि बाल्यावस्था में बच्चे अपने माता-पिता को देखकर अनुशरण करते
हुए इसे स्वयं करने की कोशिश करते है तो उन्हें यह ज्ञान नहीं होता, कि अभी यह सब
देखना, करना और समझना उनकी उम्र के अनुसार ठीक नहीं है, यह अपराध है इसका ध्यान तो
उन्हें कभी नहीं आता । बल्कि वे इसे केवल एक सामान्य खेल की तरह लेते
है और बालक बालिका उसी के अनुरूप व्यवहार करते है
। और यहीं से उन बच्चो का बड़े होते
होते अपराधी कारण होना शुरू हो जाता है, जिसका परिणाम एक सामाजिक विकृति के रूप
सामने आता है । यही कारण है कि बड़े
शहरों में ‘रिपोर्ट’ किये
जाने वाले बलात्कारों में निम्न तथा निम्न-मध्यवर्ग के आरोपी बहुत ज़्यादा अनुपात
में होते हैं । अत: स्कूलों में तथा मीडिया द्वारा माता-पिता को बच्चो की शिक्षा, स्वास्थ्य
व कुसंगति इत्यादि के प्रति जागरूक किया जाना चाहिए। हर जगह पुलिस का पहरा नहीं लगाया जा सकता, इसलिए
लड़कियों को बचपन से ही आत्मरक्षा की ट्रेनिंग अनिवार्य रूप से दी जाये।
दूसरा हम जानते हैं कि शहरों में मीडिया और इंटरनेट की सघन
उपस्थिति ‘यौन अभिव्यक्तियों’ को सहज उपलब्ध करा देती है । इंटरनेट पर देशी-विदेशी पोर्न व टी.वी. पर
दिखाए जाने वाले कई विज्ञापनो में कामुक दृश्य किशोरों और युवाओं, की यौन-इच्छाओं को आमतौर पर भड़काकर उनको उसका दीवाना बना देती है । वे
रात दिन नए यौन अनुभवों की कल्पना में डूबे रहते हैं । ये युवा इस माहौल के कारण
लगभग बीमारी जैसी हालत में रहते हैं, पर यह ऐसी बीमारी है जो
सम्मोहित और मदहोश करती है । वे इससे बचना नहीं चाहते, और यदि चाहें भी तो
मित्र-समूह के दबाव के कारण नहीं बच सकते. सड़कों पर चलते समय वे आसपास दिख रही
लड़कियों और महिलाओं में स्वाभाविक तौर पर वही छवि खोजते हैं । दिल्ली की सड़कों पर घूमता हुआ औसत आदमी मानसिक तौर पर एक वहशी की सी हालत
में रहता है । इसका सबूत यह है, कि शाम के बाद दिल्ली की किसी भी सड़क पर कोई
लड़की अकेली खड़ी हो तो वहाँ से गुज़र रहे पुरुष गाड़ी या बाइक रोककर उसे भूखी
नज़रों से देखते हैं, इस उम्मीद में कि शायद उसे खरीदा या
दबोचा जा सके । इस भूखी संस्कृति का ही परिणाम है कि दिल्ली का कामुक नौजवान आगा-पीछा
भूलाकर किसी नाबालिक या सुंदर स्त्री को दबोच लेंता है, इसलिए सरकार को सचेत होना
चाहिये कि जिस तरह फिल्मों के लिए सैंसर बोर्ड की व्यवस्था है, वैसे ही टी.वी. के विज्ञापनों और कार्यक्रमों के लिए भी होनी चाहिए । रात
के 11 बजे से पहले वही कार्यक्रम दिखाए जाने चाहिएँ, जो बच्चों
के मन पर अनुचित असर न डालें । साथ ही, स्कूलों में तथा
मीडिया द्वारा माता-पिता को बच्चो की शिक्षा, स्वास्थ्य व कुसंगति इत्यादि के
प्रति जागरूक किया जाना चाहिए ।
तीसरा बलात्कार का कारण नशा है, नशा करने के बाद मनुष्य की
भावनाएं प्रबल हो जाती हैं । अक्ल का नाश हो जाता है और उसका स्वयं पर
नियंत्रण नहीं रहता । नशा करने के बाद उसकी कई
गुना बढ़ी वासना उसे कहीं से भी अपने को शांत करने के लिये उकसाती है ऐसे
में कोई भी स्त्री उसे मात्र शिकार ही नजर आती है।
लेकिन उसका परिणाम क्या होगा उसकी तरफ उसकी अक्ल कुछ भी सोचने नहीं देती। बलात्कार
जैसे ज़्यादातर मामलों में अपराधी को नशे में या नशे का आदी ही पाया गया। इसलिए देश
में पूरी तरह नशाबंदी घोषित कर दी जाये। इससे न केवल बलात्कार बल्कि दूसरे अपराधों
में भी अच्छी खासी कमी हो जायेगी। यह सच है कि इससे सरकार के रेवेन्यू को बहुत
बड़ा झटका लगेगा, लेकिन इसके बाद ऊर्जावान युवकों का
जो ग्रुप उभरेगा (नशा छोड़ने के बाद) वह इस झटके से देश को पूरी तरह उबार देगा।
चौथा कारण प्रशासन और पुलिस की अक्षमता: वास्तव में प्रशासन और पुलिस कभी कमजोर नहीं होते। कमजोर होती है समस्या से
लड़ने की उनकी इच्छा शक्ति। सभी जानते हैं कि बड़े कहे जाने वाले लोग जब आरोपों के
घेरे में आते हैं तो प्रशासनिक शिथिलताएं उन्हें कटघरे के बजाय बचाव के गलियारे
में ले जाती है। पुलिस की लाठी गरीब बेबस पर जितने जुल्म ढाती है सक्षम (धनाढय)
के सामने वही लाठी सहारा बन जाती है।
कई बार सबूत के आभाव में न्याय नहीं मिलता और अपराधी छूट जाता है। इसका मतलब
साफ है कि बलात्कार के लिए सजा देने के लिए कानून जरूरी रूप से सशक्त नहीं है, जिससे अपराधियों के हौसले बढ़ते हैं। हालांकि
पिछले दिनों सरकार ने बलात्कार के कानून के मजबूत बनाने की पहल शुरू की है। कमजोर
कानून और इंसाफ मिलने में देरी यह भी बलात्कार की घटनाओं के लिए जिम्मेदार हैं।
प्राय: बलात्कारों का एक कारण सामाजिक दबावों की अनुपस्थिति में
भी छिपा है । इसलिए सबसे बड़ा परिवर्तन समाज के दृष्टिकोण में होना चाहिए.
बलात्कार को ‘दुर्घटना’ की
तरह देखने की आदत विकसित की जानी चाहिए । जिस तरह सड़क की दुर्घटना में हम पीड़ित
के प्रति सहानुभूति रखते हैं और उसे अपराधी नहीं मानते; वैसे
ही बलात्कार पीड़ित महिला के प्रति संवेदना का भाव होना चाहिए, उसे ज़िंदगी भर अपमानित नहीं किया जाना चाहिए । अपराधियों का परिवार और
समाज में सामाजिक बायकॉट होना चाहिए ताकि ऐसे अपराध करने के प्रति भय पैदा हो. घर
के भीतर लिंग समता के गंभीर प्रयास किये जाने चाहिएँ । लड़कों को घर के कामों में
सहभागी बनाया जाना चाहिए । परवरिश की प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिए कि लड़कों और
लड़कियों के बीच अधिकतम समता सुनिश्चित हो । धर्म से जुड़े विश्वासों को भी इस कोण
से जाँचा जाना चाहिए कि वे लिंग भेद को प्रोत्साहित तो नहीं करते हैं ।
मेरा ख्याल है कि समाज को यौन अपराधों तथा उनसे जुड़ी हिंसा जैसी
क्रूरता को जड़ से मिटाने के लिये हमें हर सम्भव क़दम उठाकर समाज को काफ़ी हद तक
बचा सकते हैं । इसके लिए सिर्फ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति पर्याप्त नहीं है,
सामाजिक इच्छाशक्ति की भी बड़ी भूमिका है. जिसके लिए ज़रूरी है कि
पुरुष उन अवैध अधिकारों को स्वेच्छा से छोड़ने की ताकत अर्जित करें जो परंपरा ने
स्त्रियों का हक़ मारकर उन्हें दिए हैं. तभी स्त्री जाति सुरक्षित
और निर्भय होकर जीने का अधिकार प्राप्त कर सकती है ।
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