Friday, April 1, 2016

उत्तम शिक्षा की बातें

न श्व: श्वमुपासीत। को हि मनुष्यस्य श्वो वेद ।।
- शतपथ ब्राह्म० २।१।३।९

" कल करुंगा,कल करुंगा"- ऐसी बात नहीं सोचनी चाहिये। मनुष्य के कल को कौन जानता है? कल तक जीवन रहेगा ही,इसका क्या निश्चय है?

सत्यं वद। धर्मं चर। स्वाध्यायान्मा प्रमद: ।
-तू सदा सत्य बोल,धर्म का आचरण कर और स्वाध्याय में कभी प्रमाद मत कर।

अध: पश्यस्व मोपरि सन्तरां पादकौ हर।
मा ते कशप्लकौ दृशन् स्री हि ब्रह्मा बभूविथ ।।
-ऋ० ८।३३।१९

हे नारी ! नीचे देख,ऊपर मत देख। अपने पैरों को संयत करके रख। तेरे शरीर के अंग दिखाई न देने चाहिएं, क्योंकि नारी मानव-समाज की निर्मात्री है।

सदा प्रह्ष्टया भाव्यं गृहकार्येषु दक्षया ।
सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तहस्तया ।।
-मनु० ५।१५०

स्त्री को चाहिये कि सदा सुप्रसन्न रहे, घर के कार्यों में चतुर हो, घर के बर्तन आदि स्वच्छ एवं यथास्थान रक्खे और व्यय=खर्च करने में बहुत उदार न हो, बेकार धन खर्च न करे।

तिष्ठन्न खादामि हसन्न जल्पे
गतं न शोच्यामि कृतं न मन्ये ।
द्वाभ्यां तृतीयो न भवानि राजन्
कथमस्मि मूर्खों वद कारणेन ।।

राजन ! मैं खडा होकर खाता नहीं हूं, वार्तालाप करते हुए हँसता नहीं हूं,बीती हुई बात की चिन्ता नहीं करता, किसी के प्रति किये हुए उपकार को गाता नहीं फिरता, जहां दो व्यक्ति परस्पर वार्तालाप कर रहे हों, उनमें तीसरा होकर पन्च नहीं बनता,फिर आपने मुझे मुर्ख क्यों कहा ?

विषेश-अर्थात् जो उपरोक्त पांचों चिन्ह मूर्ख के बताये हैं।

मूकं परापवादे परदारनिरीक्षणेअप्यन्ध: ।
पंगुपरधनहरणे स जयति लोकत्रये पुरुष: ।।

जो दूसरों की चुगली करने में गूंगा हो, जो पर स्त्रियों को देखने के विषय में अन्धा हो और दूसरों का धन चुराने के विषय में लंगडा हो- ऐसा मनुष्य तीनों लोकों में श्रेष्ठ माना जाता है।

परस्त्री मातेव क्वचिदपि न लोभ: परधने
न मर्यादाभंग: क्वचिदपि न नीचेष्वभिरति: ।
रिपौ शौर्यं धैर्यं विपदि विनय: सम्पदि सदा
इदं वच्मि भ्रातर्भरत नियतं ज्ञास्यसि मुदे ।।

[श्रीराम उपदेश देते हैं-] हे भाई भरत ! पर-स्त्री को माता के समान समझना,दूसरे के धन का लोभ कभी न करना, कभी मर्यादा का भंग न करना, नीचों की संगति में कभी प्रेम प्रेम मत करना, शत्रु के प्रति शूरता प्रदर्शित करना,विपत्ति में धैर्य रखना और सम्पत्ति में विनीत रहना- ये सब प्रसन्नता के निश्चित हेतु हैं, ऐसा जानो।

आयुष: क्षण एकोअपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते ।
नीयते तद् वृथा येन प्रमाद: सुमहानहो ।।
-यो० वा० ६ उ० १७५।७८

आयु का एक क्षण भी संसार के सब रत्न देने पर भी नहीं मिल सकता। ऐसे बहुमूल्य जीवन को जो व्यर्थ खोता है,तो अहो ! यह बडा भारी प्रमाद है।

षड् दोषा: पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता ।।
-विदुरनी० १।८३

ऐश्वर्य चाहने वाले मनुष्य को इस संसार में निम्न छह दोष छोड देने चाहियें-
१. बहुत अधिक सोना, २.ऊँघते रहना, ३. भयभीत होना, ४.क्रोध करना, ५.आलस्य और ६.कार्यों को विलम्ब से करना,एक घण्टे के कार्य में चार घण्टे लगाना।

दीर्घसूत्री विनश्यति ।
कार्यों को बहुत धीरे धीरे करने वाला नष्ट हो जाता है।

एकोअहमसहायोअहं कृशोअहमपरिच्छद: ।
स्वप्नेअप्येवंविधा चिन्ता मृगेन्द्रस्य न जायते ।।

मैं अकेला हूं, मैं सहायकों से रहित हूं, मैं दुर्बल हूं, मैं परिवार रहित हूं-सिंह को स्वप्न में भी ऐसी चिन्ता नहीं होती।

जो अमूल्य मानव देह पाकर भी प्रभु भक्ति नहीं करता, वह कमल पुष्प से छाता बनाता है, चन्दन से हल बनाता है, सोने से कुश बनाता है, रत्नों से कौओं को उडाता है, अमृत से पैर धोता है, हाथी पर जलाने की लकडियां लादकर लाता है, कस्तूरी से स्याही बनाता है, गाय से खेत की जुताई करता है और रेशमी दुपट्टे से घाव बाँधता है।
अजय कर्मयोगी

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