बच्चों को भविष्य बनाना हर माता-पिता या अभिभावक अपना प्राथमिक कत्र्तव्य समझता है मगर इसका एकतरफा अर्थ सिर्फ यही नहीं है कि अपना बच्चा अपने जीवन और दुनिया के दूसरे सारे कर्मों और अपने फर्ज को भुलाकर सिर्फ पैसे कमाने और जमा करने, भोग-विलासिता के संसाधन इकट्ठा करने का औजार ही बना रहे और जिन्दगी भर इस खुशफहमी में रहे कि उसके पास वो सब कुछ है जो दूसरों के पास नहीं है।
पुरुषार्थ चतुष्टय में धर्म, अर्थ, कर्म और मोक्ष इन चारों को मनुष्य जीवन का प्रमुख अंग माना गया है लेकिन आज के समय में माँ-बाप अपने बच्चों को शेष तीन बातों को भुलाकर अर्थ ही अर्थ की ओर मोड़ना चाहते हैं और यही कारण है कि आजकल के बच्चों के सामने सिर्फ पैसा और संसाधन ही परम और चरम लक्ष्य के रूप में सामने दिखाया जाता है और उसे पाने के लिए की जाने तमाम प्रकार की दौड़ों की दिशा मेंं धकेलने में हमें कोई परहेज नहीं होता।
यही कारण है कि इंसानों की नई फसल सिर्फ मुद्राओं की टकसाल और भौतिकता भरी चकाचौंध का पर्याय मात्र होकर रह गई है। हम सभी चाहते हैं कि हमारी संतानें समाज और देश तथा घर-परिवार के फर्ज की बजाय अपने आपको बनाने और कमाने-खाने तथा ज्यादा से ज्यादा जमा करने लायक बनें और ऎसा करने के लिए हम उन सभी मार्गों का सहारा लेना चाहते हैं जिनसे हम पूरी तरह निश्चिंत हो सकें।
इन हालातों में जो नई पीढ़ी हमारे सामने आ रही है उसका सर्वांगीण विकास पूरी तरह रुक गया है और मुद्रार्चन से भरा एकांगी विकास अभियान की तरह फल-फूल रहा है। मनुष्य मात्र के कत्र्तव्य कर्म, घर-परिवार के दायित्वों और समाज तथा देश के प्रति हमारे फर्ज को पूरा करने और कर्ज उतारने के तमाम ध्येय काफी पीछे छूटते जा रहे हैं।
ज्ञान या हुनर से अधिक कमाई की चिंता है, क्षमता से अधिक बटोरने को हम सब उतावले होते जा रहे हैं । हम अपने समाज की इकाई को कितनी ही समृद्ध बना डालें लेकिन शुचिता और संस्कारों की कमी तथा सामाजिक दायित्वों का भान जिन्हें नहीं होता, वे लोग कितने ही धनाढ्य और प्रतिष्ठित हो जाएं, समाज या देश के किसी काम नहीं आ सकते।
उन्हें हर दिशाएँ किसी दर्पण की ही तरह लगती है जहाँ हर कहीं उन्हें अपना ही अक्स नज़र आता है। न घर - परिवार के लोग या कुटुंबी नज़र आते हैं, न समाज, क्षेत्र और देश। यही कारण है कि आज हमारे सामने समस्याओं का अंबार है, मूल्यहीनता की स्थितियां सामने आती जा रही हैं और सामूहिक विकास तथा सामुदायिकता का बोध समाप्त होने लगा है। इनका सिर्फ हम दिखावा ही करने लगे हैं।
बच्चों का इकतरफा विकास करने की मनोवृत्ति हम सभी पर इतनी हावी हो चुकी है हम उन्हें बचपन के आनंद और घर-परिवार तथा अपने स्नेह दुलार से वंचित रखकर अपने से दूर करने को उतावले हो रहे हैं सिर्फ उनकी समृद्धि और हमारे अहंकार को परितृप्त करने।
बच्चों के सम्पूर्ण जीवन के लिए माँ-बाप, भाई-बहनों और घर-परिवार, समाज तथा क्षेत्र अपने आप में वे पॉवरफुल टॉनिक हैं जो उसे कहीं और से कभी प्राप्त नहीं हो सकते, चाहे वे कितने ही उच्च विलासी वातावरण और भौतिकता में क्यों न रहें। बच्चों के विकास का अर्थ केवल उसे पैसे कमाने और जमा करने वाली मशीन बनाना नहीं है बल्कि उसके व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास कर समाज और देश के लिए उसे सुनागरिक के रूप में तैयार करना है।
आज हम मौद्रिक लोभ और अपने बेटे-बेटियों को बाहर पढ़ाकर बड़ा बनाने के अहंकार को आकार देने के लिए उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकास नहीं कर पा कर एकपक्षीय विकास कर रहे हैं और यह विकास खण्डित विकास की श्रेणी में आता है जहाँ बच्चा बड़ा होकर पैसे कमाता भी है, जमा भी करता है लेकिन घर-परिवार, समाज और देश के लिए उसकी कोई उपयोगिता नहीं होती।
यहाँ तक कि अधिकतर मामलों में ये बच्चे अपने माँ-बाप के भी नहीं हुआ करते बल्कि माँ-बाप से उनके स्नेह-दुलार और वात्सल्य का रिश्ता इतना टूट चुका होता है कि ये अपने सारे रिश्तों को व्यवसायिकता के ताने-बाने में बंधा और पैदा हुआ देखते हैं। यही कारण है कि हमारी नई पीढ़ी के मौजूदा विकास का दौर जितना अधिक व्यापक होता जा रहा है हमें वृद्धाश्रमों की जरूरत पड़ने लगी है।
बच्चों का सम्पूर्ण विकास तभी संभव है जब वे हमारे पास और साथ रहकर पले-बढ़ें। इसके लिए यदि स्थानीय स्तर पर उनके लायक शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध हो, तो उन्हें अपने साथ रखें तथा ज्यादा ही जरूरी हो तो उन्हें अतिरिक्त सुविधाओं और शिक्षण-प्रशिक्षण का लाभ दिलाएं। बच्चे हमारे वंश की धरोहर हैं उन्हें इस लायक बनाएं कि हमारे वंश की मान-मर्यादा को आने वाले युगों तक कायम रख सकें, उन्हें सिर्फ धन भण्डारपाल न बनाएं।
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