एक चाय का प्याला लेकर आँगन में निकली ही थी, कि बसंत ऋतू के आने का एहसास हुआ। वही पक्षियों की गुंजन, नए पत्ते, रंग-बिरंगे फूल, तितलियाँ देखते ही मेरा मन एक लॉन्ग ड्राइव पर जाने के लिए उत्सुक हो उठा। मैंने अपनी कार उठाई और लॉन्ग ड्राइव पर निकल गई।
चारों ओर नए पत्तों की चटख हरियाली, धुप-छाँव वाले रास्ते, उड़ते पक्षी, तालाब के किनारे सैर करते लोग, खेतों में हो रही मक्के की बोनी…… बड़ा ही अद्भुत दृश्य था। इसी दृश्य का लुत्फ़ उठाते, मै आगे बढती जा रही थी। सामने सेब के बगीचे में काम करते मजदूर, सड़क पार कर रहे थे, उन्हें देखते ही अचानक मैंने ब्रेक लगये, कार झटके से क्रोसिंग पर रुक गयी. मजदूरों के हाथ में 2-3 ट्रोली थी, जो लाल-लाल सेबों से लदी थी। मेरे मन में एक विचार आया कि मै वहां रुक जाऊ और बच्चों के लिए कुछ सेब खरीद लूँ। ऐसा विचार आते ही मैंने कार बगीचे के किनारे खड़ी कर दी। बगीचे के सामने बढ़ी ही थी की सामने डैबी आकर खड़ी हो गई. उन्हें सामने देखकर मैं सकपका गई। मै सोचने लगी कि, यह डैबी यहाँ कैसे? इसका बगीचा तो दूसरी सड़क पर था। यह सोचते-सोचते मेरे दिमाग ने अंदाज़ा लगा लिया कि, यह बगीचा इतना बड़ा है कि इसका दूसरा छोर कही दूर दूसरी सड़क पर है। उन्होंने मुझसे नमस्ते किया। मेरा हाल-चाल पूछा व् मेरे, वहां दोबारा आने पर अपनी ख़ुशी जताई। मैंने भी उत्साहित होकर उनका अभिवादन किया। उन्होंने ,मेरे माता-पिता की इण्डिया में कुशलता पूछी। उनके इस वर्ष अमेरिका आने की योजना के बारे में भी पूछा। मैंने उन्हें बताया कि इस वर्ष कुछ दूसरी पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण वे नहीं आ सकेंगे। करीबन पद्रह मिनट बातों का सिलसिला चलता रहा, फिर मै सेब खरीदकर, बाय बोलकर वहां से घर की ओर चल पड़ी।
वापस ड्राइव करते समय मुझे डैबी से पहली मुलाकात ध्यान आ गई। पिछले बरस कुछ यही समय था. सेब की फसल तैयार थी। इसी बसंत ऋतू के बाद मेरे माता-पिता मेरे पास अमेरिका आये थे। एक दिन हम माता-पिता को सेब का बगीचा दिखाने ले गए। उस दिन गौधुली बेला का समय था, सूरज डूबने वाला था। आसमान में लालिमा देखते ही बन रही थी। सड़को पर दूर-दूर तक कोई नहीं दिख रहा था। हम बगीचे में पहुंचे, वहां कोई नहीं था। हमने आस-पास टहल कर जानने की कोशिश की कि हम किससे बगीचा घूमने की इजाज़त ले। सामने एक छोटा से टेंट दिखाई दिया। वहां पर छोटी-छोटी सेब से भरी हुई टोकरियाँ रही थी, जिन पर उनके दाम लिखे थे। बगल में ही एक गुल्लक भी था, जिस पर लिखा था….. ” कृपया पैसे यहाँ डाले. वीडिओ कैमरे की सहायता सेइस काउंटर पर नज़र रखी जा रही है .” ऊपर कैमरा भी लगा हुआ था। यह देखकर साफ़ पता चल रहा था, की ये सेब बेचने के लिए रखे गए है। दाम ज्यादा होने के कारण हमारी मंशा खरीदने की कतई नहीं थी। हम टेंट से बाहर आये, और बगीचों की तरफ नज़र घुमाई, वहां से एक सुनहरे बालों वाली गोरी मेम आती दिखाई दी। वह इस बगीचे की मालिक थी। हमने उससे बगीचे में घूमने की इजाज़त मांगी। उसने हमें सेब न तोड़ने की हिदायत के साथ, बगीचे के किनारे-किनारे घूमने की इजाज़त दी। हम सभी ने (मेरे माता-पिता, पति, दस वर्षीय बेटा, पाँच वर्षीय बेटी, व मै ) बगीचे के किनारों पर चलना शुरू किया। घुमते-घुमते काफी आगे निकल आये। बगीचे का नज़ारा देखकर , आँखें फटी की फटी रह गयी । हर एक सेब का पेड़ कम से कम 200 फलो से लदा था। सेब के वज़न से पेड़ों की डालियाँ झुकी जा रही थी। नीचे क्यारियों में भी सैकड़ो की संख्या में फल गिरे हुए थे। चारो तरफ सन्नाटा था। फलों को चुनने या बटोरने वाला वहां कोई नहीं था। यह देखकर शायद हम सभी का सेब खाने का मन हो रहा था, पर सभी इस कशमकश में थे कि बगीचे की मालिक द्वारा दी गयी हिदायत के बावजूद भी ऐसा करना उचित होगा या नहीं। फिर हम सभी ने हिम्मत करके एक-एक फल उठाकर खाए। इतने स्वादिष्ट व रसीले फल हमने अब तक के सम्पूर्ण जीवन काल में कभी नहीं खाए, शायद इसलिए कि वो ताज़ा थे। हम सभी ने और सेब खाए जब पेट भर गया तो, मेरे पिता जी ने आठ-दस फल अपनी रूमाल में बाँध लिए। माँ ने पंद्रह -बीस अपने दुपट्टे में, मैंने आपने दोनों हाथो में चार-चार फल रख लिए। बच्चे फल खा ही रहे थे। पतिदेव, भर पेट खाकर हाथ झाड चुके थे।
देसी मानसिकता है ही ऐसी, कि जब पैसे देकर खरीदना पड़े तो खरीदने की मंशा नहीं होती, और जब मुफ्त में मिल रहा हो तो हिदायतों के बाद भी लेने से नहीं चुकते…..हा हा हा हा….. शोपिंग मॉल में मिल रहे मुफ्त सेम्पल लेने के लिए घंटों लाइन में खड़े रह सकते है, परन्तु कुछ खरीदने के लिए पेमेंट की लाइन में खड़े होना गवारा नहीं होता… हा…हा….हा…हा…खैर …. अँधेरा बढ़ रहा था, अब हमने अपनी कार की तरफ बढ़ाना शुरू किया। कार के पास पहुँचने ही वाले थे कि पीछे से जोर से किसी ने कड़े स्वरों में आवाज़ लगायी …. “रुकिये !!!!!” हम सपरिवार रंगे हाथों पकडे गए…..हमारे तो जैसे पेरों तले ज़मीन खिसक गयी…. डर के मारे हमारे कान गरम होने लगे। मेरे माता-पिता भी घबरा गए। पीछे मुड़ कर देखा तो वही सुनहरे बालो वाली गोरी मेम , नाखुश मिजाज़ में हमारी तरफ बढ़ रही थी। मै सोचने लगी कि अब क्या जवाब देंगे। वह हमारे पास आकर हमारे इकट्ठे किये सेबो को भरी नज़र देखते हुए बोली… ” ये आपने क्या किया, मैंने आपको बगीचे घूमने की इजाज़त दी, आपनेवादा भी किया कि आप सेब नहीं तोड़ेंगे, फिर भी आपने ये सेब तोड़े, मै बहुत नाखुश हूँ “… सुनते ही हमारी नज़रे शर्म से झुक गयी। हमारे पास जवाब नहीं था। हमें अपनेआप में छोटेपन का एहसास हो रहा था। फिर भी मैंने उससे माफ़ी मांगी और कहा, कि “हमने ये फल तोड़े नहीं है, ज़मीन से उठाये है.” मेरे माफ़ी मांगने पर उसके कड़क स्वरों में ढीलापन आया, वह मुस्कुराकर बोली, “हां, मै देख सकती हूँ, कि ये अभी के ताज़े टूटे फल नहीं है”.उसकी मुस्कराहट देखकर हमारी जान में जान आई। हमने वार्तालाप चालू किया। वह हमारे भारत की विभिन्न फसलों व भारत के विश्व प्रसिद्द के आमो के बारे में पूछती रही, (शायद इसलिए कि वह स्वयं इस क्षेत्र से जुडी हुई थी।) हम उसे बताते रहे। बातों ही बातों में माहौल हल्का हो गया। तब उसने बताया कि वह “डैबी “ है। हम सभी ने भी अपना परिचय दिया। अब पूरी तरह अँधेरा हो चूका था, हमने उससे जाने की इजाज़त मांगी। घर जाते समय रास्ते में हम सभी बाते कर रहे थे, कि “ऐसी सपरिवार शर्मसार स्थिति हमारे सामने कभी नहीं आई”… हंसी भी आ रही थी, पर अन्दर शर्म का एहसास दिल की गहराइयों तक महसूस किया जा सकता था। मुझे महसूस हुआ कि , इन्ही आदतों की वजह से हम हिन्दुस्तानी पूरे विश्व में बदनाम है।
मेरे माता-पिता इण्डिया से हमारे लिए “दशहरी” व “अल्फेंजो” आम लेकर आये थे। अगले दिन हम कुछ आम व काजू कतली लेकर डैबी के पास गए, उसे आम देते हुए मैंने कल के लिए पुनः माफ़ी मांगी। आम पाकर वह गदगद हो गयी। शायद हमारे आम देकर माफ़ी माँगने का अंदाज़ उसे बड़ा भा गया…
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