Friday, April 8, 2016

शिक्षा

जब से मानव सभ्यता का सूर्य उदय हुआ है तभी से भारत अपनी शिक्षा तथा दर्शन के लिए प्रसिद्ध रहा है | यह सब भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों का ही चमत्कार है कि भारतीय संस्कृति ने संसार का सदैव पथ-प्रदर्शन किया और आज भी जीवित है | वर्तमान युग में भी महान दार्शनिक एवं शिक्षा शास्त्रियों इसी बात का प्रयास कर रहे हैं की शिक्षा भारत में प्रत्येक युग की शिक्षा के उद्देश्य अलग-अलग रहें हैं इसलिए वर्तमान भारत जैसे जनतंत्रीय देश के लिए उचित उद्देश्यों के निर्माण के सम्बन्ध में प्रकाश डालने से पूर्व हमें अतीत की ओर जाना होगा | निम्नलिखित पंक्तियों में हम प्राचीन, मध्य तथा वर्तमान तीनो युगों की भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों पर प्रकाश डाल रहे हैं –
(1) पवित्रता तथा जीवन की सद्भावना – प्राचीन भारत में प्रत्येक बालक के मस्तिष्क में पवित्रता तथा धार्मिक जीवन की भावनाओं को विकसित करना शिक्षा का प्रथम उद्देश्य था | शिक्षा आरम्भ होने से पूर्व प्रत्येक बालक के उपनयन संस्कार की पूर्ति करना शिक्षा प्राप्त करते समय अनके प्रकार के व्रत धारण करना, प्रात: तथा सायंकाल ईश्वर की महिमा के गुणगान करना तथा गुरु के कुल में रहते हुए धार्मिक त्योहारों का मानना आदि सभी बातें बालक के मस्तिष्क में पवित्रता तथा धार्मिक भावनाओं को विकसित करते उसे आध्यात्मिक दृष्टि से बलवान बनाती है | इस प्रकार साहित्यिक तथा व्यवसायिक सभी प्रकार की शिक्षा का प्रत्यक्ष उद्देश्य बालक को समाज का एक पवित्र तथा लाभप्रद सदस्य बनाना था |
(2) चरित्र निर्माण – भारत की प्राचीन शिक्षा का दूसरा उद्देश्य था – बालक के नैतिक चरित्र का निर्माण करना | उस युग में भारतीय दार्शनिकों का अटल विश्वास था कि केवल लिखना-पढना ही शिक्षा नहीं है वरन नैतिक भावनाओं को विकसित करके चरित्र का निर्माण करना परम आवश्यक है | मनुस्मृति में लिखा है कि ऐसा व्यक्ति जो सद्चरित्र हो चाहे उसे वेदों का ज्ञान भले ही कम हो, उस व्यक्ति से कहीं अच्छा है जो वेदों का पंडित होते हुए भी शुद्ध जीवन व्यतीत न करता हो | अत: प्रत्येक बालक के चरित्र का निर्माण करना उस युग में आचार्य का मुख्य कर्त्तव्य समझा जाता था | इस सम्बन्ध में प्रत्येक पुस्तक के पन्नों पर सूत्र रूप में चरित्र संबंधी आदेश लिखे रहते थे तथा समय –समय पर आचार्य के द्वारा नैतिकता के आदेश भी दिये जाते थे एवं बालकों के समक्ष राम, लक्ष्मण, सीता तथा हनुमान आदि महापुरुषों के उदहारण प्रस्तुत किये जाते थे | कहने का तात्पर्य यह है कि प्राचीन भारत की शिक्षा का वातावरण चरित्र-निर्माण में सहयोग प्रदान करता था |
(3) व्यक्तित्व का विकास- बालक के व्यक्तित्व को पूर्णरूपेण विकसित करना प्राचीन शिक्षा का तीसर उद्देश्य था | इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए बालक को आत्म-सम्मान की भावना को विकसित करना परम आवश्यक समझा जाता था | अत: प्रत्येक बालक में इस माहान गुण को विकसित करने के लिए आत्म-विश्वास, आत्म-निर्भरता, आत्म-नियंत्रण तथा विवेक एवं निर्णय आदि अनके गुणों एवं शक्तियों को पूर्णत: विकसित करने का अथक प्रयास किया जाता था |
(4) नागरिक एवं सामाजिक कर्तव्यों का विकास- भारत की प्राचीन शिक्षा का चौथा उद्देश्य था – नागरिक एवं सामाजिक कर्तव्यों का विकास करना | इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए इस बात पर बल दिया जाता था कि मनुष्य समाजोपयोगी बने, स्वार्थी नहीं | अत: बालक को माता-पिता, पुत्र तथा पत्नी के अतिरिक्त देश अथवा समाज के प्रति भी अपने कर्तव्यों का पालन करना सिखाया जाता था | कहने का तात्पर्य यह है कि तत्कालीन शिक्षा ऐसे नागरिकों का निर्माण करती थी जो अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए समाज की उन्नति में भी यथाशक्ति योगदान दें सकें |
(5) सामाजिक कुशलता तथा सुख की उन्नति – सामाजिक कुशलता तथा सुख की उन्नति करना प्राचीन शिक्षा का पांचवां उद्देश्य था- इस उद्देश्य की प्राप्ति भावी पीढ़ी को ज्ञान की विभिन्न शाखाओं व्यवसायों तथा उधोगों में प्रशिक्षण देकर की जाती थी | तत्कालीन समाज में कार्य-विभाजन का सिधान्त प्रचलित था | इसी कारण ब्राह्मण तथा क्षत्रिय राजा भी हुए और लड़का भी एवं शुद्र दर्शानिक भी | परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी सामान्य व्यक्ति के लिए यही उचित था कि वह अपने परिवार के व्यवसाय को ही अपनाये | इससे प्रत्येक व्यवसाय की कुशलता में वृद्धि हुई | परिणामस्वरूप सामाजिक कुशलता एवं सुख की निरन्तर उन्नति होती रही |
(6) संस्कृति का संरक्षण तथा विस्तार – राष्ट्रीय सम्पति तथा संस्कृति का संरक्षण एवं विस्तार भारत की प्राचीन शिक्षा का छठा महत्वपूर्ण उद्देश्य था | प्राचीन काल में हिन्दुओं ने अपने विचार तथा संस्कृति के प्रचार हेतु शिक्षा को उत्तम साधन माना | अत: प्रत्येक हिन्दू अपने बालकों को वही शिक्षा देता था, जो उसने स्वयं प्राप्त की थी | यह प्राचीन आचार्यों के घोर परिश्रम का ही तो फल है की हमारा वैदिक कालीन सम्पूर्ण साहित्य हमारे सामने आज भी ज्यों का त्यों सुरक्षति है | डॉ ए० ऐसी० अल्तेकर ने ठीक ही लिखा है – “ हमारे पूर्वजों ने प्राचीन युग के साहित्य की विभिन्न शाखाओं के ज्ञान को सुरक्षित ही नहीं रखा अपितु अपने यथाशक्ति योगदान द्वारा उसमें निरन्तर वृद्धि करके उसे मध्य युग तक भावी पीढ़ी को हस्तांतरित किया |”
प्राचीन युग की शिक्षा के उपर्युक्त उद्देश्यों पर प्रकाश डालने के पश्चात हम इस निष्कर्ष पर आते हैं की हमारी तत्कालीन शिक्षा-पद्धति ऐसी थी जसमें भारतीय जीवन तथा बालक के शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा अध्यात्मिक आदि सभी प्रकार के विकास का व्यापक दृष्टिकोण निहित था |
किसी ने सही कहा है कि ,”बच्चा जिस भाषा में रोता है वही उसकी मातृभाषा कहलाती है।” जब भाषा की बात आती है तब स्वाभाविक तौर पर उससे जुडी हर बात भावुकता से जुड जाती है। भारतीय सभ्यता में भाषा को माता का स्वरुप माना जाता है। हर मनुष्य की तीन माताएं होती है। उसकी मातृभूमि, उसकी मातृभाषा और उसको पैदा करने वाली माता। इन तीनों माताओं का ऋण चुकाना हर मनुष्य का धर्म है। इन वाक्यो को पढकर आपके अंदर जो भाव उत्तपन्न हुये वे सारे भाव भाषा के प्रति आपके परिचय का परिणाम है। यदि यही बात यहुदी में लिखी जाये तो वह आपके लिये इतनी भावुकता पैदा करने वाली नहीं होगी जितनी आपकी मातृभाषा से उत्तपन्न होती है। शिक्षा के माध्यम को लेकर आये दिन कई बहस होती रहती है। जिसमे से अधिकांश निरर्थक होती है। पर मेरा एसा मानना है कि इन्सान जिस पृष्ठभुमि से आता हो और वहां जिस भाषा का प्रयोग होता है उसी माध्यम मे उसे शिक्षा मिलनी चाहिये। अपनी मातृभाषा मे शिक्षा पाना हर बच्चे का जन्मसिद्ध अधिकार भी है और उसका सौभाग्य भी। इसी के चलते भारत के कई राज्यो में भाषा बचाव आंदोलन प्रायः होते रहेते है। विषय का पक्षधर बनने की और मुझे भाषा की परिभाषा अत्यधिक प्रेरित करती है।
शिक्षा ग्रहण करना हरेक काल में महत्वपूर्ण रहा है.आज हम मनुष्य २१ वी शताब्दी में जी रहे हैं,जिसे विज्ञानं का युग कहा जाता है.आज मनुष्य चाँद पे पहुँच गया है और उससे भी आगे अंतरिक्ष की ऊँचाईया  और समुद्र की गहराई तक  नाप डाली है.मनुष्य आज अपनी इन वैज्ञानिक उपलब्धियों पर काफी गर्वानवित महसूस कर रहा है .यह सब उब्लाब्धियाँ शिक्षा के कारण हुआ.प्रत्येक मनुष्य के जीवन में शिक्षा बहुत महत्व रखती है.शिक्षा के द्वारा ही मनुष्य अपना और समाज का विकास करता है.एक सभ्य  समाज बनाने में शिक्षा बहुत बड़ा योगदान देती है.शिक्षित होने के वजह से ही हम मनुष्य इस पृथ्वी के सभी जीवों में सर्वश्रेष्ठ माने जाते है.शिक्षा हमे एक अच्छा नागरिक बनने में मदद करती है.शिक्षा के द्वारा हम समाज में एक सम्मान जनक पाते है,और अपना जीवन खुशी-खुशी जीते है.आज शिक्षा के द्वारा हम अपने जीवन के किसी भी क्षेत्र में उचाईयों को छू सकते है .विद्यार्थी जीवन बहुत कठोर होता है.शिक्षा प्राप्त करने के लिए हमे कठोर तपस्या करनी पड़ती है .हमे शिक्षा प्राप्त करने के लिए कठोर मेहनत और परिश्रम करनी पड़ती है.हमे मेहनत करने से कभी पीछे नही भागना चाहिए .प्रत्येक युग में शिक्षा का स्वरुप बदलता रहता है.पर ज्ञान नही बदलता है .शिक्षा में सबसे महत्वपूर्ण गुरु और शिष्य का संबंध होता है.हम भारतीय शुरू से ही गुरुओ को भगवान से भी बड़ा दर्जा देते आए है.शिक्षक हमे सही मार्गदर्शन देते है.वह हमे गलत और सही में फर्क करना सिखाते है .वह हमे सही रास्ता दिखाते है.एक शिक्षक और छात्र के बीच सम्मान जनक संबंध होता है.हमे अपने शिक्षक का सम्मान करना चाहिए.हमे अपने शिक्षक का भूल से भी अपमान नही करना चाहिए.हमे अपने शिक्षक की बातों को अपने जीवन में उतारना चाहिए.हम छात्रों को भी एकलव्य की तरह बनना चाहिए .शिक्षा मनुष्य के जीवन में बहुत जरुरी होती है .शिक्षा के द्वारा ही आदमी समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाता है.एक शिक्षित आदमी भीड़ से अलग अपनी एक नई पहचान बनाता है.शिक्षा हमे सही और गलत सोचने की शक्ति  देती है शिक्षा से हमारा तर्क शक्ति बढता है.शिक्षा के द्वारा हम गरीबी  और अज्ञानता मिटा सकते  है.शिक्षा के द्वारा हम अपने आस-पास शांति और भाई -चारे का माहोल तयार कर सकते है.

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