यदि कोई मुझे “लोकतन्त्र” इस शब्द को परिभाषित करने को कहे, तो मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ परिभाषा वही होगी जो मेरे राष्ट्रगान में लिखी है-
“जन-गण-मन अधिनायक जय हे, भारत भाग्य विधाता!”
किन्तु आजकल लोगों, विशेषकर नेताओं के लिए तो लोकतन्त्र के मायने तो केवल चुनावों तक सिमट कर रह गए हैं। इनके लिए लोकतन्त्र के मायने केवल इतने है कि एक दिन चुनाव हों, और पाँच वर्ष तानाशाही चले। किन्तु मुझे इनकी लोकतन्त्र कि यह परिभाषा- यह व्याख्या मान्य नहीं है।
चुनाव आधारित लोकतन्त्र की कमियाँ 2009 के आम चुनावों के परिणाम के माध्यम से समझी जा सकती हैं-तब यूपीए को कुल 15.3 करोड़ मत मिले। उस समय देश कुल जनसंख्या 115 करोड़ थी। अतः यह प्रश्न तो सदैव उठता ही है कि जहां 115 करोड़ लोगों के भाग्य का फैसला केवल 15 करोड़(अर्थात 13%) लोग करतें हों, तब ऐसी व्यवस्था को कैसे लोकतन्त्र कहा जाये।
वैसे यदि चुनावों में मतदान का प्रतिशत बढ़ भी जाये, यह शत-प्रतिशत भी हो जाये, तब भी चुनाव लोकतन्त्र की कसौटी पर खरे नहीं उतरेंगे। कारण यह है कि आजकल चुनाव लड़ने के तौर-तरीके कुछ ऐसे हो गए हैं जो जनता को भ्रमित कर देंते हैं। आजकल चुनाव नेता नहीं सीबीआई लड़ती है। चुनाव जननेता नहीं अपितु परिवारवाद एवं वंशवाद से निकले नेता लड़तें हैं। चुनाव नैतिकता के आधार पर नहीं बल्कि ध्रुवीकरण, तुष्टीकरण एवं गठबंधन की जोड़-तोड़ करके लड़े जाते हैं। चुनाव नेतृत्व के बल पर नहीं बल्कि- धन-बल और बाहु-बल के आधार पर लड़े और जीते जाते है।
हमारे देश में जहां जीत एवं हार के मत-प्रतिशतों का अंतर 10% से भी कम हो, और असाक्षर मतदाताओं की संख्या 30% से भीअधिक हो वहाँ भ्रष्ट और अनैतिक तरीकों से चुनाव जीतना कहाँ मुश्किल है।
चुनाव की ऐसी परिस्थिति का वर्णन किसी कवि ने खूब ही किया है-
“साड़ी बँटी दारू बँटी, और कम्बल का ढेर । चला रहै सब दांव-पेंच, ये कुर्सी के शेर ॥
नोट-वोट का घाल-मेल, चलेहिं सालों साल । नेता गब्बर हो गये, जनता भई कंगाल ॥
वादों की बौछार है, नारों की बरसात । यह मौसम की बात है, बाद किसे है याद ॥
फिर बारी पर ठगी गई, जनता देखे राह । फिर आएंगें लूटने, पाँच बरस के बाद ॥“
नोट-वोट का घाल-मेल, चलेहिं सालों साल । नेता गब्बर हो गये, जनता भई कंगाल ॥
वादों की बौछार है, नारों की बरसात । यह मौसम की बात है, बाद किसे है याद ॥
फिर बारी पर ठगी गई, जनता देखे राह । फिर आएंगें लूटने, पाँच बरस के बाद ॥“
वैसे यदि यह भी मान लिया जाये कि- शत-प्रतिशत मतदान हो और चुनाव पूर्णतया पारदर्शी हों, तब भी चुनाव लोकतन्त्र कि कसौटी पर खरे नहीं उतरेंगे। इस बात को कहने का कारण यह है कि चुनाव आधारित लोकतन्त्र की जो संकल्पना है वह कुछ मूल शर्तों एवं कल्पनाओं पर आधारित है, जिनकी पूर्ति कि बिना लोकतन्त्र सफल नहीं हो सकता। जैसे कि- चुन लिए जाने के बाद प्रतिनिधि जनता से किए सारे वादे पूरे करेगा। वह पूरे पाँच वर्ष तक जनता से संवाद रखेगा। वह दल-बदल नहीं करेगा। वह विधायिका और संसद कि कार्यवाही में सक्रिय रूप से भाग लेगा। वह नोट के बदले वोट कांड नहीं करेगा। और इन सब शर्तों से ऊपर- वह खुद को जनता का शासक नहीं अपितु जनता का सेवक समझेगा।
आज के दौर में ऐसे राजनेता ढूँढने पर भी नहीं मिलते। ऐसी ही नकारात्मक परिस्थितियों को देखते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी एक कविता में राजनैतिक वर्ग को दर्पण दिखने के लिए कहा था-
“क्षमा करो बापू तुम हमको, वचन भंग के हम अपराधी।
राजघाट को किया अपावन, मंजिल भूले यात्रा आधी।“
उपरोक्त तथ्यों से यह तो स्पष्ट है की चुनावी व्यवस्था लोकतन्त्र की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। किन्तु मुझे तो यही लगता हैकि चुनाव, लोकतंत्र को कमजोर ही करते हैं। क्योंकि बात चाहे अन्नाजी के आंदोलन की हो या कालेधन के विरुद्ध संघर्ष की हो अथवा फिर किसानों के जल सत्याग्रह की हो; सभी सरकारें इन जनहित के आंदोलनों को दबाने के लिए यही तर्क देती हैं कि ये एक-दो लाख लोगों कि भीड़ हमें क्या झुकाएगी हम तो जनता की चुनी हुयी सरकार हैं! यही कारण है कि मैं मानता हूँ कि एक बार का चुनाव सरकारों को पाँच वर्ष तानाशाही चलाने की इजाज़त दे देता है।
एक और उदाहरण मैं देना चाहूँगा। हम चाहें वर्षों पुराने जेपी के आंदोलन कि बात करें या 2011 के अरब वसंत की, दोनों ही जगह जनता लोकतन्त्र कि स्थापना करना चाहती थी। आंदोलन सफल भी रहे। जिनकी परिणति चुनावों के साथ हुयी। लेकिन आज भी जनता अपने लोकतन्त्र के वास्तविक लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर पायी है।
इन्हीं सब कारणों से यह स्पष्ट होना चाहिए कि चुनाव कुछ और नहीं अपितु लोकतन्त्र का भ्रम पैदा करने के लिए जनता को दिया गया एक झुनझुना मात्र है, जिसकी यथार्थ उपयोगिता कुछ भी नहीं है। अतः हम कह सकते हैं कि चुनाव जनता के हाथ में दी गयी शक्ति नहीं अपितु उनको बाँट कर कमजोर करने कि युक्ति मात्र है।
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