Monday, April 4, 2016

सुझाव बेटो व बेटियों को समानतापूर्ण तरीके से पला पोसा जाये

भेदभाव…. स्त्री पुरुष का…. कन्या भ्रूण हत्या…. ये कुरीतियाँ, उपज है, अस्वस्थ समाज की. यह हमारे परिवारों व समाज में ही शुरू होता है…. तो इन्हें मिटाने की शुरुवात भी यही से करनी होगी. हमें हमारा सामाजिक ढांचा बदलना होगा…. इसकी शुरुवात मेरे विचार में कुछ इस प्रकार होनी चाहिए…
1. हमें ध्यान देना होगा की एक ही परिवार  में पल रहे बेटो व बेटियों को समानतापूर्ण  तरीके से पला पोसा जाये. दोनों को एक ही समय पर एक ही तरह का भोजन दिया जाये, दोनों के पढाई पर एक ही तरह के प्रयास किये जाये. दोनों को एक ही तरह से प्यार व ममता दी जाये. यही उम्र होती है जब बच्चा इन फ़र्को को समझाना शुरू करता है. यदि इन्ही शुरुवाती दिनों में उन्हें असमानातापूर्ण व्यवहार दिखाई देगा तो वह उनके व्यक्तित्व में शामिल हो जायेगा.
2. यही प्रयास प्राथमिक पाठशालाओं में भी किये जाने चाहिए. प्राथमिक शिक्षा ही बच्चे का व्यक्तित्व बनाते है, इसकी शुरुवात यही से होनी चाहिए. लिंगों के आधार पर बच्चो के बैठाने की जगह का निर्धारण नहीं होना चाहिए. सिलाई-बुने, पाक कला जैसा शिक्षण सिर्फ  लड़कियों तक सीमित न रहकर लड़को के लिए भी अनिवार्य होना चाहिए. दूसरी तरफ हर वो खेल जो लडके खेल सकते है, वह लड़कियों के लिए भी अनिवार्य होने चाहिए.
3. यह मुद्दा बार-बार मीडिया में उठाया जाना चाहिए, जिससे लोगो में जागरूकता आये. टीवी चैनलों पर लैंगिक समानता भरे संदेशों का बार-बार प्रसारित हो. गावों में, सामाजिक संस्थायो द्वारा, स्कूलों  , ओफ्फिसो में, स्पेशिअल सेमीनार व प्रग्राम कराये जावे, जिससे लोगो में चेतना जागे. रेलवे स्टेशनों  में फ्लेश  डांस के जरिया, नाटको के ज़रिये, यह जाग्रति पैदा करायी जाये. ताकि धीरे-धीरे लोगो की सोच बदल सके.
इस पुरुष प्रधान समाज में यह काम पुरुषों से ही करवाया जाने चाहिए, पुरुष वर्ग की मानसिकता में बदलाव लाया जा सके.
4.. कानूनों का सख्ती से पालन अति आवश्यक है. हमारे देश  में गंभीर से गंभीर अपराध भी भ्रष्टाचार की आड़ में दबा दिए जाते है. कानूनों का सही समय पर सही उपयोग इमानदारी  से आवश्यक है. चाहे वो कानून स्वयं माता-पिता,  सास-ससुर या doctors के ही खिलाफ क्यों न हो.
5. हमारे समाज में कुछ ऐसी सामाजिक बुराइयाँ और भी है जो कन्या भ्रूण हत्या तो बढ़ावा दे रही है…जैसे…
“बेटियां पराया धन”…. यह मानसिकता, माता-पिता की सोच को दूषित  कर देती है… हालाँकि यह कुसोच हमारे इतिहास में बहुत पुरानी है. यह सोचकर की बेटी तो क़ल दुसरे घर जाने वाली  है, वो हमारे बुढापे  का सहारा नहीं बन सकती. इसलिए माता-पिता उससे भावनात्मक तरीके से जुड़ नहीं पाते, जिसका प्रतिफल होता है भेदभावपूर्ण व्यवहार व सोच.
लड़कियों का माता-पिता की जायदाद में कानूनन हक है…. यही बात  उन भाइयो व पिता की सोच को कुंठित कर देती है. बेटियां कल शादी करके दुसरे घर चली जाएँगी, यदि उसे हिस्सा दे दिया तो वह भी दुसरे घर चला जायेगा…. यदि बेटो को दिया तो हमारा ही है….. यही  सोच बेटियों को पराया बना रही है…. इसलिए समाज से यह सोच मिटाना बहुत ज़रूरी हो गया है की, “बेटियां परायी है”….
एक बात पर और  प्रकाश डालना चाहती हूँ, की आखिर हमारे समाज में ऐसी संस्कृति बनी ही क्यों, की बेटी के घर एक गिलास पानी पीना भी पाप है…. समाज में इन जिम्मेदारियों को बेटा या बेटी के बीच विभाजित किया ही क्यों गया की बेटा बुढ़ापे का सहारा बनेगा, बेटी नहीं ? शायद इसलिए, की यदि “बेटी ने सेवा की  तो संपत्ति का बटवारा, बेटी के साथ दुसरे घर चला जायेगा”…….शुरू से  भेदभाव पूर्ण व्यवहार बेटियों को सदा से ही माता पिता से दूर रखता है…. बिलकुल, बेटियों को भी घर की ज़िम्मेदारी उसी तरह उठानी चाहिए जिस तरह बेटा उठाता है…. पर अफ़सोस की समाज बेटी से करवाना ही नहीं चाहता, उसके पीछे सोच वही है, की सेवा करवाई तो देना पड़ेगा, जो दुसरे घर चला जायेगा…..…. लेकिन यदि किसी कारन वश बेटी उस लायक नहीं है, की घर का ज़िम्मा उठा सके तो उसके प्रति पक्षपात पूर बर्ताव उचित नहीं…उसकी जगह एक बेटा भी हो सकता था, जो इस लायक नहीं है की घर का ज़िम्मा ले सके…पर वह तो पक्षपात पूर्ण व्यवहार का भागीदार नहीं होता…..

यह तो बात हुई एक बेटी की…दुसर तरफ  यही बेटिया जब बहू बनती है तो क्या होता है…
ससुराल पहुँच कर, हर बात पर यही ताना की…”तेरे बाप के घर देखा है”…. यही पराया बर्ताव वहा भी मिलता है… ससुराल वाले उसे दुसरे की बेटी समझते है, इसलिए शायद भावनात्मक तरीके से जुड़ नहीं पाते. बेचारी लड़की, न तो पिता के घर सँवारी  गयी न तो पति के घर…ऐसी ही एक और बड़ी कुप्रथा है…जो आज हर लडके वालो का गौरव बनती जा रही है…
“दहेज़ प्रथा”.. इस प्रथा के कारन बेटियां आज माँ-बाप पर बोझ  बनी हुई है. यदि लड़का या लडके का पिता दहेज़ की उम्मीद न लगाये तो हर लड़की का पिता उसे ख़ुशी से पालेगा. इस प्रथा का अंत आवश्यक है.
सारी बाते, आदमी के सोच का ही नतीजा है….ये सभी कुरीतियाँ कन्या भ्रूण हत्या को बढ़ावा देती है….समाज की सोच व मानसिकता बदलनी होगी.  यही मानसिकता ही लोगो को यह भेदभावपूर्ण कुकृत्य करवाती है….
इसे बदलने के लिए लगातार लोगो के दिलों व दिमाग पर आक्रमण आवश्यक है. ठीक उसी तरह जिस प्रकार”करत करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान, रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निसान” …. जिसे हम“ब्रेन वाशिंग” कहते है.
वही दूसरी तरफ एक सुदृढ़ कानून व्यवस्था सर्वोपरि है. जिसके तहत गुनाहगार को कड़ी सजा अनिवार्य होनी चाहिए. व्यवस्थाये पारदर्शी व निष्पक्ष होनी चाहिए. गलत कार्यों  के खिलाफ तत्काल फैसला, लोगो के दिलो में कानून के प्रति यह विश्वास दिलाता है, कि व्यवस्थाये सुदृढ़ है, और आगे गलत कार्य करने के प्रति डर पैदा करता है.
मुझे पता है..यह इतना आसान नहीं है… हर कुरीति गलत सोच का प्रतिफल है…. सोच बदलने में generations, लग जाती है…आज का प्रयास…हमारा क़ल सुधार सकता है…. इसलिए हमें प्रयास करते रहना चाहिए. हर संभव प्रयास  इसे ख़त्म न सही पर नियंत्रित तो कर ही सकते है….. यही नियंत्रण हमारे समाज  के लिए एक नयी शुरुवात हो सकती है…
यही ज़िन्दगी है मेरे दोस्त….. चलते रहना ..बढ़ते रहना…… हर नयी समस्यायों   को  हराकर आगे बढ़ना…. समस्या  क्या है…आती रहती है, जाती रहती है…. …..उनसे क्या डरना… आने वाली समस्या , जिसका अभी अस्तित्व भी नहीं है..उससे डर कर बैठना बुझदिली है….
“नीयत से किये गए प्रयास ही उपलब्धि की कुंजी है”….

No comments:

Post a Comment