Friday, April 1, 2016

दो अलग-अलग दुनिया

यह बात किसी से छुपी नहीं है की हमारे मुल्क में दो जहां, दो अलग-अलग दुनिया बसती है। जिनमें एक सम्पन्न है तो दूसरी बेबस। इन्हीं के बीच के अंतर को बयान करती ये कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-
इक दुनिया इस ओर खड़ी, उस ओर खड़ा इक अलग जहां;
अंतर दोनों का घटा नहीं, बस गहराया है धुंधलका ।
इधर आँसू कहलाता मोती, उधर नहीं गिनती उनकी;
इधर भूख का वक़्त तयशुदा, उधर भूख की आग बढ़ी।   
इधर दर्द हो जाए अगर तो, बैठे नौकर सेवा को,
उधर दर्द का नाम बढ़ा देता, मालिक के ग़ुस्से को ।    
इधर स्वार्थ की पूजा करते, शिक्षित बुद्धिजीवी खड़े,
उधर कर्म-पूजा करने को, कृषक और मजदूर खड़े ।
                                ……… तत्पर वे मजदूर खड़े ॥"
ये जो कृषक हैं, जो मजदूर हैं, उन्होनेन तो इस दुनिया कुछ दिया है पर बदले में उन्हें क्या मिला; उसकी की एक बानगी है ये आगे की पंक्तियाँ-
देख रक्त की धारों से जिसने सींचा है धरती को,
उनकी लाशों पर खड़ी हो रहीं वैभव की मंजिल अब तो ।
जिसने जंगल को काट-काट कर रहने योग्य बनाया है,
अब खुला गगन और तेज़ धूप ही उसके सर की छाया है ।
वो सच पर चलने वाला इस दुनिया में ऐसे ठगा गया,
जैसे चातक बारिश के धोखे में, बादल से ठगा गया।
वो मेहनतकश तकलीफ़ों में चुप रहकर भी ऐसे रोया 
जैसे बिजली की चकाचौंध में रोता है सच्चा दीया
उनकी मर्यादा रोज-रोज, यूं तार-तार हो गिरती है,
जैसे कि चाँद की चमक चूर हो-हो कर रोज बिखरती है।"
ऐसा नहीं है की उन्होने अपनी तरक्की की कोशिश नहीं की,
उन्होने भी कशिश तो की थी, पर उसका क्या हश्र हुआ, कैसे उसको केवल एक मुहरे की तरह इस्तेमाल किया गया, आगे की ये पंक्तियाँ इसी संदर्भ में लिखीं गईं है- 
 जब- जब उसने कदम बढ़ाया, निज-लोगों की उन्नति को,
तब- तब खींचा गया पुनः पीछे वह उस उलटे प को,
वह बना पेट भरने का जरिया, बना हमारा दया पात्र,
और नेताओं की नजरों में भी, रहा मतो का बैंक मात्र।
किन्तु उसकी कभी नहीं थी कुछ लेने की अभिलाषा;
पर क्या करता?उसके शोणित का सभ्य समाज बना प्यासा।"

और इसीलिए आज वे लोग एकजूट होकर अपने हक़ के लिए आगे बढ़ रहें हैं। ये अंतिम पंक्तियाँ प्रेरित हैं- अभी कुछ ही दिनों पहले हुए किसानों के सत्याग्रह से, उनके दिल्ली मार्च से, जिनके डर से सरकार ने उनकी 10 की दसों मांगें मान ली।उसी गुस्से की एक बानगी पेश करती ये अंतिम चार लाइनें
"अतएव आज वह बढ़ता है, लेने को अपना हक़ हमसे,
जैसे दावानल बढ़ता है, जंगल में गुस्से से, हक़ से ॥
आज सरकारें पीछे हटतीं हैं, डरकर उन सबके जगने से  
जैसे तट हटता है पीछे, डरकर सागर के जगने से ।"

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