Friday, April 1, 2016

भाषा और समाज

एक माता के रूप में मातृभाषा तो अपने समस्त कर्त्तव्य समुचित रूप से निभाती रही, परन्तु हम कृतघ्न इस माँ के उपकारों को भूल कर अंग्रेजी(आंटी) की गोद में जा बैठे। मेरा उद्देश्य यहाँ मातृभाषा पर अंध प्रेम प्रदर्शित करते हुए अंग्रेजी का अतार्किक विरोध करना नहीं है, ऐसे कई मौलिक कारण है जो मातृभाषा के किसी भी राष्ट्र की सफलता के पीछे छुपे महत्व को प्रदर्शित करते हैं। शिक्षक (माता-पिता) संस्कारवर्धन करने कि दवाई भी है, मातृभाषा के संरक्षक प्रतिभावान शिक्षकों (माता-पिता) को मेरा शत-शत नमन। धोती-कुर्ता पहने ये मातृभाषा के वीर जब पाठ्यपुस्तक हाथ में लेकर घर से निकलते हैं तो लगता है जैसे फौज का नौजवान बंदूक लिए अपनी जान को हथेली पर रखकर सीमा पर लड़ने जा रहा हो। उचित भी है- इन मातृभाषा के वीरों की कलम किसी बंदूक की गोली से कम थोड़े ही है।

भारत एक विविधताओं से परिपूर्ण राष्ट्र होते हुए भी अपनी एकल-सांस्कृतिक-चेतना के लिए विश्वविख्यात है। हमारी संस्कृति किसी धर्म या जाति की नहीं, अपितु हमारे भारतीय होने की द्योतक है। किसी भी संस्कृति के चार स्तंभ- राष्ट्रवाद, भाषा, आचार-विचार एवं परम्पराएं; एक रथ के चार पहियों की तरह होते हैं।

कई लोग हमसे यह प्रश्न पूछते है कि हमें आज के तकनिकी युग में हिंदी कि उपयोगिता क्या है? इस बात का उत्तर यह है कि सामाजिक चेतना का विकास मातृभाषा के माध्यम से ही होता है। मातृभाषा ही वह भाषा है जो हमें समाज की बुनियाद से जोड़ती है। इसके बिना तो हम भारतीय किसी भी क्षेत्र में विकास ही नहीं कर सकते। यदि विदेश में जन्मी-पली-बढ़ी, हमारे देश के सत्ताधारी गठबंधन की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गाँधी स्वयं इस भाषा के महत्व को समझकर, एक आम नागरिक से जुड़ने के लिए यदि इस भाषा को सिखने का कार्य कर सकती है, तो हम जानकर भी अपनी मातृभाषा को निकृष्ट क्यों समझतें हैं?
  
देश को जगाने वाले महान साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र ने मातृभाषा का महत्व कुछ इस प्रकार से बताया है-

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को शूल ।।
अंग्रेजी पढिके जदपि, सब गुन होत प्रबीन ।
पै निज भाषा ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।।
विविध कला, शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार ।

सब देसन से लै करहु, निज भाषा माँहि प्रचार ।।
                                                                                                                                                                  


मेरी दृष्टि से भाषा मात्र मनुष्य के मनुष्य होने की पहचान और शर्त है। भाषा के बिना मनुष्य नहीं होता, पशु से मनुष्य के विकास में भाषा ही वह सीढ़ी है जिस को पार करके वह मनुष्यत्व प्राप्त करता है। अवधारणा करने की शक्ति और उसके साथ-साथ यह प्रश्न पूछने की शक्ति कि मैं कौन हूँ या कि मैं क्या हूँ या मैं क्यों हूँ। यही मनुष्यत्व की पहचान है,और यह शक्ति तब से प्रारम्भ होती है जब से जीव को भाषा मिलती है। भाषा मिलने के बाद यह मनुष्य रूपी जीव उसी प्रकार के सभी पशु रूपी जीवों से अलग हो जाता है।
भाषा के बिना समाज में अपनी अस्मिता की पहचान नहीं हो सकती। अत: सब से पहले भाषा अपने-आप को पहचानने का साधन है। अगर किसी समाज को उसकी भाषा से काट दिया जाये तो हम उसकी अस्मिता को खंडित कर देते हैं। हिंदी के प्रति मेरा जो लगाव है, उसकी बुनियाद में केवल अपने मनुष्य होने को नहीं बल्कि अपने पहचाने जाने की पहली और मूल भाषा मानता हूँ। हिंदी के बिना मैं, मैं नहीं रहता।
भाषा मूल्यों की सृष्टि करना संभव बनाती है। मनुष्य की जिजीविषा ही अंतिम और स्वयंसिध्द तर्क होता है, जीने के लिए। मनुष्य भाषा के माध्यम से ऐसे मूल्यों की सृष्टि करता है, जिनके लिए वह जीता है।
भाषा के द्वारा हम यथार्थ की एक नए ढंग़ की पहचान कर सकते हैं। जिस चीज को हम पहचान रहे हैं, उसको आत्मसात कर के उसके प्रति किसी तरह की भी विवके पर आधारित प्रतिक्रिया हम भाषा के बिना नहीं कर सकते। प्रतिक्रिया, अभिव्यक्ति और संप्रेष्ण भाषा के बिना संभव नहीं है।
भाषा एक समग्र संस्कृति की आत्माभिव्यक्ति का साधन है, लेकिन उसके साथ-साथ वह स्वरूप रक्षा का भी एक साधन है। समाज के साथ जब हम भाषा को जोडते हैं तो उसकी युगधर्मिता की ओर ध्यान देते हैं। आखिर हमारे सारे सामाजिक व्यवहार का आधार भाषा है, और भाषा है भी सामाजिक व्यवहार के लिए।
भाषा का एक फंक्षनल या प्रयोजनमूलक उपयोग है, हमारे दैनंदिन जीवन में उसका एक स्थान है। हमारे प्रयोजनों का वह साधन है। भाषा के बिना व्यवहार नहीं हो सकता और जिस भाषा का व्यवहार से संबंध नहीं है, वह भाषा समाज से भी टूट जाएगी। इसलिए जब पूरी संस्कृति का अवमूल्यन होता है तो समाज का अवमूल्यन होता है इसलिए भाषा का भी अवमूल्यन होता है।
भाषा में सर्जनशीलता है। हम देखते हैं कि कई समाज ऐसे होते है जिनमें सर्जनशीलता का स्थान उंचा होता है, और कई समाज ऐसे भी हैं जो कि एक खास तरह की मानसिक जड़ता गति का अभाव तथा सर्जनशीलता को विलासिता समझते हैं। यह इसलिए कि भाषा के मामले में सर्जनशीलता के प्रति एक संदेह का भाव है।
जिस परिस्थिति में हम जीते हैं, उसमें हमें निरंतर ध्यान में रखना चाहिए कि पूरा समाज जिस भाषा के साथ जीता है, उसमें और उसके साथ जीते हुए अगर हम उस जीवन संदर्भ को पहचानते हैं, और उस भाषा में रचना करते हैं, तो हमारा समाज भी रचनाशील हो सकता है। नहीं तो वहां भी उस के सामने नयी स्थिति एक चुनौती बन कर आती है। जरूरी नहीं की वह काव्य की कोई समस्या हो, जरूरी नहीं है कि विज्ञापन या रसायन की नई परिस्थिति हो। कोई भी नई चीज अनुवादजीवी समाज के सामने आती है, तो वह तुरंत दूसरे का मुँह देखने लगता है, क्योंकि अपनी शक्ति को पहचानना उसने सीखा ही नहीं। भाषा हमारी शक्ति है, उस को हम पहचाने-वह रचनाशीलता का उत्स है-व्यक्ति के लिए भी और समाज के लिए भी।
भाषा का अपना समाजशास्त्र होता है। कभी भाषा समाज को परिभाषित करती है, तो कभी समाज, भाषा को। समाज की प्रत्येक गतिविधि भाषा के माध्यम से तय होती है। हम अपने प्राचीन काव्य एवं परंपराओं का अवलोकन करें तो भाषिक स्तर पर समाज बँटा मिलेगा। भाषा का समाजशास्त्र ही इस बात का जवाब दे देगा कि मागधी प्राकृत के साथ संस्कृत आचार्यों ने सौतेला व्यवहार क्यों किया। इस तथ्य पर ध्यान देना चाहिए कि आखिर संस्कृत नाटकों में निम्न श्रेणी के पात्र इसका प्रयोग क्यों करते हैं? संस्कृत नाटकों में माँ प्राकृत बोलती है, बेटा संस्कृत बोलता है। लिंग के हिसाब से किसी समाज की भाषा नही बदलती है। वस्तुत: वर्ण-व्यवस्था के आधार पर भाषा को आरोपित किया गया है। प्राकृत निम्न श्रेणी के पात्रों पर उपर से थोपी गयी है, इसीलिए यह भाषा कृत्रिम है। सवाल है कि क्या भोजपुरी उसी की कोख से पैदा हुयी है? भोजपुरी का समाज यह मानने से रोकता है। भोजपुरी कृषि एवं श्रम-संस्कृति की भाषा है। इसके शब्दों में भोजपुर की माटी की सोंधी गंध है। यह मेहनतकशों और कामगारों, किसानों और मजदूरों की भाषा है।
अत: भाषा और समाज का नितांत गहरा संबंध है। समाज की हर झलक सुख, दुख, पीड़ा, अवसाद, गति, मूल्यों से संश्लिष्ट संस्कृति भाषा में बोलती है। यही भाषा का समाज-शास्त्र है।

No comments:

Post a Comment