यह मेरा दुर्भाग्य है कि आज ऐसा लेख लिखने के लिए मुझे मेरी कलम उठानी पड़ी. शर्मिंदा हु अपनी ही संस्कृति के महान होने का भ्रूम टूटने पर. ह्रदय बार-बार पूछ रहा है, कि कैसी है ये संस्कृति, जिसपर हम गर्व करते है? कितना खोखला है हमारा विश्वास जिसपर हमें घमंड है? कितनी अनुचित है हमारी संस्कृति जिसपर हमें नाज़ है, और जिसे हम नाम देते है “संस्कार”. हमारे संस्कार एक “मृग मरीचिका ” है जो एक भ्रम मात्र है, जो हमें विश्व में महान होने का झूठा बोध करते है. ये सब छलावा है… ढोंग है…दिखावा है…. न उससे मुलाकात होती…न मेरा भ्रम टूटता….
आज सुबह मैं gym में थी, तो वहां एक अमेरिकन व्यायाम इंस्ट्रक्टर भी था. उसने उत्सुकतापूर्वक मुझसे पूछा की “आप भारतीय है?” मैंने उसे सहमती दी. फिर उसने माफ़ी मांगते हुए, कुछ प्रश्न करने की इच्छा ज़ाहिर की. उसका पहला प्रश्न पूछते ही मेरे होश उड़ गए, मानो मैं शर्म से तार-तार हो गयी. मेरा उससे नज़रे मिलाकर जवाब दे पाना मुश्किल हो रहा था. उसका सटीक प्रश्न था… “In India why women are treated like cardboard ?” ज़रा सोचिये हम भारतीय, तो अपने संस्कारों व संस्कृतियों की शेखी बघारते नहीं थकते, की भारत में स्त्रियों व लड़कियों की पूजा होती है… हमारे संस्कार ही है जो हमारे देश में तलाक के आंकड़ो की दर को कम करते है…. हमारे देश में स्त्रियों का परिधान उन्हें समाज में सम्मान दिलाता है….. वगैरह-वगैरह…. उसपर किसी अमरीकी मूल के व्यक्ति का हमारी संस्कृति पर इतना सटीक सवाल….. किसी भी व्यक्ति को झकझोर कर रख देगा. दरअसल उसका यह प्रश्न हाल ही में हुए दिल्ली के सामूहिक बलात्कार के सन्दर्भ में था. उसके साथ इन्ही सामाजिक संस्कृतियों के बारे में चर्चा काफी देर तक चलती रही. इसके बाद सारा दिन मेरे कानो में उसकी बाते गूंजती रही….जिन्होंने मुझे हमारे समाज के ढकोसलो के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया… मुझे लगा की कितनी पिछड़ी सोच है हम भारतियों की. आज वह अमेरिकन मुझे दर्पण दिखा गया , जिससे मुझे अपने ही समाज के कुछ असली प्रतिबिम्ब के दर्शन हुए. मैं चाहती हूँ, की हमारा समाज भी उन प्रतिबिम्बों को देखे,और निर्णय ले की कौन सा प्रतिबिम्ब बदसूरत है, ताकि उसे खूबसूरत बनाने की कोशिश की जा सके.
अमेरिकन के साथ हुए वार्तालाप से मेरे ह्रदय में आग सी लगी है… इसी आग में से कुछ अंगारे निकालकर बताना चाहती हु की हम अपनी संस्कृति पर कितना अन्धविश्वास करते है.
“कमतर तलाक दरें- हमारी संस्कृति ” यह भारतियों के बीच पल रहा बहुत बड़ा झूठ है. हमारे देश में तलाक की दरों के कम होने पर हम गर्व करते है, हमारे संस्कारों पर,… यह एक मिथ्य है…. ज़रा सोचिये, जो समाज स्त्रियों को स्वतंत्रतापूर्वक अपने जीवन के निर्णय लेने की आज्ञा नहीं देता, जो समाज स्त्रियों को हर सामाजिक अत्याचार सहने को प्रतिबद्ध करता है, बेचारी स्त्रियाँ डर के कारण या मजबूरी में सारे अत्याचार सहती है, चाहे वह कमाऊ हो या सारा दिन घर के सारे काम करती हो….तो हमारे समाज ने इसे नाम दे दिया “संस्कार व संस्कृति “… ऐसे संस्कार में ऐसी कौनसी महानता है, जो स्त्री व पुरुष के प्रति पक्षपातपूर्ण है, किसी भी वर्ग विशेष की मजबूरी को संस्कार का नाम देना क्या अच्छे समाज का परिचायक हो सकता है? नहीं!!!!! मेरे इस कथन का तात्पर्य यह कतैह नहीं है की तलाक होना अच्छी बात है… किसी को कमज़ोर बनाकर उसपर संस्कारों की मोहर लगाना और इस धोके में रहना की हमारी संस्कृति महान है…..यह उचित नहीं.
“स्त्रियों का पहनावा” यदि हम हमारे समाज में स्त्रियों के पहनावे को संस्कार व् संस्कृति का नाम दे सकते है तो बलात्कार, छेड़छाड़ जैसे घृणित व जघन्य अपराध हमारी संस्कृति कब से हो गयी. यदि औरतो के लिए समाज सीमाएं बना सकता है तो पुरुषो के लिए कोई सीमा नहीं , की वो अपने जज्बातों व् भावनाओ पर काबू रखे. ये कैसे संस्कृति व् संस्कार है? स्त्रियों के लिए सीमाएं बनाना हमारी संस्कृति नहीं, बल्कि यह स्त्री को नियंत्रित करके उसपर राज करने का एक मात्र औज़ार है. कल एक ब्राजीलियन महिला से मुलाकात हुई, उसने भी दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार के बारे में उत्सुकता दिखाई. इस बारे में उसने व्यंगात्मक तर्क दिया की “हमारे देश में (ब्राज़ील) यदि एक महिला bikini में भी बाहर निकलती है तो कोई उसकी तरफ देखता भी नहीं है छूना तो दूर की बात है, और हिन्दुस्तान में छोटे कपडे बलात्कार का कारण बनते है. कैसी संस्कृति है ये, की पुरुषो की नज़रे हमेशा भूखी ही रहती है. और समाज उसे नाम देता है की स्त्रियाँ सामाजिक संस्कृतियों का उल्लंघन करती है तब ऐसा होता है”….. मैं पिछले १२ वर्षों से अमेरिका में रह रही हु, मैंने यहाँ की संस्कृति देखी है, यदि ऐसा होता तो, अमेरिका या दुसरे पश्चिमी देशो में रहने वाली हर स्त्री बलात्कार का शिकार और हर पुरुष बलात्कारी होता. दरअसल स्त्रियों के साथ यौन दुर्व्यवहार /शोषण होने का कारण उनका पहनावा नहीं, बल्कि समाज की गन्दगी व दरिंदगी भरी नज़रें है. ऐसी घटनाओ को संस्कृति से जोड़कर हमारे राजनेता हाथ पर हाथ रखे बैठे रहते है जिससे ऐसी बुरी संस्कृतियों को बल मिलता है .
“संगठित परिवार हमारी संस्कृति“…..बहुत अच्छी बात है एक संगठित परिवार में रहना. पर ऐसा संगठित परिवार जहाँ रोज़ लड़ाई-झगड़े हो, मार- पीट हो, जहाँ पिता बेटे को मारे और बेटा पिता को…. सास बहु को मारे और बहु सास को बेईज्ज़त करे, क्या ऐसा परिवार एक अच्छी संस्कृति है. संगठित परिवार हमारी संस्कृति हो सकती है पर उसकी कीमत एक दुसरे की बेईज्ज़ती करके नहीं दी जा सकती. ये कैसा खोखला विश्वास है की हम संगठित परिवार में रहे तो हमारे बीच स्नेह बना रहता है…क्या यही स्नेह की परिभाषा है. यह सिर्फ एक ढोंग है, जिसे संस्कृति का ठप्पा लग चूका है. यदि एकाकी परिवार में रहकर आपसी मतभेद कम करके स्नेह बढाया जा सकता है तो उसे सुदृढ़ संस्कृति का नाम देना अतिशैयोक्ति न होगी .
“स्त्रियों का पहनावा” यदि हम हमारे समाज में स्त्रियों के पहनावे को संस्कार व् संस्कृति का नाम दे सकते है तो बलात्कार, छेड़छाड़ जैसे घृणित व जघन्य अपराध हमारी संस्कृति कब से हो गयी. यदि औरतो के लिए समाज सीमाएं बना सकता है तो पुरुषो के लिए कोई सीमा नहीं , की वो अपने जज्बातों व् भावनाओ पर काबू रखे. ये कैसे संस्कृति व् संस्कार है? स्त्रियों के लिए सीमाएं बनाना हमारी संस्कृति नहीं, बल्कि यह स्त्री को नियंत्रित करके उसपर राज करने का एक मात्र औज़ार है. कल एक ब्राजीलियन महिला से मुलाकात हुई, उसने भी दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार के बारे में उत्सुकता दिखाई. इस बारे में उसने व्यंगात्मक तर्क दिया की “हमारे देश में (ब्राज़ील) यदि एक महिला bikini में भी बाहर निकलती है तो कोई उसकी तरफ देखता भी नहीं है छूना तो दूर की बात है, और हिन्दुस्तान में छोटे कपडे बलात्कार का कारण बनते है. कैसी संस्कृति है ये, की पुरुषो की नज़रे हमेशा भूखी ही रहती है. और समाज उसे नाम देता है की स्त्रियाँ सामाजिक संस्कृतियों का उल्लंघन करती है तब ऐसा होता है”….. मैं पिछले १२ वर्षों से अमेरिका में रह रही हु, मैंने यहाँ की संस्कृति देखी है, यदि ऐसा होता तो, अमेरिका या दुसरे पश्चिमी देशो में रहने वाली हर स्त्री बलात्कार का शिकार और हर पुरुष बलात्कारी होता. दरअसल स्त्रियों के साथ यौन दुर्व्यवहार /शोषण होने का कारण उनका पहनावा नहीं, बल्कि समाज की गन्दगी व दरिंदगी भरी नज़रें है. ऐसी घटनाओ को संस्कृति से जोड़कर हमारे राजनेता हाथ पर हाथ रखे बैठे रहते है जिससे ऐसी बुरी संस्कृतियों को बल मिलता है .
“संगठित परिवार हमारी संस्कृति“…..बहुत अच्छी बात है एक संगठित परिवार में रहना. पर ऐसा संगठित परिवार जहाँ रोज़ लड़ाई-झगड़े हो, मार- पीट हो, जहाँ पिता बेटे को मारे और बेटा पिता को…. सास बहु को मारे और बहु सास को बेईज्ज़त करे, क्या ऐसा परिवार एक अच्छी संस्कृति है. संगठित परिवार हमारी संस्कृति हो सकती है पर उसकी कीमत एक दुसरे की बेईज्ज़ती करके नहीं दी जा सकती. ये कैसा खोखला विश्वास है की हम संगठित परिवार में रहे तो हमारे बीच स्नेह बना रहता है…क्या यही स्नेह की परिभाषा है. यह सिर्फ एक ढोंग है, जिसे संस्कृति का ठप्पा लग चूका है. यदि एकाकी परिवार में रहकर आपसी मतभेद कम करके स्नेह बढाया जा सकता है तो उसे सुदृढ़ संस्कृति का नाम देना अतिशैयोक्ति न होगी .
” बेरंग विधवा जीवन- हमारी संस्कृति”… ये कैसी संस्कृति है? विधवा का जीवन बेरंग होना इसमें कैसी महानता. धिक्कार है ऐसी पुरुषप्रधान संस्कृति पर, जो जितने चाहे विवाह करे, और स्त्री विधवा होने के बाद बेरंग जीवन व्यतीत करे.
“उम्र का भेदभाव- हमारी संस्कृति“….. उम्र में छोटा व्यक्ति हमेशा अधिक उम्र वाले के सामने अपने विचार न रखे, चाहे वह अधिक उम्र वाला व्यक्ति गलत ही क्यों न हो. ज़रूरी नहीं की अधिक अनुभव वाला व्यक्ति हमेशा सही ही हो, पर वह उम्र में अधिक है इसलिए उसके गलत विचारो पर अमल किया जाये अच्छी संस्कृति नहीं हो सकती. हमेशा, डांट, फटकार, धुत्कार यही एक कम उम्र वाले को मिलता है, चाहे वह छोटी उम्र का व्यक्ति स्वयं ही बूढा क्यों न हो….. कहाँ का न्याय है ये. बड़ों को सम्मान छोटो को चुप कराके नहीं मिलता बल्कि, सम्मान को कमाना पड़ता है, अपने छोटों के प्रति अच्छे बर्ताव से…
“उम्र का भेदभाव- हमारी संस्कृति“….. उम्र में छोटा व्यक्ति हमेशा अधिक उम्र वाले के सामने अपने विचार न रखे, चाहे वह अधिक उम्र वाला व्यक्ति गलत ही क्यों न हो. ज़रूरी नहीं की अधिक अनुभव वाला व्यक्ति हमेशा सही ही हो, पर वह उम्र में अधिक है इसलिए उसके गलत विचारो पर अमल किया जाये अच्छी संस्कृति नहीं हो सकती. हमेशा, डांट, फटकार, धुत्कार यही एक कम उम्र वाले को मिलता है, चाहे वह छोटी उम्र का व्यक्ति स्वयं ही बूढा क्यों न हो….. कहाँ का न्याय है ये. बड़ों को सम्मान छोटो को चुप कराके नहीं मिलता बल्कि, सम्मान को कमाना पड़ता है, अपने छोटों के प्रति अच्छे बर्ताव से…
ऐसे कई उदहारण हमें हमारी संस्कृति के मिल जायेंगे, जो ठोस नहीं है. यदि उनका ब्यौरा लिखने बैठू तो शायद महीने निकल जाये… मानव जाति विश्व के किसी भी कोने में रहे, मनुष्य तो मनुष्य है. जहाँ मनुष्य है वहां , समस्याएं व् अपराध दोनों है. यदि कुछ अलग है- तो वो है एक अच्छे समाज का निर्माण. जिस समाज में मनुष्य अच्छे व् निष्पक्ष संस्कार व संस्कृति बनाते है, वह समाज, विश्व में सबसे अलग व् महान होता है. सच तो यह है की हम भारतीय सिर्फ धकोसलेबाज़ है . स्वयं को मुर्ख बनाते है की हमारे संस्कार व संस्कृति विश्व में सर्वोच्च है. एक बुद्धिजीवी होने के नाते, यह हमारा कर्तव्य है की, हम उन झूठे – अंधे विश्वास व् ढकोसलों को बेबुनियाद मान कर अच्छी संस्कृति का निर्माण करे. अपनी सोच व मानसिकता बदलें. जिससे हमारा समाज विश्व में सर्वश्रेष्ठ समाज कहलाने लायक हो, जिसपर हम गर्व कर सके.
“अच्छे बदलाव, समाज को प्रगतिशील बनाते है”…..
“अच्छे बदलाव, समाज को प्रगतिशील बनाते है”…..
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