Sunday, May 8, 2016

समाचार

कोई भी समाचार न तो तटस्थ होता है और न ही महज किसी घटनाक्रम का आंखों देखा हाल। किसी भी समाचार के कथ्य और रूप का निर्माण इस पर निर्भर करता है कि समाचार बनाने की प्रक्रिया से जुड़े लोगों ने वास्तविक घटना में से किन तथ्यों का चयन किया तथा उन्हें किस प्रकार की भाषा और रूप में प्रसारित करने का फैसला किया। किसी समाचार के निर्माण में जितनी भूमिका तथ्य की होती हैउससे कहीं अधिक भूमिका तत्कालीन समाज पर प्रभावी वैचारिक शक्तियों की होती है। यही वैचारिक शक्तियां परोक्ष रूप से तय करती हैं कि क्या समाचार है और क्या नहीं। इस निर्धारण के बाद समाचार बनाने वाले लोगों का दृष्टिकोण यह तय करता है कि वास्तविकता का कौन सा हिस्सा समाचार है और कौन सा नहीं। समाचार की भाषा,उसका रूप आदि इन्हीं लोगों की पक्षधरता पर निर्भर करता है। हालांकि आदर्श स्थिति तो यह है कि एक पेशेवर पत्रकार को अधिकतम तटस्थता प्रदर्शित करनी चाहिए लेकिन वास्तव में किसी भी समाचार से पूर्ण तटस्थता की उम्मीद करना एक काल्पनिक स्थिति ही है। असली चीज है पक्षधरता। किसी समाचार का विश्लेाषण कर हम यह जान सकते हैं कि समाचार तैयार करने वाले की पक्षधरता क्या है। वह कमजोरों के पक्ष में है या शक्तिशालियों के। वह नैतिकता और न्याय के पक्ष में है या अपने क्षुद्र व्यक्तिगत अथवा सामाजिक हितों के पक्ष में।

दलित-विमर्श की अनिवार्य शर्त बन चुकी है कि दलित-साहित्य का लेखक केवल दलित ही हो सकता है। गैर-दलित लेखक ‘सहानुभूति’का साहित्य रच सकता है, जो असली दलित-साहित्य नहीं है। पुरानी शब्दावली में इसे दलित-साहित्य का ‘आभास’कह सकते हैं; ‘रसाभास’की तरह। दलित-साहित्य को रचने के ‘अधिकारी भेद’के दावे लगातार पेश किए जाते रहे हैं। दलित, शूद्र, अन्त्यज आदि शब्दों की व्याख्या में गए बिना इतना तो कहा ही जा सकता है कि ‘दलित’शब्द का जो अर्थ आज स्वीकार्य है, उसे सरकारी भाषा में ‘अनुसूचित जाति’कहते हैं। ‘अनुसूचित जनजाति’के लिए ‘आदिवासी’शब्द दोनों के अंतर को स्पष्ट करने में ज़्यादा सक्षम है। आज ‘आदिवासी साहित्य’भी अपनी स्वतंत्र पहचान बना रहा है। बहरहाल, यहाँ केवल इतना स्पष्ट करना उद्देश्य है कि दलित-साहित्य के लेखक-चिंतक अनुसूचित जातियों में जन्मे व्यक्ति को ही इस साहित्य को रचने का अधिकारी मानते हैं। एक उद्धरण ध्यान देने योग्य है, जो दलितों के एक संगठन की तरफ से प्रो. नामवर सिंह को संबोधित है, ”आप अपनी सामन्ती सोच से उबर नहीं पाए। वास्तव में दलित गर्भ से जन्म लेने पर ही दलितों का दर्द महसूस किया जा सकता है। दलित एवं महिला लेखन पर भी आपकी सोच संकीर्णता से ग्रस्त है। यह सही है कि दलित एवं महिला संदर्भों पर कोई भी लेखन कर सकता है, किन्तु जो अनुभूति दलित और महिला संदर्भों पर दलित एवं महिला कर सकती है, उस भावना की तो आप सिर्फ कल्पना कर सकते हैं। उस दर्द को चूँकि आपने जिया नहीं है, इसलिए उक्त लेखन आपसे उस स्वरूप में नहीं हो सकता।’

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