Monday, May 9, 2016

आलोचना शब्द की उत्पत्ति


आलोचना शब्द की उत्पत्ति 'लुच' धातु से हुई है जिसका अर्थ है - देखना. साहित्य के सन्दर्भ मे समालोचना भी प्रयोग होता है, जिसका अर्थ है - 'सम्यक प्रकार से देखना या परखना'.
ड्राईडन के अनुसार -
आलोचना वह कसौटी है जिसकी सहायता से किसी रचना का मूल्यांकन किया जाता है. वह उन विशेषताओं का लेखा प्रस्तुत करती है जो साधारणतः किसी पात्र को आनंद प्रदान कर सकें.
मैथ्थ्यु आररनल्ड  के अनुसार -
"But the criticism, real criticism is essentially the exercise of this quality curiosity and disinterested love of a free play of mind".
टी. एस . इलियट पाश्चात्य आलोचना के प्रमुख समीक्षक माने जाते हैं.नयी आलोचना पर इलियट का पर्याप्त प्रभाव पडा है. जब काव्य तथा समीक्षा दोनो माध्यमों से साहित्यकार अपने एक ही विशिष्ट दृष्टीकोण को अभिव्यक्त तथा पुष्ट करता है तो उसकी कवि तथा समालोचक दोनो रूपो में मान्यता मिलती है.
कोई भी जागरूक साहित्यकार अपने युग की चेतना के निर्माण में यदि अपनी कविता द्वारा योग देता है तो उसका समीक्षात्मक साहित्य भी इसे अनिवार्य रूप से प्रभावित करता है.
इलियट आलोचना के संबंध मे महत्वपूर्ण बात कहते हैं. वे कहते हैं कि आलोचना के क्षेत्र मे परंपरा का अनुगमन रुढ़िवाद  नही है. प्राचीन परंपराएं मानव के भावी जीवन के विकास की आधारभूमि होती हैं और वर्तमान को भी प्रभावित करती हैं. इलियट कहते हैं की आलोचना के दो दृष्टिकोण हैं.
१. कवि के तत्कालिक समय की दृष्टि से कवि का मूल्यांकन करने के लिए.
२. वर्तमान समय मे उसकी उपादेयता के लिए
इलियट के अनुसार उत्कृष्ट आलोचना वह है जिसमे लोकदृष्टि हो तथा जो अध्येता  को रसास्वादन की सूझ-बूझ और क्षमता प्रदान कर सके.
कविता की भाषा के सन्दर्भ मे इलियट का कहना है की उसमे उच्चता का गुण अत्यंत आवश्यक है. कविता मे कल्पना का प्रयोग वांछित होता है, परंतु वह यथार्थ के धरातल से जुड़ी रहनी चाहिए.
इन विद्वानों के विचार पढ़ कर आलोचनाओ के विभिन्न कार्य सामने आते हैं.
१. रचना का भाव और कृतिकार के उद्देश्य को प्रकट करना.
२. रचना के गुण दोषों का उद्घाटन करना.
३. रचना की व्याख्या करना और अपने मन पर पड़ने वाली प्रतिक्रिया का प्रेषण करना.
समालोचक रचना की परख अलग अलग उद्देश्यों और दृष्टिकोण से करता है, उसकी आल्लोचना के मानदंड भी भिन्न भिन्न होते हैं. इसी आधार पर समालोचना भी भिन्न भिन्न प्रकार की होती है...जैसे ..
शास्त्रीय आलोचना
- जब कोई आलोचक शास्त्रीय नियमों को आधार बनाकर काव्य का मूल्यांकन करता है तो इसे शास्त्रीय आलोचना कहते हैं. इसमें न तो व्याख्या की जाती है, न प्रभाव का अंकन होता है, न मूल्यांकन होता है और न निर्णय दिया जाता है. काव्यशास्त्र के सिद्धांतो को आधार बनाकर यह आलोचना की जाती है.
निर्णयात्मक आलोचना
- निर्णयात्मक आलोचना में आलोचक एक न्यायाधीश की भांति कृति को अच्छा बुरा अथवा मध्यम बताता है. निर्णय के लिए वह कभी शास्त्रीय सिद्धांतो को आधार बनता है तो कभी व्यक्तिगत रूचि को. बाबु गुलाब राय मानते हैं की यदि निर्णय के लिए शास्त्रीय सिद्धांतो को आधार बनाया जाये तो इसमें सुगमता रहती हैं. आलोचना का यह रूप प्रायः व्यक्तिगत वैमनस्य निकालने का साधन बनकर रह जाता है. जहाँ पाठक स्वयं पर निर्णय थोपा हुआ महसूस करता है, वहीँ लेखक स्वयं को उपेक्षित अनुभव करता है.
ऐतिहासिक आलोचना
इस अल्लोचना पद्धति में किसी रचना का विश्लेषण तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में किया जाता है. उदाहरण के लिए राम काव्य की रचना - वाल्मीकि, तुलसी, मैथिलीशरण गुप्त ने की, किन्तु उनकी कृतियों में उपलब्ध आधारभूत मौलिक अंतर तद्युगीन परिस्थितियों की उपज है.
प्रभाव वादी आलोचना 
इस आलोचना में कृतिकार की कृति को पढ़कर मन पर पड़े प्रभावों की समीक्षा की जाती है. किन्तु हर व्यक्ति की रूचि भिन्न भिन्न होती है अतः एक कृति को कोई अच्छा कह सकता है और कोई बुरा. इसलिए इस आलोचना में प्रमाणिकता का सर्वथा अभाव रहता है.
मार्क्सवादी आलोचना 
मार्क्सवाद सामाजिक जीवन को एक आवयविक पूर्ण रूप से देखता है. जिसमें अलग अलग अवयव एक दूसरे पर निर्भर करते हैं. वह मानता है की सामाजिक जीवन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका भौतिक आर्थिक संबंधो द्वारा श्रम के रूपों द्वारा अदा की जाती है. अतः लेखक का कर्तव्य है कि किसी युग के सामन्य विश्लेषण में वह उस युग के सम्पूर्ण सामाजिक विकास का पूरा चित्र प्रस्तुत करे. वह कहता है कि कला के अनन्य प्रकारों में साहित्य इसलिए भिन्न है कि साहित्य में रूप की तुलना में विषय का महत्त्व है.इसलिए वह सबसे पहले कृति को विषय का अपने विश्लेषण का विषय बनता है.और तब कृति की अभिव्यक्ति की शक्ति द्वारा सामाजिक जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव का निर्धारण करता है.
मार्क्सवादी आलोचक एक सीमा तक शिक्षक भी होता है. उसे सबसे पहले लेख के प्रति अपने रुख में शिक्षक होना चाहिए. आलोचक लेखक से बहुत कुछ सीखता है. श्रेष्ठ आलोचक लेखक के प्रति प्रशंसा और जोश की दृष्टि रखता है. उसका कर्तव्य है की वह नए लेखकों को उनकी ग़लतियाँ बताये साथ ही सामाजिक जीवन को समझने में उसकी सहायता करे. आलोचक पाठक की भी सहायता करता है. वह उसे अच्छे साहित्य का आस्वादन करा कर उसकी रूचि का परिष्कार करता है. मार्क्सवाद का मानना है की आलोचक को स्वयं को एक शिशु के रूप में देखना चाहिए. उसे विनम्र, विराट, प्रतिभाशाली साहित्य का अवलोकन करना चाहिए.
समालोचना के गुण
A perfect judge will read each work of wit.
With the same spirit that is author writ.    - A. Pope
१. काव्य की आत्मा में प्रवेश - आलोचक का सबसे प्रधान गुण कवि या काव्य की आत्मा में प्रवेश करने की उसकी क्षमता होती है. जिस भाव-भंगिमा, मुद्रा और तन्मयता के साथ कवि ने अपने काव्य की रचना की हो, उसमे प्रवेश कर जानेवाला पाठक ही उस कवि का सच्चा आलोचक हो सकता है.
२. संपूर्ण काव्य का अध्ययन - इसके लिए आवश्यक है कि कवि के संपूर्ण काव्य का अध्ययन किया जाये. काव्य के अंग - विशेष के अध्ययन पर ही आलोचक को अपनी धारणा नहीं बना लेना चाहिये.
३. कवि के ध्येय की परख - कवि का क्या ध्येय है इस पर पहले ही दृष्टि रखनी चाहिये. उसके लक्ष्य और मन्तव्य को पूरी तरह ग्रहण करने के बाद ही अपनी आलोचना अग्रसारित करनी चाहिये.
४. नूतनता ही कला की कसौटी नही - लेकिन नवीन मत देना ही सच्ची आलोचना नही. उसमे तत्व होना चाहिये. वह तथ्य पर आधारित होना चाहिये. उसमे अपनी ही सच्ची अनुभूति की पृष्ठ-भूमि हो - यह आवश्यक है.
५. दलगत भावना का त्याग - आलोचना सदा कवि के कृतित्व   को आधार मानकर होनी चाहिये, न कि केवल उसके व्यक्तित्व को. प्रायः देखने में आता है कि साहित्यिक वर्ग विशेषो में बंट जाया करते हैं ; और वे कवि की कृति से प्रभावित होकर नही वरन दलगत भावनाओ से प्रेरित होकर आलोचना करते हैं.
६, अहम्मन्यता का निषेध - सच्ची समीक्षा में अहमंधता का निषेध होना चाहिये अर्थार्थत्‌ समीक्षा में अपने अहम को स्थान नही देना चाहिये. अपनी इच्छाओं और भावनाओं को प्रदर्शित करने का प्रयास न किया जाय तो अच्छा हैं. प्राय आलोचना के समय विद्वान अपने कार्य Do's & Dont's को ध्यान में रखकर कवि की आलोचना करते हैं. इससे भ्रांति की आशंका हो सकती है.
७. भाषा के मानदंड नही - भाषा के लालित्य को ही समीक्षा का मानदंड नही मानना चाहिये.  भाषा वही है जो भावो को स्पष्ट रूप से व्यक्त कर सके. ललित और भारी भरकम शब्दो का प्रयोग ही अच्छी भाषा के लक्षण नही. अतः उनके लोभ में न आना चाहिये. यदि विचार स्पष्ट होंगे, तो भाषा आपने आप सुंदर और ललित होगी.
८. तार्किकता और संगति - आलोचना में संगति का होना परमावश्यक है. समीक्षक के मत में तार्किकता होनी चाहिये. उसे सदा ध्यान रखना चाहिये कि आदि से अंत तक उसके मत का खंडन हो रहा है अथवा नही. सर्वोत्तम, उच्चतम आदि अतितिशियोक्तिपूर्ण शब्दो का यथासंभव  निषेध करना चाहिये. इसके लिए आवश्यक है कि समीक्षक में गहन अध्ययन हो, ज्ञान हो, न्याय हो और वह सदा 'सत्य' का ही पक्ष ले.

आवाहनं न जानामि, न जानामि विसर्जनम्। पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि॥
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि। यत्पूजितं मया देवि परिपूर्ण तदस्तु मे॥

No comments:

Post a Comment