सरकार और नागरिक का रिश्ता बड़ा ही नाज़ुक होता है। विश्वास का भी होता है और अविश्वास का भी। समर्थन का भी होता है और विरोध का भी। मांग का भी होता है और इनकार का भी। आप एक नागरिक के तौर पर जब भी कभी कहीं धरना-प्रदर्शन देखते हैं तो आपकी प्रतिक्रिया क्या होती होगी। मुझे ठीक-ठीक तो नहीं मालूम मगर कई लोग मिलते हैं जो इनसे सहानुभूति रखते हैं और कई लोग मिलते हैं जो इनका मजाक भी उड़ाते हैं। लोकतंत्र में मतदान करना और चुनाव के बाद सरकार बना लेने भर से एक नागरिक का लोकतांत्रिक कर्तव्य समाप्त नहीं हो जाता है। उसका असली संघर्ष सरकार बनने के बाद शुरू होता है जब वह अपनी मांगों को लेकर सरकार के सामने अपनी दावेदारी करता है। कई प्रदर्शन इस आस में समाप्त हो जाते हैं कि काश कोई पत्रकार आएगा और हमारी तस्वीर दिखाएगा। कई प्रदर्शन इस बात की चिन्ता ही नहीं करते हैं। उन्हें पता है कि जब वे प्रदर्शन करेंगे तो कैमरे वाले आएंगे ही आएंगे। कांग्रेस और बीजेपी के प्रदर्शनों को बाकी प्रदर्शनों से ज्यादा सौभाग्य प्राप्त है।
रघुपति राघव राजा राम उनको बुद्धि दे भगवान...जरूरी नहीं कि गांधी की प्रतिमा के सामने धरना-प्रदर्शन किया जाए तो 'रघुपति राघव राजा राम' ही गाया जाए। गांधी इस भजन को अलग संदर्भ में गाते थे।
बीजेपी सांसद नारे लगा रहे थे निर्णय आया इटली में, बेचैन दलाल दिल्ली में।
आंगनवाड़ी भारत ही नहीं, दुनिया का एक बड़ा सामाजिक कार्यक्रम है। आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की कमाई भी बहुत नहीं होती। 3000 रुपया महीने का मिलता है। हमने एक आंगनवाड़ी वर्कर से पूछा कि वे पंजाब से कैसे आती हैं तो बताया कि सारी महिलाएं पांच-पांच सौ रुपये देती हैं। बस किराये पर लेती हैं और फिर जंतर मंतर आकर धरना देती हैं। वे अपनी इस भूमिका से लोकतंत्र को कितना समृद्ध करती हैं आप सिर्फ इतना सोच लें तो इनके प्रति श्रद्धा उमड़ आएगी। अलग-अलग राज्यों में अलग अलग वेतन हैं, अलग-अलग शर्तें हैं। केरल में दस हजार वेतन मिलता है तो कई राज्यों में न्यूनतम मजदूरी से भी कम 3000 रुपये। आंगनवाड़ी वर्कर अगर मां और देवी टाइप की कैटगरी में आती तो भावुक समां बंध जाता। क्या पता सरकारें अपना खजाना इनके लिए खोल देतीं। दिक्कत यह है कि मां और देवी का मेडल भी अमीर और मध्यमवर्गीय महिलाओं को मिल जाता है। देश भर में आंगनवाड़ी के 14 लाख केंद्र हैं और 27 लाख वर्कर हैं।
आंगनवाड़ी का मतलब क्या है। सामाजिक कल्याण विभाग इंटरव्यू के बाद वर्करों की अस्थाई तौर पर नियुक्ति करता है। वर्कर के लिए 12 वीं पास होना जरूरी है। सभी महिलाएं होती हैं। बच्चों को टीके लगाना, खाना खिलाना, महिलाओं को पोषक तत्वों की जानकारी देना, यह सब इनका काम है।
चालीस साल तक प्रदर्शन करें तो उनका साथ देना चाहिए और उस साधना के मर्म को समझना चाहिए। दिक्कत यह है कि जब तक मामला भावुक नहीं होता,
आशा कार्यकर्ता के बारे में आपने सुना ही होगा। प्राइमरी स्वास्थ्य केंद्रों तक गर्भवती महिलाओं को पहुंचाने का कार्य करती हैं। हर बार चेकअप के लिए ले जाना ताकि गर्भवती महिला और बच्चे की सही देखरेख हो सके। हमारे देश में जन्म से पहले, जन्म के दौरान और जन्म के बाद बच्चों के मरने की संख्या काफी ज्यादा है। जाहिर है आशा वर्कर की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है। नाम आशा है मगर इनकी निराशा को कोई नहीं समझने वाला।
शुक्रवार को यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव फिरोजाबाद पहुंचे तो आशा वर्कर मुर्दाबाद करने पहुंच गईं। पुलिस लाइन में मुख्यमंत्री करोड़ों की योजनाओं का लोकार्पण कर रहे थे तभी 100 आशा महिलाएं पहुंच गईं। मुख्यमंत्री को देखते ही उनका सब्र टूट गया। सिस्टम के प्रति आशा की भी हद होती है। वहां पानी नहीं मिला तो कई आशा महिलाएं बेहोश हो गईं। इनकी मांग थी कि गांव-गांव जाकर महिलाओं को प्रसव के लिए जिला अस्पताल तक लाती हैं। इसके लिए सौ रुपये प्रतिदिन मिलते हैं। बार-बार आश्वासन दिया गया कि स्थाई किया जाएगा, मगर अभी तक अस्थाई नौकरी पर हैं। भत्ता बढ़ाने की मांग भी पूरी नहीं होती। आप गूगल करेंगे तो पता चलेगा कि 12 मई को उत्तराखंड की आशा महिलाओं का प्रदर्शन होने वाला है। किसी राज्य में इन्हें पांच सौ रुपये प्रति दिन मिलते हैं तो किसी राज्य में तीन सौ भी। काम वही है मगर सरकार की मर्ज़ी हुई तो मांग सुनी जाएगी। मेघालय में 1000 रुपया प्रतिदिन मिल रहा है। जबकि इनकी भूमिका आपके समाज को बेहतर करने के लिए काफी महत्वपूर्ण है।
कई बार लगता है कि लोकतंत्र के लिए सिर्फ राजनीतिक दल ही संघर्ष कर रहे हैं। ध्यान से देखेंगे कि उनसे कहीं ज्यादा यह समूह संघर्ष करते हैं। कहीं स्कूल की फीस के खिलाफ मां-बाप बैनर लिए चले जा रहे हैं तो कहीं अपनी दिहाड़ी बढ़ाने के लिए लाठी खाके आ रहे हैं। राजनीतिक दल का व्यक्ति तो दो-चार जेल यात्राएं और धरना प्रदर्शन करने के बाद हो सकता है कि मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री बन जाए लेकिन आम लोग इन प्रदर्शनों के लिए बड़े खतरे उठाते हैं। नौकरी दांव पर लग जाती है। असुरक्षा और बढ़ जाती है। कुछ लोग अपने प्रदर्शनों को हास्यास्पद रूप भी देते हैं ताकि कैमरों के लिए आकर्षक हो जाए।
रघुपति राघव राजा राम उनको बुद्धि दे भगवान...जरूरी नहीं कि गांधी की प्रतिमा के सामने धरना-प्रदर्शन किया जाए तो 'रघुपति राघव राजा राम' ही गाया जाए। गांधी इस भजन को अलग संदर्भ में गाते थे।
बीजेपी सांसद नारे लगा रहे थे निर्णय आया इटली में, बेचैन दलाल दिल्ली में।
आंगनवाड़ी भारत ही नहीं, दुनिया का एक बड़ा सामाजिक कार्यक्रम है। आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की कमाई भी बहुत नहीं होती। 3000 रुपया महीने का मिलता है। हमने एक आंगनवाड़ी वर्कर से पूछा कि वे पंजाब से कैसे आती हैं तो बताया कि सारी महिलाएं पांच-पांच सौ रुपये देती हैं। बस किराये पर लेती हैं और फिर जंतर मंतर आकर धरना देती हैं। वे अपनी इस भूमिका से लोकतंत्र को कितना समृद्ध करती हैं आप सिर्फ इतना सोच लें तो इनके प्रति श्रद्धा उमड़ आएगी। अलग-अलग राज्यों में अलग अलग वेतन हैं, अलग-अलग शर्तें हैं। केरल में दस हजार वेतन मिलता है तो कई राज्यों में न्यूनतम मजदूरी से भी कम 3000 रुपये। आंगनवाड़ी वर्कर अगर मां और देवी टाइप की कैटगरी में आती तो भावुक समां बंध जाता। क्या पता सरकारें अपना खजाना इनके लिए खोल देतीं। दिक्कत यह है कि मां और देवी का मेडल भी अमीर और मध्यमवर्गीय महिलाओं को मिल जाता है। देश भर में आंगनवाड़ी के 14 लाख केंद्र हैं और 27 लाख वर्कर हैं।
आंगनवाड़ी का मतलब क्या है। सामाजिक कल्याण विभाग इंटरव्यू के बाद वर्करों की अस्थाई तौर पर नियुक्ति करता है। वर्कर के लिए 12 वीं पास होना जरूरी है। सभी महिलाएं होती हैं। बच्चों को टीके लगाना, खाना खिलाना, महिलाओं को पोषक तत्वों की जानकारी देना, यह सब इनका काम है।
चालीस साल तक प्रदर्शन करें तो उनका साथ देना चाहिए और उस साधना के मर्म को समझना चाहिए। दिक्कत यह है कि जब तक मामला भावुक नहीं होता,
आशा कार्यकर्ता के बारे में आपने सुना ही होगा। प्राइमरी स्वास्थ्य केंद्रों तक गर्भवती महिलाओं को पहुंचाने का कार्य करती हैं। हर बार चेकअप के लिए ले जाना ताकि गर्भवती महिला और बच्चे की सही देखरेख हो सके। हमारे देश में जन्म से पहले, जन्म के दौरान और जन्म के बाद बच्चों के मरने की संख्या काफी ज्यादा है। जाहिर है आशा वर्कर की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है। नाम आशा है मगर इनकी निराशा को कोई नहीं समझने वाला।
शुक्रवार को यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव फिरोजाबाद पहुंचे तो आशा वर्कर मुर्दाबाद करने पहुंच गईं। पुलिस लाइन में मुख्यमंत्री करोड़ों की योजनाओं का लोकार्पण कर रहे थे तभी 100 आशा महिलाएं पहुंच गईं। मुख्यमंत्री को देखते ही उनका सब्र टूट गया। सिस्टम के प्रति आशा की भी हद होती है। वहां पानी नहीं मिला तो कई आशा महिलाएं बेहोश हो गईं। इनकी मांग थी कि गांव-गांव जाकर महिलाओं को प्रसव के लिए जिला अस्पताल तक लाती हैं। इसके लिए सौ रुपये प्रतिदिन मिलते हैं। बार-बार आश्वासन दिया गया कि स्थाई किया जाएगा, मगर अभी तक अस्थाई नौकरी पर हैं। भत्ता बढ़ाने की मांग भी पूरी नहीं होती। आप गूगल करेंगे तो पता चलेगा कि 12 मई को उत्तराखंड की आशा महिलाओं का प्रदर्शन होने वाला है। किसी राज्य में इन्हें पांच सौ रुपये प्रति दिन मिलते हैं तो किसी राज्य में तीन सौ भी। काम वही है मगर सरकार की मर्ज़ी हुई तो मांग सुनी जाएगी। मेघालय में 1000 रुपया प्रतिदिन मिल रहा है। जबकि इनकी भूमिका आपके समाज को बेहतर करने के लिए काफी महत्वपूर्ण है।
कई बार लगता है कि लोकतंत्र के लिए सिर्फ राजनीतिक दल ही संघर्ष कर रहे हैं। ध्यान से देखेंगे कि उनसे कहीं ज्यादा यह समूह संघर्ष करते हैं। कहीं स्कूल की फीस के खिलाफ मां-बाप बैनर लिए चले जा रहे हैं तो कहीं अपनी दिहाड़ी बढ़ाने के लिए लाठी खाके आ रहे हैं। राजनीतिक दल का व्यक्ति तो दो-चार जेल यात्राएं और धरना प्रदर्शन करने के बाद हो सकता है कि मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री बन जाए लेकिन आम लोग इन प्रदर्शनों के लिए बड़े खतरे उठाते हैं। नौकरी दांव पर लग जाती है। असुरक्षा और बढ़ जाती है। कुछ लोग अपने प्रदर्शनों को हास्यास्पद रूप भी देते हैं ताकि कैमरों के लिए आकर्षक हो जाए।
No comments:
Post a Comment