जब हमारे परिवार में, या मित्र-परिचितों के बीच कोई ऐसी बात कहता है, या ऐसा कुछ करता है जो हमारे मतों के बिलकुल विपरीत होता है, तो हमारी क्या प्रतिक्रिया होती है? जब आपसे ज्यादा ‘मजबूत’ कोई आपसे असहमत होता है, तब आप क्या करते हैं? सहिष्णुता और असहिष्णुता की परीक्षा आपसी संबंधों में ही होती है, चाहे वे छोटे पैमाने पर हों, या बड़े पैमाने पर। हम बिलकुल करीबी लोगों के साथ अपने मतभेद कैसे निपटाते हैं? क्या हम क्रोध करते हैं, असहमति को दबाने को कोशिश करते हैं, बौखला जाते हैं, और यदि वह बहुत ही ‘कमज़ोर’ है, मेरा कर्मचारी है, बच्चा है, छात्र है या जीवनसाथी, जिसपर हम आदतन हावी रहते आये हैं, तो क्या हम उनकी बातें सुनने से भी इनकार नहीं कर देते?
अपने निजी, रोज़मर्रा के जीवन में अपनी सहिष्णुता और असहिष्णुता के प्रति सजगता हो तो समाज में इन दिनों फैली बीमारी को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। नहीं क्या? समाज आखिर आपके और मेरे बीच के संबंधों का संजाल ही तो है। मैं खुद का सात अरब लोगों के साथ गुणा कर दूँ, तो यही दुनिया तो बनेगी हमारी। धरती पर सात अरब ‘मैं’ हैं। जैसा मैं हूँ, वैसा ही मेरा पड़ोसी है। जो फर्क हैं, वे अलग-अलग सांस्कृतिक/सामाजिक प्रभावों की वजह से हैं। क्या ये फर्क इतने गंभीर हैं कि इनकी वजह से हम एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाएँ? अपने मतों के साथ जुड़ाव, ‘सत्य-सिर्फ-मेरे-ही-पास-है’, यह भाव इतना कैसे मजबूत हो गया है? इस असहिष्णुता के मनोवैज्ञानिक धरातल को खंगाला जाना चाहिए। अपने मतों के साथ चिपकने और उनके लिए एक दूसरे की जान तक लेने की अपनी आदत पर प्रश्न उठाने चाहिए, उसकी बारीकी से, कई अलग अलग नज़रिए से पड़ताल की जानी चाहिए। मतों ने दुनिया को कई हिस्सों में बांटा हुआ है।इनके नाम पर होने वाली हिंसा सूक्ष्म भी है, और कई गुना ज्यादा नृशंस भी। यह सवाल पूछना जरूरी है कि हमे मत ज्यादा प्रिय है, चाहे वह कितना भी ‘उदार’ और ‘सर्वसमावेशी’, क्यों न हो? क्या वह उस इंसानियत से भी ज्यादा कीमती है जिसकी रक्षा के नाम पर हम उसे अपनाते हैं?
सहिष्णुता में एक तरह का अहंकार का भाव है। इसमें यह निहित है कि मैं जो हूँ वह बना रहूंगा, हिन्दू, मुस्लिम, ब्राह्मण वगैरह, पर मैं इतना उदार हूँ कि मैं तुम्हे बर्दाश्त कर लूंगा। पर प्रश्न उठाना चाहिए कि हम इस तरह की धार्मिक, जातिगत पहचान के साथ जुड़े रहने के आदी हो ही क्यों गए हैं। स्पष्ट तौर पर इसके सामाजिक और राजनीतिक लाभ हैं। किसी भी संगठित संस्था के साथ जुड़ कर आप खुद को ज्यादा ताकतवर महसूस करते हैं। इस तरह का तादात्म्य आपको मनोवैज्ञानिक सुरक्षा की अनुभूति भी करा सकता है। पर अपनी खुद की सुरक्षा के प्रश्न से थोड़ा दूर हट कर देखा जाए, तो यह तथाकथित सुरक्षा समाज के अन्य लोगों के लिए गहरी असुरक्षा का भी कारण बनती है। हम जितना अपने सीमित अर्थ में, संकीर्ण दायरे में सुरक्षा ढूंढते हैं, अपने अभेद्य द्वीपों का निर्माण करते हैं, उतना ही हम बाकी मानवता, वृहत्तर समाज से अलग होते जाते हैं।
अलग से अपनी पहचान स्थापित करने की प्रवृत्ति ही बड़े पैमाने पर समाज में असुरक्षा, द्वंद्व और संघर्ष का आधार बनती है। उदाहरण के लिए, जैसे ही मैं खुद को हिन्दू या मुस्लिम कहता हूँ, अपनी संस्कृति और इतिहास, अपने धर्म ग्रन्थों और देवी-देवताओं, पैगम्बरों का महिमामंडन करता हूँ, ठीक उसी समय मैं खुद को अन्य धार्मिक समुदायों और अंततः समूची मानवता से अलग कर लेता हूँ। मेरी तथाकथित सुरक्षा में ही शेष मानवता की असुरक्षा निहित है। इस तरह एक विराट सामाजिक संरचना निर्मित हो रही है जिसमें छोटे-छोटे हिस्सों में बंटे लोग, अलग अलग जातियों, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक गुटों में विभाजित लोग एक बड़े पैमाने पर बाकी लोगों के लिए असुरक्षा और असहिष्णुता का भी वातावरण तैयार कर रहे होते हैं। ऐसा वे जानबूझ कर या अनजाने में भी कर सकते हैं। बेहतर है इस मानसिकता का अच्छी तरह से अनुसंधान करके इसे समझ लिया जाए। यदि इस समझ की नींव आज डाली जाए तो उम्मीद है कि आगे आने वाली पीढ़ियां इसके खतरे से बच सकेंगी और इसकी जड़ें समाप्त कर पाएंगीं।
असहिष्णुता के माहौल के विरोध में समाज के अलग-अलग तबके के प्रतिष्ठित लोग अपने-अपने सम्मान सरकार को लौटा रहे हैं। वे असहिष्णुता के प्रति अपनी असहिष्णुता दिखा रहे हैं। जाने अनजाने में वे अपने विपरीत एक और गुट का निर्माण कर रहे हैं जो असहिष्णुता के प्रति उनकी असहिष्णुता को लेकर ही असहिष्णु हो उठा है। समाज में फैल रही असहिष्णुता एक तथ्य भी है, और उसके कुछ राजनीतिक पहलू भी हैं इससे इनकार नहीं किया जा सकता। जो इस असहिष्णुता के खिलाफ आवाज़ उठा रहे हैं उन्हें सहिष्णुता, उदारता और सर्वसमावेशिता की वैकल्पिक संस्कृति का आधार भी ढूंढना चाहिए। ऐसा नहीं कि पहले जी भर कर विरोध कर लें, फिर सहिष्णुता का आधार ढूंढेंगे। ये दोनों कार्य महत्वपूर्ण हैं और दोनों एक साथ होने चाहिए।
असहिष्णुता का विरोध और सहिष्णुता की संस्कृति की स्थापना। गोमांस रखने के संदेह में किसी की हत्या भयंकर असहिष्णुता का सूचक है, पर साथ ही गोमांस खाकर सार्वजनिक तौर पर उसका प्रदर्शन करना भी एक नए किस्म के अनावश्यक संघर्ष और अशांति को जन्म देने जैसा है। एक गंभीर सवाल का राजनीतिकरण उसे सतही बना डालेगा और हमारे अगंभीर होने का सूचक होगा। इससे यही प्रतीत होता है कि हम एक समस्या को दूसरी समस्या में परिवर्तित करना मात्र जानते हैं, किसी समस्या को उसकी समग्रता में समझ कर उसका अंत करने का धैर्य और प्रज्ञा हमारे पास नहीं।
सहिष्णुता का प्रश्न बहुत गहराई के साथ पूर्वग्रहों के साथ जुड़ा हुआ है। एक स्तर पर इसका यह भी अर्थ है कि मुझे आपकी त्वचा का रंग, आपके धार्मिक, सामाजिक रीति रिवाज़ और आपके व्यक्तिगत तौर तरीके पसंद तो नहीं, पर चूंकि आपके साथ रहना मेरी मजबूरी है इसलिए मैं आपको बर्दाश्त करूंगा। पर मैं स्वयं के पूर्वाग्रहों पर विचार नहीं करूंगा। कौन चाहेगा, कौन सा व्यक्ति या समुदाय, कि उसे बस बर्दाश्त किया जाए? इसमें समानता कहाँ है, सम्मान कहाँ है? और बर्दाश्त करने वाले हम होते कौन हैं? किसी के प्रति सहिष्णु होने की बात करते वक्त हम कहीं न कहीं अपनी श्रेष्ठता भी साबित करने में लगे होते हैं। जो खुद को ज्यादा श्रेष्ठ समझता है वह उसे बर्दाश्त करने की बात करता है जो उससे ‘कम श्रेष्ठ’ है, किसी न किसी मामले में ‘कमतर’ है। सहिष्णुता और उदारता के आदर्श को ध्यान में रखते हुए, संविधान के कर्तव्यों को सामने रखते हुए उसे बर्दाश्त करने की बात की जाती है। यह सब बड़ा सतही और घटिया भी लगता है। बात सहिष्णुता की नहीं, समानता और सम्मान की भी होनी चाहिए।
सहिष्णुता और असहिष्णुता पर बात करते समय हमें सबसे पहले प्राथमिक शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए। विशेष तौर पर इतिहास जैसे विषय पढ़ाते समय एक ख़ास किस्म की जागरूकता की जरूरत है। साथ ही धार्मिक समुदायों द्वारा चलाये जाने वाले स्कूलों में नैतिक शिक्षा की पुस्तकों में क्या पढ़ाया जाता है, उसपर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। ये स्कूल चाहे किसी धर्म की शिक्षाओं से प्रभावित हों, अपने मॉरल सायंस की किताबों के जरिये ये बच्चों में गहरे पूर्वग्रहों के बीज डाल सकते हैं। जिन साहित्यकारों और लेखकों, कलाकारों और वैज्ञानिकों ने हाल ही में असहिष्णुता के विरोध में अपनी आवाज़ बुलंद की है, उन्हें यह जिम्मेदारी उठानी चाहिए कि वे विभिन्न स्तर पर बच्चों को पढाई जाने वाली पुस्तकों की गंभीर पड़ताल करें। केंद्र सरकार के गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने लेखकों से गुहार लगाई है कि वे सहिष्णुता का मार्ग सुझाएँ।
यदि सरकार ईमानदार है तो उसे प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर गंभीर काम करना चाहिए। पूर्वग्रह वहीँ से निर्मित होते हैं और आगे चलकर असहिष्णुता का बवंडर खड़ा कर देते हैं। इसके लिए शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए भी विशेष तरह के कार्यक्रम चलाये जाने चाहिए। सहिष्णुता को भी सटीक तरीके से परिभाषित करने की जरुरत है। सहिष्णुता भी बिना किसी शर्त के, असीमित नहीं हो सकती। सहिष्णुता का अर्थ यह नहीं कि जो स्पष्ट रूप से खतरनाक और हानिकारक है उसे भी सहन किया जाए। इसका फर्क कैसे किया जाए, यह शिक्षा का काम है। भारत जैसे विविधता से भरे देश में सहिष्णुता और असहिष्णुता का सवाल जटिल है।
यहाँ तो गहरे विभाजन हैं संस्कृतियों के बीच; एक की ‘माँ’ दूसरे का भोजन है; एक का अमृत अन्य के लिए विष है। इन जटिलताओं को ध्यान में रखते हुए यहाँ धर्म और जाति से जुड़ी सदियों पुरानी असहिष्णुता और पूर्वग्रहों को खंगाला जाना चाहिए। अपने आप में ही यह एक विराट चुनौती है। पर यदि इस समस्या को समग्रता में नहीं जांचा समझा गया तो जो कुछ भी होगा, वह पत्तियां कतरने जैसा होगा। समस्या की जड़ें वहीं की वहीं रह जायेंगी, और फिर उसके कड़वे फल किसी और शाख से फूटेंगे और उनका ज़हर आने वाली पीढ़ियों को पीना होगा।
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