Thursday, May 12, 2016

पत्रकारिता का महत्व और उद्देश्य

पत्र- पत्रिकाओं में सदा से ही समाज को प्रभावित करने की क्षमता रही है। समाज में जो हुआ, जो हो रहा है, जो होगा, और जो होना चाहिए यानी जिस परिवर्तन की जरूरत है, इन सब पर पत्रकार को नजर रखनी होती है। आज समाज में पत्रकारिता का महत्व काफी बढ़ गया है। इसलिए उसके सामाजिक और व्यावसायिक उत्तरदायित्व भी बढ़ गए हैं। पत्रकारिता का उद्देश्य सच्ची घटनाओं पर प्रकाश डालना है, वास्तविकताओं को सामने लाना है। इसके बावजूद यह आशा की जाती है कि वह इस तरह काम करे कि ‘बहुजन हिताय’ की भावना सिद्ध हो।
महात्मा गांधी के अनुसार, ‘पत्रकारिता के तीन उद्देश्य हैं- पहला जनता की इच्छाओं, विचारों को समझना और उन्हें व्यक्त करना है। दूसरा उद्देश्य जनता में वांछनीय भावनाएं जागृत करना और तीसरा उद्देश्य सार्वजनिक दोषों को नष्ट करना है। गांधी जी ने पत्रकारिता के जो उद्देश्य बताए हैं, उन पर गौर करें तो प्रतीत होता है कि पत्रकारिता का वही काम है जो किसी समाज सुधारक का हो सकता है।
पत्रकारिता नई जानकारी देता है, लेकिन इतने से संतुष्ट नहीं होता वह घटनाओं, नई बातों नई जानकारियों की व्याख्या करने का प्रयास भी करता है। घटनाओं का कारण, प्रतिक्रियाएं, उनकी अच्छाई बुराइयों की विवेचना भी करता है।
पूर्व राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा के अनुसार, पत्रकारिता पेशा नहीं, यह जनसेवा का माध्यम है। लोकतांत्रिक परम्पराओ की रक्षा करने शांति और भाईचारे की भावना बढ़ाने में इसकी भूमिका है।
समाज के विस्तृत क्षेत्र के संदर्भ में पत्रकारिता के निम्नलिखित उद्देश्य व दायित्व बताये जा सकते है-
. नई जानकारियां उपलब्ध कराना
. सामाजिक जनमत को अभिव्यक्ति देना
. समाज को उचित दिषा निर्देश देना
. स्वस्थ मनोरंजन की सामग्री देना
. सामाजिक कुरीतियों को मिटाने की दिशा में प्रभावी कदम उठाना
. धार्मिक सांस्कृतिक पक्षों का निष्पक्ष विवेचन करना
. सामान्यजन को उनके अधिकार समझाना
. कृषि जगत व उद्योग जगत की उपलब्धियां जनता के सामने लाना
. सरकारी नीतियों का विश्लेषण और प्रसारण
. स्वास्थ्य जगत के प्रति लोगों को सतर्क करना
. सर्वधर्म समभाव को पुष्ट करना
. संकटकालीन स्थितियों में राष्ट्र का मनोबल बढ़ाना
. वसुधैव कुटुम्बकम की भावना का प्रसार करना
समाज में मानव मूल्यों की स्थापना के साथ जन जीवन को विकासोन्मुख बनाना पत्रकारिता का दायित्व है। पत्रकारिता के सामाजिक और व्यवसायिक उत्तरदायित्व के अनेकानेक आयाम हैं। अपने इन उत्तरदात्वि का निर्वाह करने के लिए पत्रकार का एक हाथ हमेशा समाज की नब्ज पर होता है।

----------------------------------------------------------------------------------------------------------
पत्रकारिता का प्रथम और अंतिम उद्देश्य केवल राष्ट्रहित ही होना चाहिए। हम भारतीयों की राष्ट्रवाद की व्याख्या ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की परंपरा पर आधारित है न कि शेष विश्व से टकराव के सिद्धांत पर। पत्रकारों में पांच गुण आपेक्षित बताए, जिनको अपना कर वे अपने देश, समाज व अपने व्यवसाय की सफलतापूर्वक सेवा कर सकते हैं।
एक अच्छे पत्रकार में योगी, उपयोगी, प्रयोगी, कर्मयोगी, सहयोगी आदि पांच गुणों की अपेक्षा करते हुए कहा कि पत्रकार को योगी सा जीवन जीना चाहिए। कहने का अर्थ कि वह अपनी निजी इच्छाओं, आवश्यकताओं पर अंकुश रखते हुए मिशनरी भाव से काम करे। वह प्रयोगधर्मी हो और अपने क्षेत्र में नए-नए प्रयोग करे। प्रयोगधर्मी होने पर ही पाठक या दर्शक की रुचि बढ़ेगी और पत्रकारिता के क्षेत्र का विकास होगा। चौथा वह कर्मयोगी भी हो, अपनी कलम से समाज का जागरण तो करे ही साथ में जरूरत हो तो आगे आकर समाज का मार्गदर्शन भी करे। जो वह लिखता है उसे कार्यरूप दे कर दिखाए। पांचवां पत्रकार को समाज का सहयोगी होना चाहिए। 
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
आज पत्रकारिता के मायने बदल गए हैं, बदल रहे हैं अथवा बदल दिए गए हैं, नतीजतन, उन पत्रकारों के सामने भटकाव जैसी स्थिति आ गई है, जो पत्रकारिता को मनसा-वाचा-कर्मणा अपना धर्म-कर्तव्य और कमज़ोर-बेसहारा लोगों की आवाज़ उठाने का माध्यम मानकर इस क्षेत्र में आए और हमेशा मानते रहे. और, वे नवांकुर तो और भी ज़्यादा असमंजस में हैं, जो पत्रकारिता की दुनिया में सोचकर कुछ आए थे और देख कुछ और रहे हैं. 
------------------------------------------------------------------------------------------------------------
पत्रकार अगर भ्रष्ट नेताओं और अफसरों की पैरवी न करें तो भला कैसे जूठन पाएंगे... मार्केट इकानामी ने मोरल वैल्यूज को धो-पोंछ-चाट कर रुपय्या को ही बप्पा मय्या बना डाला तो हर कोई नीति-नियम-नैतिकता छोड़कर दोनों हाथ से इसे उलीचने में जुटा है.. नेता, अफसर, कर्मचारी से लेकर अब तो जज तक रुपये की बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं.. पैसे ले देकर पोस्टिंग होती है, पैसे ले देकर गलत सही काम किए कराए जाते हैं और पैसे ले देकर मुकदमें और फैसले लिखे किए जाते हैं, पैसे ले देकर गड़बड़झाले-घोटाले दबा दिए जाते हैं... इस 'अखिल भारतीय पैसा परिघटना' से पत्रकार दूर कैसे रह सकता है.. और, जब मीडिया मालिक लगभग सारी मलाई चाट जा रहे हों तो बेचारे पत्रकार तो जूठन पर ही जीवन चलाएंगे न...
ऐसे ही जूठनबाज पत्रकारों के एक दल ने उत्तराखंड के भ्रष्ट डीजीपी सिद्धू की पैराकोरी का अघोषित अभियान चला रखा है... वो कहते भी हैं न कि भ्रष्टाचारी के यार हजार, सदाचारी अकेले खाए मार... इन यार पत्रकार ने सिद्धू के गड़बड़झाले को निजी हैसियत से जांचने गए आईपीएस अधिकारी Amitabh Thakur को ही निशाना बना डाला... इन पत्रकारों ने अगर इतना ही साहस उत्तराखंड की भ्रष्ट सरकार और भ्रष्ट अफसरों की पोल खोलने में दिखाया होता तो जनता जनार्दन की जाने कितनी भलाई हो गई होती.. पर अब जनता की कौन सोचता है... जनता बस मोहरा है... मोहरे की आड़ में सब माल पीट रहे हैं.. डीजीपी सिद्धू कांड तो सच में आंख खोलने वाला है... पता चला है कि दलाली के पैसे से गाल लाल कर मीडिया उद्यमी बने कुछ नए किस्म के अंतरदेशीय दल्ले भी सिद्धू की गुपचुप पैरोकारी में देहरादून के अखबारों के संपादकों को पटाते घूम रहे हैं... देखना, एक न एक दिन ये साले सब नंगे होंगे... रुपये-सत्ता के जोर से और भ्रष्टों के मेल से ये मीडिया के छोटे बड़े दल्ले भले ही आज खुद को पावरफुल महसूस कर रहे हैं लेकिन जब अचानक इनके पिछवाड़े कोई अदृश्य लात पड़ेगी तो इन्हें समझ में नहीं आएगा कि धूल चाटने गिरे कहां, दाएं बाएं या बीच में... क्योंकि तब भू-लुंठित होना कंपल्सरी होगा, आप्शन होगा केवल जगह चुनने की...

फिलहाल तो अमिताभ ठाकुर को सलाम
जो अपने कबीराना-फकीराना अंदाज में
नित नए नए कर रहे हैं जोरदार काम...
----------------------------------------------------------------------------------------------------------------

पत्रकारिता पर क्या वाकई विश्वसनीयता का संकट आ गया है...? यह सवाल विद्वान लोग उठाते थे, अब जनसाधारण में ये बातें होने लगी हैं। पहले और अब में एक फर्क यह भी है कि पहले अपनी विश्वसनीयता के कारण पत्रकारिता जनता पर जितना असर डालती थी, अब उतना नहीं डाल पाती। अब तो मीडिया का पाठक या दर्शक हाल के हाल उसकी ख़बरों और खयालों पर टीका-टिप्पणी करने लगा है। आम लोगों में यह बदलाव अच्छी बात है या चिंता की बात, यह विद्वान लोग ही तय कर पाएंगे।

पत्रकारिता के मकसद
पत्रकारिता अब अकादमिक विषय बन गया है। यूनिवर्सिटी और संस्थानों में इसके बाकायदा डिग्री कोर्स होते हैं। इन्हीं कोर्सों में पढ़ाया जा रहा है कि पत्रकारिता के तीन काम हैं सूचना देना, शिक्षा और मनोरंजन। देखने में पत्रकारिता के ये उद्देश्य निर्विवाद हैं, इसीलिए पत्रकारिता के संस्थानों में इस बारे में अब तक कोई दुविधा या विवाद दिखाई नहीं दिया, लेकिन अब दौर बदला हुआ है। पत्रकारिता में मेधावी छात्र ज्यादा तादाद में आने लगे हैं। वे पूछते हैं कि सूचना देने का मकसद तो ठीक है, लेकिन यह भी तो देखना पड़ेगा कि सूचना क्या होती है...? सूचना और विज्ञापन में क्या अंतर होता है...? यानी पत्रकारिता के प्रशिक्षणार्थियों को सूचना की निश्चित परिभाषा बताई जानी चाहिए। वे यह भी पूछते हैं कि अपने पाठकों या दर्शकों को शिक्षित करने से पहले हमें यह भी तो देखना पड़ेगा कि हम किस रूप की शिक्षा देना चाहते हैं, और उसी तरह मनोरंजन के बारे में कि मनोरंजन कैसा हो। मनोरंजन के बारे में कुछ विद्वानों का एक बड़ा दिलचस्प आब्ज़र्वेशन है कि ग्राहक जैसा मनोरंजन चाहता है, उसी के हिसाब से मनोरंजन होने लगा है।

ग्राहकों की रुचि की पूर्ति बनाम रुचि का विकास
सवाल यह बना है कि क्या आज की पत्रकारिता अपने ग्राहकों की रुचि की पूर्ति तक सीमित हो गई है। जवाब दिया जा सकता है कि जब पत्रकारिता सिर्फ वाणिज्य होती जा रही हो, तो इसके अलावा और हो भी क्या सकता है। बगैर मुनाफे वाला काम, यानी पाठकों और दर्शकों की रुचि के विकास में कोई क्यों लगेगा। चलिए, कोई यह तर्क दे सकता है कि पत्रकारिता ने पाठकों की रुचि विकसित करने का जिम्मा अपने ऊपर नहीं ले रखा है। यह काम तो साहित्य का है। क्या यह हकीकत नहीं है कि पाठकों में सुरुचि का विकास करने में अचानक अब साहित्य की भी रुचि घट चली है। बदले माहौल में उनके यहां बड़ी उदासी है।

नजरिया बनाने का मकसद
घूम-फिरकर पत्रकारिता का एक बड़ा मकसद अपने ग्राहकों का नज़रिया बनाने का हो जाता है। पत्रकारिता के जरिये लोगों का नज़रिया बनाने और नज़रिया बदलने के बारे में विश्वसनीय शोध हमारे पास नहीं है। अलबत्ता मनोविज्ञानी, खासकर औद्योगिक मनोविज्ञानी ज़रूर इस काम पर लगे दिखते हैं। उनके हिसाब से देखें तो नज़रिया बनाने या नज़रिया बदलने की प्रौद्योगिकी विकास के पथ पर है। यह काम करते समय समस्या या सवाल यही खड़ा होता है कि हम ग्राहकों का नज़रिया कैसा बनाना चाहते हैं। मसलन उद्योग जगत चाहेगा ही कि उसके ग्राहक का नज़रिया उसका उत्पाद खरीदने वाला बन जाए। सामाजिक उद्यमी चाहेगा कि वह लोगों का नज़रिया सामाजिक हित वाला बना दे। राजनीतिक उद्यमी, यानी पॉलिटिकल ऑन्त्रेप्रेनॉर यही चाहेगा कि उसकी राजनीतिक विचारधारा में विश्वास बढ़ाने का काम होता रहे। सत्ता के लिए वह जनाधार बढ़ाने के काम पर लगेगा ही। अपने-अपने हित के काम में लगे रहने को आजकल अच्छा ही माना जाता है, लेकिन पत्रकारिता के क्षेत्र में इसी बात को लागू करने में समस्या यह आ रही है कि वह कैसे तय करे कि उसके ग्राहकों का नज़रिया कैसा हो। यहीं पर नैतिकता का जटिल सवाल खड़ा होना स्वाभाविक है।

पत्रकारिता की नैतिकता का सवाल
स्कूल और विश्वविद्यालय की पढ़ाई शिक्षा का एक रूप है और पत्रकारिता वाली शिक्षा दूसरा रूप। मोटे तौर पर पत्रकारिता वाली शिक्षा को हम जागरूकता बढ़ाने वाली शिक्षा कह सकते हैं। अपनी पहुंच और रोचकता के कारण पत्रकारिता का असर चामत्कारिक है, इसीलिए पत्रकारिता की तरफ सभी लोग हसरत भरी नजरों से देखते हैं। लोकतंत्र में तो बहुत ही ज्यादा। नैतिकता, यानी सही बात समझाने में पत्रकारिता पर ज्यादा ही जिम्मेदारी आती है, लेकिन मौजूदा माहौल में दिख यह रहा है कि पत्रकार जगत ही नैतिकता के मायने को लेकर आपसी झगड़े की हालत में आ गया। पूरे के पूरे मीडिया प्रतिष्ठान ही एक दूसरे के सामने खड़े नजर आते हैं।

नैतिकता, यानी सही और गलत बताने को लेकर झगड़ा
वैसे नैतिकता के मायने को लेकर कोई झगड़ा होना नहीं चाहिए, क्योंकि सभी जगह निर्विवाद रूप से माना जा रहा है और पढ़ाया जा रहा है कि जो सही है और अच्छा है, वह नैतिक है। गलत और बुरी बात को हम अनैतिकता कहते हैं। स्कूली शिक्षा में तो नैतिक शिक्षा पहले से ही शामिल थी। कुछ साल पहले हमने ट्रेनिंग देने लायक लगभग सभी व्यावसायिक कोर्सों में नैतिक शिक्षा, यानी एथिक्स को शामिल कर लिया था। बस, पत्रकारिता के कोर्स में यह विषय शामिल नहीं दिखता। लेकिन नए दौर में फच्चर यह है कि सही क्या है, यह बात सही-सही कौन बताए। मौजूदा हालात ऐसे हैं कि नैतिकता के मामले में अलग-अलग पत्रकार समूह अपनी-अपनी तरह से नैतिकता समझने और समझाने में लगे हैं। विचारधाराओं के झगड़े जैसी हालत पत्रकारिता में भी बन गई दिखती है। ऐसा क्यों है, इसकी जांच-पड़ताल अभी हो नहीं पा रही है।

लक्ष्यविहीनता का संकट तो खड़ा नहीं हो गया
अपने देश में पत्रकारिता आज़ादी के आंदोलन के दौरान ज़रूरत के लिहाज से विकसित हुई थी। पत्रकारिता के आज के विद्यार्थियों को हम यही पढ़ा रहे हैं। आज़ादी मिलने के बाद वह क्या करती, सो, आज़ादी मिलने के बाद पत्रकारिता अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था को अच्छी तरह चलाने में मदद के काम पर लग गई। इसीलिए पत्रकारिता हरदम न्याय के पक्ष में खड़े रहने की बात करती है। इस तरह आज़ादी के बाद हमारी पत्रकारिता का एक निर्विवाद काम लोकतंत्र को मजबूत करते रहना हो गया। यानी, भारतीय पत्रकारिता को समानता की वकालत के काम पर लगना पड़ा। उसे हरदम अन्याय के खिलाफ खड़े दिखना पड़ा। लेकिन आज लफड़ा यह खड़ा हो गया है कि क्या न्याय है और क्या अन्याय, इसे लेकर ही झगड़ा होने लगा है, और अगर गौर से देखें तो यह काम शुरू से ही राजनीतिक दल कर रहे हैं। अन्याय के विरोध के नाम पर राजनीतिक दल एक दूसरे से झगड़ते-उलझते चले आ रहे हैं। अब तक पत्रकारिता उनके झगड़ों को बताती-समझाती थी, लेकिन नई बात यह है कि अब वह खुद ही आपस में ऐसे झगड़ों में उलझती दिखने लगी है, इसीलिए अब तक डाकिये और जज जैसी भूमिका में दिखती आई पत्रकारिता खुल्लमखुल्ला खुद ही वकील और राजनीतिक दलों के सहायकों के वर्गों में बंटती नजर आ रही है। ऐसे में उस पर पक्षधर होने का आरोप लगना स्वाभाविक है। बहुत संभव है कि उसकी विश्वसनीयता घटने का संकट इसी कारण उपजा हो।

No comments:

Post a Comment