Sunday, May 15, 2016

अकेलापन

विश्वप्रसिद्ध पत्रिका टाइम के अभी एक हालिया अंक ने मानव समाज में आ रहे कई आमूलचूल बदलावों के प्रति खबरदार किया है जिनमें लोगों में अकेले जीवन यापन की बढ़ती प्रवृत्ति भी है।  आज स्वीडन की लगभग आधी आबादी अकेले जीवन गुजार रही है। मतलब वहां से दाम्पत्य जीवन का लोप हो चला है। ब्रिटेन में 34, जापान में 31, इटली में 29, दक्षिणी अफ्रीका में 24, केन्या में 15, कनाडा में 27, अमेरिका में 28 और ब्राज़ील में 10 फीसदी लोगएकला चलो की जीवन शैली अपना चुके हैं। गनीमत है भारत में यह प्रतिशत अभी भी काफी कम है - तीन फीसदी मगर 'दूधौ नहाओ पूतो फलो' की मान्यता वाले देश में भी अब अकेले रहने की यह प्रवृत्ति मुखरित हो उठी है।

सर्वे के मुताबिक़ अमेरिका में 1950 के दशक में महज 40 लाख लोग अकेली जिन्दगी गुजार रहे थे वहीं अब तीन करोड़ से अधिक लोग अकेले रह रहे हैं जो घर परिवार वाले सभी लोगों का 28 फीसदी है। साफ़ है इन घरों में नई पीढी की किलकारियां नहीं गूजेंगी। मतलब इन परिवारों को अब अपने जैवीय वंशबेलि की चिंता नहीं है। जनसंख्या में भारी गिरावट आसन्न है। अमेरिका में जहां बिना शादी हुए भी आकस्मिक यौन सम्बन्ध से जन्मे बच्चे पालने में अनवेड माता पिता को कोई ख़ास सामाजिक अवमानना नहीं झेलनी पड़ती वहीं जापान के समाज में यह पाप तुल्य है। वहां स्वच्छंद यौन सम्बन्ध तो बनते हैं मगर कोई बिना विवाहित हुए बच्चे नहीं पाल सकता। यहां संस्कृति का अंतर स्पष्ट है। यही स्थति भारत में भी है। मगर यहां यौन सम्बन्ध उतने स्वछन्द नहीं हैं। पश्चिम और पूरब के संस्कृतियों के ये फर्क बड़े स्पष्ट हैं। अकेली आबादी का बड़ा हिस्सा महिलाओं का है।

वैसे अकेले रहना, अकेला हो जाना, अकेलापन महसूस करना अलग अलग बातें हैं। कोई जरूरी नहीं कि बन्धु बांधवों और एक सहचरी के सानिध्य के बाद भी कोई अकेलेपन की अनुभूति न करता हो या फिर अकेले रहकर भी अकेलापन महसूस करता हो। किसी ऐसे के साथ जिसके साथ रहना पल पल दूभर हो रहा हो अकेले रहना ज्यादा आनंददायक है। हां कुछ समाजशास्त्रियों ने अकेलेपन के ट्रेंड को मानव सुख शान्ति के लिए अच्छा नहीं बताया है। उनके मुताबिक़ मनुष्य कई बार अपने मन की बात किसी से साझा करने को अकुला उठता है -यह उसका स्वभाव है - ऐसे में वह घनिष्ठता चाहता है, सानिध्य चाहता है किसी बेहद करीबी का। मगर दूसरी ओर कुछ समाज विज्ञानियों का मानना है कि आज अंतर्जाल इस कमी को पूरा करने की भूमिका में उभर रहा है - आज फेसबुक सरीखी सोशल नेटवर्क की साइटें कितने ही मनचाहे लोगों से सम्बन्ध बनाने के नित नए अवसर मुहैया करा रही है। एक वह जो आपका समान मनसा है, समान धर्मा है - एक आत्मा और दो शरीर है - फिर एक अदद पत्नी/पति  की जरुरत कहां है? और अब तेजी से बढ़ता ऑटोमेशन घर के सभी कामों को, गृहिणी के कामों को चुटकी बजाते करने को तत्पर है। स्मार्ट माशीने हैं, रोबॉट हैं जो अगले कुछ वर्षों में घर का सब काम संभाल लेंगे।

मगर कई तरह के खतरों के भी संकेत हैं। पी डी जेम्स ने 1992 में एक उपन्यास लिखा था - 'चिल्ड्रन ऑफ मेन'जिसमें ब्रिटेन जैसे एक देश की भावी तस्वीर प्रस्तुत की गयी थी, जहां की एक बड़ी जनसंख्या अकेले रह रही है और उनकी यौन संसर्गो में रूचि नहीं रह गयी है। और धीरे धीरे वे संतानोत्पत्ति के काबिल नहीं रह गए हैं - मनुष्य जाति विलुप्त होने के कगार पर जा पहुंची है। हां मातृत्व का सहज बोध है,  बच्चे नहीं तो पालने में महिलाएं गुड्डों गुड़ियों को लेकर ही आत्मतोष कर रही हैं। जिन पुरुषों में अभी भी प्रजनन की क्षमता है उनके लिए सरकारी ख़ास पोर्न हाउस खोले गए हैं जो उनमें यौन भावना के चिंगारी उत्पन्न कर सकें। खुदकुशी बढ रही है, बाहर के तीसरी दुनिया के लोगों को काम क्रीडा या श्रमकार्य के लिए आमंत्रित किया जा रहा है। मगर उनके बूढ़े या अक्षम होने पर धकिया कर बाहर किया जा रहा है। जापान में ऐसी स्थिति आने में अब ज्यादा वक्त नहीं है।

अभी हाल में ही पेंगुइन बुक्स ने एरिक क्लीनेन बर्ग की पुस्तक, 'गोंइंग सोलो' प्रकाशित की है, जो कुछ राहत देने वाली बातें सामने रखती है। किताब के अनुसार सर्वेक्षित 300 अमेरिकी लोगों में जो अकेले रह रहे हैं, यह जरूरी नहीं है जो अकेले रह रहे हों वे दुखी आत्माएं ही हों। ऐसे लोग सामाजिक रूप से बहुत सक्रिय पाए गए बनिस्बत परिवार वालों के जिन्हें घर से फुरसत ही नहीं मिलती। ऐसे लोगों ने अपने 'महान उद्येश्यों से कभी समझौते नहीं किये, ना ही अनुचित दबाव से डरे। वे अपने कर्तव्य पथ पर अडिग रहे क्योंकि परिवार न होने से उनकी आवश्यकताएं काफी कम थीं। उन्होंने अपनी निजी स्वच्छन्दता, व्यक्तिगत नियमन और आत्मबोध की जिन्दगी के आड़े किसी को आने नहीं दिया और समाज की सेवा की। हम क्या चाहते हैं, कब चाहते हैं, कितना चाहते हैं, अकेलापन हमें अपनी शर्तों पर मुहैया करा सकता है . हम किसी के मुखापेक्षी नहीं रहते। यह घर बार और  गृहिणी/ गृहस्वामी की आये दिन की धौंस, उसकी हर उचित अनुचित फरमाइश से भी मुक्त रखता है। और सबसे मजेदार बात यह कि अकेले रहना ही हमें फिर से दुकेले होने को उकसाता भी है और बदलती दुनिया में उसके भी परिष्कृत साधन और संसाधन जुट रहे हैं।

चलो एकला मन्त्र है, शक्तिमान भरपूर |
नवल-मनीषी शुभ-धवल, सक्रिय जन मंजूर |

सक्रिय जन मंजूर, लोक-कल्याण ध्येय है |
पर तनहा मजबूर, जगत में निपट हेय है | 

उत्तम किन्तु विचार, बने इक सुघड़ मेखला |
सबका हो परिवार, चलो मत प्रिये एकला |

लिव-इन-रिलेशनशिप' जैसी आधुनिक मान्यताएं इस प्रवृत्ति को और बढ़ावा दे रही हैं.संयुक्त-परिवार की भारतीय परंपरा तो हम शहरों में बसकर पहले ही खत्म कर चुके हैं.इसके अलावा नैतिक मूल्यों में दिनों-दिन ह्रास हो रहा है और हम बहुत पढ़े-लिखे होने का चश्मा लगाये हुए हैं.
अकेलापन अवसाद ज़्यादा लाता है.सुख के भागीदार तो कई मिल जाते हैं पर जब हम दुःख नहीं बाँट पाते तो वही दुःख और बड़ा होकर अवसाद बन जाता है.

आधुनिक विकास की सौगात है अकेलापन . 
मनुष्य ने विकसित होकर पहला काम सीखा था --समूह में रहना . 
आज फिर जीवन चक्कर घूम कर आदि मनुष्य के समय में पहुँच गया लगता है .
हम पश्चिम की तरफ क्यों भाग रहे हैं ......?
दरअसल अर्थशास्त्र हावी हो गया है हम पर ...!!अकेलापन पश्चिम की देन है ....!!

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