हमारी वैदिक
संस्कृति में त्याग, सेवा, सहायता, दान तथा परोपकार को सर्वोपरि धर्म के रूप में निरुपित किया
गया है, क्योकि वेद में कहा गया
है – ‘शतहस्त समाहर सहस्त्र
हस्त सं किर१ अर्थात् सैकड़ों हाथों से धन अर्जित करो और हजारों हाथों से दान करो।
गृहस्थों, शासकों तथा सम्पूर्ण
प्राणी मात्र को वैदिक वाङ्मय में दान करने का विधान किया गया है। ‘दक्षिणावन्तो अमृतं भजन्ते२ , ‘न स सखा यो न
ददाति सख्ये३ , पुनर्ददताघ्नता
जानता सं गमेमहि४, शुद्धाः पूता भवत
यज्ञियासः५ इत्यादि अनेक मन्त्रों में दान
की महिमा का विस्तृत वर्णन किया गया है। दान लेना ब्राह्मणों का शास्त्रसम्मत अधिकार है परन्तु वहीं यह भी निरुपित किया गया
है कि दान सुपात्र को दिया जाए, जिससे कोई
दुरुपयोग न हो सके। प्रतिग्रहीता की पात्रता पर विशेष बल देते हुए याज्ञवल्क्य जी
कहते है कि-सभी वर्णों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है, ब्राह्मणों में भी वेद का अध्ययन करने वाले श्रेष्ठ हैं,
उनमें भी श्रेष्ठ क्रियानिष्ठ है और उनसे भी
श्रेष्ठ आध्यात्मवेत्ता ब्राह्मण है। न केवल विद्या से और न केवल तप से पात्रता
आती है अपितु जिसमें अनुष्ठान, विद्या और तप हो
वही दान ग्रहण करने का सत्पात्र होती है। न विद्यया केवला तपसा वापि पात्रता। यत्र
वृत्तमिमे चोभे तद्धि पात्रं प्रकीर्तितम्।। ६ दान के सम्पूर्ण फल की प्रप्ति
सत्पात्र को दान देने से ही प्राप्त होती है। अतः आत्मकल्याण की इच्छा रखने वाले
को चाहिए कि वह अपात्र को दान कदापि न दे, क्योंकि गोभूतिहिरण्यादि पात्रे दातव्यमर्चितम्। नापात्रे विदुषा किंचिदात्मनः
श्रेय इच्छता।।७ जिस समय जिस व्यक्ति को जिस वस्तु की आवश्यकता है, उस समय उसे वही वस्तु देनी चाहिए। यदि जो
मनुष्य इस प्रकार दान देते है तो उनको वेद कहता है कि – ‘एतस्य वाऽक्षरस्य शासने ददतो मनुष्याः प्रशंसन्ति८ ऐसे दान
देने वाले मनुष्य इस परमपिता परमेश्वर के शासन में सदैव प्रशंसा को प्राप्त होते
है। गीता में श्रीकृष्ण जी महाराज कहते है कि – यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्। यज्ञो दानं
तपश्चैव पावनानि मनीषिणम्।।९ यज्ञ, दान तथा तप इन
तीन सत्कर्मों को कदापि नहीं छोड़ना चाहिए। यज्ञ, दान, तप मनुष्यों को
पवित्र व पावन बनाने वाले हैं। श्रद्धा
एवं सामथ्र्य से दान के सत्य स्वरूप को जानकर किया गया दान लोक-परलोक दोनों
में ही कल्याण करने वाला होता है। जब यदि मन में धन संग्रह की प्रवृत्ति जागृत हो
गई तो समझो वो अपने मुख्य उद्देश्य को छोड़कर अन्यत्र किसी अन्य लक्ष्य की ओर
आकृष्ट हो गया है। इसीलिए कहा गया है कि- वृत्तिसप्रोचमन्विच्छेन्नेहेत
धनविस्तरम्। धनलोभे प्रसक्तस्तु ब्राह्मण्यादेव हीयते।।१॰ ब्राह्मण को भी अपनी
आवश्यकता पूर्ति लायक धन ही दान स्वरूप लेना चाहिए। धन-संग्रह का लोभ नहीं करना
चाहिए। अब यह जानने की आवश्यकता है कि दान में कौन-सी वस्तु देनी चाहिए। जब हम
वैदिक वाङ्मय में निहारते है तो हमें ज्ञात होता है कि – जिस व्यक्ति को जिस समय, जिस वस्तु की आवश्कता हो, उसे उस समय उसी वस्तु का दान देना चाहिए। दान की यदि कोई
सच्ची पात्रता है तो वो है जिसे यथोचित समय पर यथोचित पदार्थ मिले, जैसे कोई भूखा हो तो उसे भोजनादि से तृप्त करना
चाहिए, प्यासे को पानी पिलाना
चाहिए, वस्त्रहीन को वस्त्र देने
चाहिए, रोगी को ओषधी देनी चाहिए,
विद्याभ्यासी को विद्या का दान कराना चाहिए
इत्यादि परन्तु लिप्सता नहीं होनी चाहिए। इसी प्रसंग में एक दृष्टांट उद्धृत कर
रहा हूं- एक दिन एक व्यक्ति महात्मा गाॅंधी के पास अपना दुखडा लेकर पहुंचा। उसने
गांधी जी से कहा-बापू! यह दुनिया बड़ी बेईमान है।
आप तो यह अच्छी तरह जानते हैं कि मैंने पचास हजार रूपये दान देकर धर्मशाला
बनवायी थी पर अब उन लोगों ने मुझे ही उसकी प्रबन्धसमिति से हटा दिया है। धर्मशाला नहीं थी तो कोई नहीं था, पर अब उस पर
अधिकार जताने वाले पचासों लोग खड़े हो गये हैं। उस व्यक्ति की बात सुनकर
बापू थोड़ा मुस्कराये और बोले-भाई, तुम्हें यह
निराशा इसलिये हुई कि तुम दान का सही अर्थ
नहीं समझ सके। वास्तव में किसी चीज को देकर कुछ प्राप्त करने की आकांक्षा दान नहीं
है। यह तो व्यापार है। तुमने धर्मशाला के लिये दान तो दिया, लेकिन फिर तुम व्यापारी की तरह उससे प्रतिदिन लाभ की उम्मीद
करने लगे। वह व्यक्ति चुपचाप बिना कुछ बोले वहां से चलता बना। उसे दान और व्यापार
का अन्तर समझ में आ गया। अब हमें यह जानना चाहिए कि दान कैसे करना चाहिए इसके लिए
तैत्तिरीयोपनिषद् में अवलोकन करते हैं कि ‘श्रद्धया देयम्। अश्रद्धया देयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्।११
जो कुछ भी दान में दिया जाये श्रद्धापूर्वक दिया जाना चाहिए । क्योंकि बिना
श्रद्धा के किये हुए दान असत् माना गया है- अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च
यत्। असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।१२ श्रद्धा पूर्वक देना चाहिये
क्योंकि सारा धन तो उस परमपिता परमेश्वर का ही है। इसलिए उनकी सेवा में धन लगाना
मेरा कर्तव्य है। जो कुछ मैं दान कर रहा हूं वह थोड़ा है, इस संकोच से दान देना चाहिये। अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार
देना चाहिये। भय के कारण भी दान देना चाहिए परन्तु जो कुछ भी दिया जाय विवेकपूर्वक
निष्काम भाव से कर्तव्य समझ कर देना चाहिए। ‘दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे’१३ इस प्रकार दिया
गया दान परमपिता परमेश्वर को प्राप्त करने में अर्थात् मोक्ष प्राप्त करने में
सहायक बन जाता है। कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि यज्ञ, दान आदि पुण्ययुक्त कर्मों को करने से हम दरिद्र हो जाते है,
हमारा धन, वैभव समाप्त हो जाता है तो मैं उन लोगों से कहना चाहॅंुगा
कि दान करने से धन एवं विद्या की निरन्तर वृिद्ध होती है, क्योकि शास्त्रों में कहा गया है कि- मूर्खो हि न
ददात्यर्थानिह दारिद्रî शंकया।
प्राज्ञस्तु विसृजत्यर्थानमुत्र तस्य ननु शंकया।।१४ अर्थात् दान देने से धन समाप्त
हो जाऐगा या दरिद्रता आयेगी यह तो मूर्खों की सोच होती है। मूर्ख लोग दरिद्रता की
आशंका में वशीभूत होकर दान न देकर पुण्य से वंचित रहते है और सदैव दुखों को भोगते
रहते हैं। अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा। अनुग्रहश्च दानं च शीलमेतत्
प्रशस्यते।। दरिद्रता को दूर करने का अमोघ शस्त्र है दान। दरिद्रता आदि दुःखों से
दूर रहने का यहीं एकमात्र साधन है। दानशील पुरुष या स्त्री किसी भूखे, प्यासे, तिरस्कृतों का पालन-पोषण करके उन्हे तृप्त करते है तो वो
सदा प्रसन्नता को प्राप्त करते है। वे सदा ही अपने जीवन में आनन्दित रहते है। दानं
भोगो नाशस्तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य। यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया
गतिर्भवति।।१५ धन की तीन गतियां होती है – दान, भोग और नाश। जो व्यक्ति
धन का दान व भोग नहीं करता उसकी तीसरी गति अर्थात् नाश होती है। हमारे शास्त्रों
में धन की सबसे अच्छी गति दान है। दान देने से हमारा धन पात्र के पास पहुंच गया और
उसकी जरुरी आवश्यकता पूर्ण हो गई। इसीलिए यह श्रेष्ठ गति है। अगर हम दान न देकर
उसका भोग करेंगे तो आवश्यक-अनावश्यक कर्मों में व्यय होगा। यदि खर्च ही नहीं
करेंगे तो तीसरी गति अर्थात् नाश को प्राप्त होगा। जैसे-जूए में हार जाना, चोरी हो जाना आदि। अतः सर्वोत्तम गति दान ही
सिद्ध होती है। क्योंकि दान के माध्यम से
अत्यन्त आवश्यकता वाले के उद्देश्य की पूर्ति होती है। इसप्रकार दान देना हमारा
कर्तव्य कर्म है-यह समझकर देना चाहिए। जहां जब एवं जिस वस्तु की आवश्यकता हो तब
दिया जाय एवं देश, काल तथा
परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए सुपात्र को ही दिया जाये। सन्दर्भ सूची:- १.
ऋग्वेद-३.२४.५। २. ऋग्वेद-१.१२५.६। ३. ऋग्वेद-१॰.११७.४। ४. ऋग्वेद-५.५१.१५। ५.
ऋग्वेद-१॰.१८.२। ६. याज्ञ.स्मृ.आ.२॰॰। ७. याज्ञ.स्मृ.आ.२॰१। ८. वेद। ९. गीता-१८.५।
१॰. कूर्मपुराण। ११. तैत्तिरीयोपनिषद्-१.११। १२. गीता-१७.२८। १३. गीता-१७.२॰। १४.
स्कन्दपुराण-२.६३। १५. पंचतन्त्र।
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हमारे यहाँ दान को बहुत बड़ा महत्व दिया गया है। अपनी आमदनी का एक अंश दान के रूप में खर्च करना अनिवार्य माना है। हमारे पूर्वज मनीषियों ने दान का धर्म के साथ अटूट सम्बन्ध जोड़कर उसे आवश्यक धर्म-कर्तव्य घोषित किया था। दान की बड़ी-बड़ी आदर्श गाथाएं हमारे साहित्य में भरी पड़ी हैं और आज भी हम किसी न किसी रूप में दान की परम्परा को निभा रहे हैं। गरीब से लेकर अमीर, सभी अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार कुछ-न कुछ दान करते ही हैं। मानो दान देना हमारे स्वभाव का एक अंग ही बन गया हो।
लेकिन अन्य परम्पराओं की तरह ही दान की परम्परा में भी दोष उत्पन्न हो गये हैं। दान का सदुपयोग न होकर दुरुपयोग अधिक होने लगा है। दान के पीछे जो श्रद्धा, सद्भावना, त्याग तथा सदुपयोग की वृत्ति होनी चाहिये, उसकी जगह कई विकृतियों ने लेली है। दान क्यों करना चाहिए, दान किसे देना चाहिये, कैसे देना चाहिये, यह बहुत ही कम लोग जान पाते हैं। गीताकार ने दान की व्याख्या करते हुए कहा है-
दातव्यति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे कालेच पात्रे च तद्दानं सात्विकं स्मृतं॥
यत्ततु प्रत्युपकारार्थं फलर्मुाद्दश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्॥
अदेशेकाले यद्दानमात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥
“दान देना मनुष्य का कर्तव्य है, ऐसा जानकर बिना बदले की भावना से देश, काल, पात्र का ध्यान रखकर जो दान दिया जाता है वह सात्विक दान है।”
क्लेश पाकर या बदले की भावना से किसी कामना पूर्ति के लिये दिया जाने वाला राजसिक दान है।
जो दान बिना सत्कार के, देश-काल-पात्र का ध्यान रखे बिना, उपेक्षा या तिरस्कार के साथ दिया जाता है, वह तामसिक दान है।
व्यवहारिक क्षेत्र में भी दान के पीछे मुख्यतया तीन भावनायें निहित होती है। एक दान वह जो श्रद्धा से प्रेरित होकर किसी सामर्थ्यवान यथा-विद्वान, तपस्वी जननेता, देशसेवक, वैज्ञानिक, कलाकार आदि को दिया जाता है। इसमें श्रद्धा ही मुख्य होती है। दूसरे प्रकार का दान दया प्रेरित होकर दीन-हीन सामर्थ्य-विहीन लोगों को दिया जाता है। तीसरे प्रकार का दान अहंकार से प्रेरित होकर अपनी दानशीलता की ड्योढ़ी पिटवाने के लिये, नाम यश खरीदने के लिए, किसी लाभ के लिए, बड़ा बनने के लिए दिया जाता है।
अब हम देख सकते हैं कि हमारे समाज में दान की क्या स्थिति है? दान का उत्कृष्ट स्वरूप बहुत कुछ विलुप्त होता जा रहा है और उसके स्थान पर राजसिक, तामसिक दान की बाढ़-सी आ गई है और वह उसी तरह समाज के अंग नहीं लग पाता, जिस तरह अतिसार के रोगी को दिया जाने वाला भोजन। एक ओर गुलाब की खेती सूखी जा रही है और दूसरी ओर हम काँटे, झाड़-झंखाड़ों को सींच रहें हैं। दान के नाम पर कैसी विडम्बना व्याप्त है।
सच तो यह है कि दान के पीछे दातापन की भावना ही न होनी चाहिए। यह एक जीवन का स्वाभाविक कर्तव्य है। कालिदास ने कहा है।
“अदानं हि विसर्गाय सताँ वारिमुचामिव।”
“जैसे बादल पृथ्वी पर से जल लेकर फिर पृथ्वी पर ही वर्षा देते हैं, उसी तरह सज्जन जिस वस्तु का ग्रहण करते हैं, उसका त्याग भी कर देते हैं।” समाज में , संसार में से ही हमने संग्रह किया है, प्राप्त किया है, तो उसे समाज के लिए, संसार के लिए त्याग भी कर देना होगा। कितना सहज आधार है दान का । फिर “मैं दान कर रहा हूँ” ऐसा कहने का अधिकार भी कहाँ रह जाता है।
विनोबा के शब्दों में “दान के मानी फेंकना नहीं वरन् बोना है।” समाज के धरातल पर दान एक प्रकार की खेती है। जो दिया जाता है, वह परिपक्व होकर समाज की उन्नति, कल्याण, विकास में सहायक होना चाहिए। दान से समाज का शरीर पुष्ट होना चाहिए, तभी वह दान है। अन्यथा दान के नाम पर अपने धन, सम्पत्ति साधनों को नष्ट करना है, व्यर्थ गँवाना है। ज्ञान-दान में लीन, विद्वान, परोपकार में लीन, कर्मवीर, ज्ञानवृद्धि में सहायक तत्वज्ञानी, अनेकों जन-सेवकों के अभावों की पूर्ति करना समाज को ही भोजन देना है। इन परमार्थकारियों को दिया गया दान खेत में बोये गए बीज की तरह कई गुना होकर समाज को ही मिल जाता है।
विनोबा ने कहा है “तगड़े और तन्दुरुस्त आदमी को भीख देना, दान करना, अन्याय है। जो दान अनीति और अधर्म को बढ़ाता है, वह दान नहीं वह तो अधर्म ही है। विवेकशील लोग अनुमान लगा सकते हैं कि इस तरह की अन्धदान प्रवृत्ति के कारण समाज में बहुत से लोगों ने भीख माँगकर, दान के ऊपर ही गुजारा करने का जन्म सिद्ध अधिकार-सा मान लिया है। हमारे देश में भिखमंगों की एक जमात-सी खड़ी हो गई है, जिनका पेशा ही दान लेना और उससे मौज करना बन गया है।
देश और समाज के लिये, जनकल्याण के लिए गरीब जरूरत मन्द लोगों की सहायता के लिए, लोकसेवी परमार्थरत सज्जनों की अभावपूर्ति के लिए हृदय खोलकर दान दीजिए। लेकिन जिन्होंने दान लेना अपना पेशा बना लिया है, जो दान के माध्यम से अपने लिए धन जायदाद एकत्र कर रहे हैं, जो दान के पैसे से खूब मौज गुलछर्रे उड़ाते हैं, तरह-तरह की बदमाशियाँ करते हैं, उन्हें एक फूटी कौड़ी भी न दें। अन्यथा धन नाश के साथ-साथ आपको अनेकों पापों का भागी बनना पड़ेगा, यह ध्रुव सत्य है।
बहुत से लोग किसी मन्दिर धर्मशाला में कुछ रुपया देकर अपने नाम का पत्थर लगाने में, किन्हीं धर्म संस्थाओं को कुछ धन देकर अपना नाम पत्र पत्रिकाओं, सभा समितियों में रोशन कर लेने को ही दान समझते हैं। कुछ लोग अपनी कामनापूर्ति का दाव सफल हो जाने पर दान का पुण्य लूटते हैं। कई लोग अपनी खुशामद कराकर, अपनी दान-वीरता, धर्मशीलता के गुणगान के लिए दान करते हैं। यह तो एक तरह का व्यापार है, जहाँ दान के बदले यश, नाम, कीर्ति, कामनापूर्ति, अपनी खुशामदगिरी, सेवा-चाकरी खरीदी जाती है।
ईसामसीह ने कहा था-”तुम्हारा दायाँ हाथ जो देता है उसे बाँया हाथ भी न जान पाये।” किसी को आपके सहयोग सहायता की आवश्यकता है, कोई जरूरतमंद-अभावग्रस्त, परेशान है तो चुपचाप उसकी सहायता कर दीजिए कि दान लेने वाला भी न जान पाए। इसीलिए गुप्त दान को सर्वोपरि माना गया है। स्मरण रहे दान के बदले यदि आपको तुरन्त ही कोई लाभ मिल गया, चाहे वह नाम, यश, कीर्ति या सामाजिक महत्व ही क्यों न हो तो आपके दान का भी मूल्य गिर गया। शास्त्रकारों ने श्रेष्ठ दानी उसे ही बताया है जो बिना माँगे और बिना प्रकट किए हुए ही दान करता है।
बहुत से लोग दूसरों को दीन-हीन,गरीब असहाय, मानकर दान करते हैं, मानो वे दूसरों के साथ बड़ा उपकार कर रहें हों। लेकिन इस तरह का भेदभाव दान की पवित्रता सात्विकता को नष्ट कर देता है। अहसान, बड़प्पन जताकर, दूसरे को निम्न कोटि का समझकर, उपेक्षा या तिरस्कार के साथ दिया गया दान तामसिक दान है। दूसरे लोग भी आपकी ही तरह समाज के एक अंग हैं। यह ठीक है कि अपने प्रयत्न या संयोगवश साधन संपत्ति आपके पास एकत्र हो गई है, लेकिन वह सम्पूर्ण समाज की, धरती की ही तो है। आवश्यकता पड़ने पर समाज को लौटा देने में आपको गर्व, बड़प्पन की भावना नहीं रखनी चाहिए।
आपका दान समाज के लिए जितना उपयोगी होगा, उतनी ही उसकी पवित्रता, सात्विकता बढ़ेगी और पात्र के साथ-साथ आपका भी कल्याण सध सकेगा। सोच समझकर पात्र और उसकी आवश्यकता को देखकर, उपयोगिता को समझकर, बिना किसी, लाग लपेट के शुद्ध हृदय से दान दीजिए और समाज का भला कीजिए।
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भारत में सबसे अधिक पुरानी, आज भी प्रासंगिक, सर्वाधिक लाभप्रद व सत्य मूल्यों पर आधारित धर्म व संस्कृति ‘‘वैदिक धर्म व संस्कृति” ही है। महाभारत काल के बाद अज्ञान व अंधविश्वास उत्पन्न हुए और इसका नाम वैदिक धर्म से बदल कर हिन्दू धर्म हो गया। हम सभी हिन्दू परिवारों में उत्पन्न हुए और हमने महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज द्वारा प्रदर्शित वेदोक्त मार्ग का अनुसरण कर वेदाध्ययन किया और वेदों से पुष्ट मान्यताओं को ही अपनाया है। व्रत-उपवास, तप, तीर्थ व दान आदि का वैदिक स्वरुप आज भी काफी विकृत है। इनका सत्यस्वरुप बताना ही इस लेख की विषय वस्तु है जिसका उल्लेख कर रहे हैं। पहले व्रत व उपवास क्या हैं, इसको जानने का प्रयत्न करते हैं। व्रत के विषय में यजुर्वेद में एक मन्त्र आता है-‘ओ३म् अग्ने व्रतपते चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्। इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि।’ मन्त्र का अर्थ है कि ‘हे सत्य धर्म के उपदेशक, व्रतो के पालक प्रभु मैं असत्य को छोड़कर सत्य को ग्रहण करने का व्रत लेता हूं। आप मुझे ऐसा सामर्थ्य दो कि मेरा यह असत्य को छोड़ने और सत्य को ग्रहण व जीवन में धारण करने का व्रत सिद्ध व सफल हो अर्थात् मैं अपने इस व्रत को पूरा कर सकूं व सत्य के पालन में खरा उतरूं।’ यही व्रत करने वा रखने का वैदिक स्वरूप है। किसी सांसारिक मनोकामना की पूर्ति के लिए किसी विशेष दिन अन्न, जल आदि के त्याग का नाम व्रत नहीं है। पति या पत्नी की प्रसन्नता के लिए उससे सद्व्यवहार करने का संकल्प लेना तथा उसे निभाना भी व्रत है। रोगग्रस्त का उचित उपचार करवाना भी व्रत है। इसी प्रकार काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि के त्याग का संकल्प लेकर उनका पालन करना ही व्रत कहलाता है। व्रत एक प्रकार का संकल्प होता है। इसे सत्य गुणों की धारणा करना भी कह सकते हैं। यदि व्रत, संकल्प या धारणा कर ली है तो फिर उसे मन, वचन व कर्म से पूरा करने का यथाशक्ति प्रयास करना ही व्रत है।
तप का स्वरूप भी आजकल काफी बिगड़ा हुआ है। महर्षि दयानन्द जी ने लिखा है कि धर्म के आचरण करने में जो कठिनाईयां आती हैं उसे सहन करना, पीडि़त न होना और सत्य पालन में स्थिर रहना ही तप है। तप विद्या का पढ़ना व पढ़ाना, सज्जनों का संग करना, ईश्वर की उपासना, ब्रह्मचर्य का पालन तथा दीन दुःखियों की सेवा आदि परोपकार कर्म करते हुए जो-जो कष्ट आएं उन्हें सहते जाना परन्तु सत्कर्म से पीछे न हटना ही तप है। कुछ लोग तप के नाम पर अकारण ही अपने शरीर को अनेक कष्ट देते हैं। गर्म चिमटे से अपने शरीर को दागते हैं, महीनों खड़े रहते हैं जिससे टांगों में खून उतर आता है और वे सूजकर बहुत कष्ट देती हैं, शीतकाल में सिर पर सैकड़ों घड़े ठण्डे पानी के डलवाते हैं, सिर के बालों को कैंची से काटने की बजाए हाथ से नोचते हैं, इत्यादि। ये सब क्रियाएं न तप हैं, न धर्म। अपितु यह पाप और हिंसा हैं। बहकावा और धोखाधड़ी हैं।
तीर्थ के बारे में भी हमारे लोगों में भ्रम हैं। सच्चा तीर्थ क्या होता है इसका सामान्य लोगों को तो क्या हमारे धर्म पुरोहितों तक को ज्ञान नहीं है। जो उपाय व कार्य मनुष्यों को दुःखसागर से पार उतारते हैं उन्हें तीर्थ करते हैं। विद्या-ग्रहण, सत्संग, सत्य भाषण, पुरुषार्थ, विद्यादान, जितेन्द्रियता, परोपकार, योगाभ्यास, शालीनता आदि शुभ गुण तीर्थ हैं क्योंकि इनको करके जीव दुःख के सागर से पार हो सकता है। ऐसा करके मनुष्य दुःखों से बचता भी है और इन गुणों के धारण करने से जीवन यशस्वी व सुखी बनता है। हर की पैड़ी आदि किसी जल या किसी प्रसिद्ध मन्दिर व स्थल आदि का नाम तीर्थ नहीं है। किसी समय हरिद्वार, काशी, प्रयाग, मथुरा, द्वारका आदि स्थानों पर अथवा गंगा के किनारे ऋषियों, मुनियों, योगियों और तपस्तियों के आश्रम रहे होंगे। गृहस्थी लोग उनके पास सत्संग के लिए जाया करते होंगे तथा उनके सद् उपदेशों व मार्गदर्शन के अनुसार आचरण करके अपने जीवनों को सुधारते व संवारते होगें। मांस, शराब, व्यभिचार, बेईमानी आदि बुराइयों का त्याग करते होंगे। इस कारण से इन स्थानों का नाम तीर्थ स्थान पड़ गया होगा। आजकल ऐसे स्थानों पर जाकर कोई लाभ नहीं होता अपितु समय व धन की बर्बादी के साथ कई प्रकार की हानियां ही होती है। अतः विवेकपूर्वक जल व स्थल को तीर्थ न मानकर वेदों के स्वाध्याय, सत्पुरूषों को दान, उनकी संगति, विद्या अध्ययन व प्रचार, असत्य का खण्डन व सत्य का मण्डन करना चाहिये। ऐसे कार्यों को करके ही मनुष्य जीवन उन्नत होता है। इसके विपरीत कर्म व कार्य करने से कोई लाभ नहीं होता। अतः मिथ्या कार्यों से बचना चाहिये।
दान का स्वरूप भी आजकल काफी बिगड़ गया है। दान अपने स्वामित्व की वस्तु व धन को दूसरे सुपात्रों को बिना अपनी किसी स्वार्थ भावना के दूसरों के हित के लिए देने को कहते हैं। कुपात्रों को धन व अन्य सामग्री का देना दान नहीं कहलाता। वेदों के अनुसार विद्या दान को सभी दानों में श्रेष्ठ माना गया है। गरीब, रोगी, अंगहीन (अपाहिज), अनाथ, कोढ़ी, विधवा या कोई भी जरूरतमन्द, विद्या और कला कौशल की वृद्धि, गोशाला, अनाथालय, हस्पताल आदि दान के लिए सुपात्र हैं। अथर्ववेद में कहा है ‘न पापत्वाय रासीय’ अर्थात् मैं पाप कर्म के लिए कभी दान न दूं। महाभारत में युधिष्ठिर जी कहते हैं कि ‘धनिने धनं मा प्रयच्छ। दरिद्रान्भर कौन्तेय’ अर्थात् हे युधिष्ठिर धनवानों को धन मत दो, दरिद्रों की पालना करो। वैदिक विद्वान श्री कृष्णचन्द्र गर्ग जी ने लिखा है कि ‘भरे पेट को रोटी देना उतना ही गलत है जितना स्वस्थ को औषधि । रोटी भूखे के लिए है और औषधि रोगी के लिए। समुद्र में हुई वर्षा व्यर्थ है। सृष्टि में ईश्वर का ऐसा नियम है कि जो कोई किसी को जितना सुख पहुंचाता है ईश्वर के न्याय से उतना ही सुख उसे भी मिलता है। इसलिए दान का उद्देश्य प्राणियों को अधिक से अधिक सुख पहुंचाना होता है।’ कठोपनिषद् में लिखा है कि ‘ऐसा दान जिसके लेने से लेने वाले को सुख न मिले, उस दान के देने से देने वाले को भी आनन्द नहीं मिलता।’ तैत्तिरीय उपनिषद में एक उपदेश में कहा गया है कि ‘श्रद्धया देयम्। अश्रद्धया देयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्। सविदा देयम्।’ अर्थात् यदि दान देने में श्रद्धा है तो दान देना, यदि श्रद्धा नहीं भी है तो भी दान देते रहना। संसार में यश पाने के ख्याल से दान देना। दूसरे लोग दान दे रहे हैं उन्हें देखकर लज्जावश भी दान देना। इस भय से भी दान देना कि यदि नहीं दूंगा तो परलोक न सुधरेगा, कमाया हुआ धन भी सार्थक न होगा। इस विचार से भी दान देते रहना कि गुरु के सामने प्रतिज्ञा की थी कि दान दूंगा। दान विषयक मनुस्मृति का प्रसिद्ध श्लोक है – ‘सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते। वार्यन्नगोमहीवासस्तिलकांचनसर्पिणाम्।’ यह श्लोक बताता है कि संसार में जितने दान हैं अर्थात् जल, अन्न, गौ, पृथिवी, वस्त्र, तिल, सुवर्ण, धृत आदि, इन सब दानों से वेद विद्या का दान अति श्रेष्ठ है। महर्षि दयानन्द के अनुसार बिना कुछ किए अपने निर्वाह अर्थ दूसरों से धन या पदार्थ लेना दान नहीं कहलाता, यह नीच कर्म है।
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भीख :- भीख सिर्फ भीख है और यह सिर्फ भिखारी को सहायता के
रूप मे दया स्वरूप दी जाती है इसे दान भी नही कहा जा सकता क्यूंकी दान का भी एक
निश्चित उद्देश्य होता है परंतु भीख का कोई उद्देश्य नही होता । भीख देने के लिए
किसी की योग्यता-अयोग्यता भी नही देखी जाती भीख तो बस दे दी जाती है । भीख देने की
बाद यह भी नही सोचा जा सकता की इसे लेकर क्या वह कोई अच्छा कार्य करेगा य यूं ही
इसे उड़ा दिया जाएगा ।
भिक्षा :- भिक्षा
देने के उद्देश्य होते है भिक्षा लेने वाले सदा य आशा की जाती है की व इसे लेकर
सभी के हिट के लिए कार्य करेगा या फिर
स्वयं का जीवन यापन करेगा और पूरी तरह सभी के हित के लिए समर्पित रहेगा .
वेदिक काल मे
भिक्षा ब्राह्मणो द्वारा ली जाती थी ताकि वे सामान्य व सादा जीवन जी सकें और उन्हे
अपने पेट भरने के लिए कोई भी कार्य न करना जिससे वे अपनी शारीरिक शुद्धी पर पूरा
ध्यान दे सकें और वेदाध्यन यज्ञ विध्यार्थियों को निशुल्क शिक्षा आदि कार्य कर
सकें । भिक्षा के लिए योग्यता की आवश्यकता जरूर है सभी के हित के उद्देश्य से भेंट
पाने की इच्छा भिक्षा कहलाती है । बहुत बड़ा अंतर है भीख और भिक्षा मे ।
दान:- दान को भीख
आदि के समान कहना निश्चय ही मूर्खतापूर्ण है दान मे भी भिक्षा के ही समान लक्षण
होते हैं परंतु अंतर इतना होता है कि दान देने वाला इन्ही सब कारणो व लक्षणो आदि
को ध्यान मे रखते हुये स्वयं जाकर इच्छित स्थान पर , समय मे या व्यक्ति
को दान देता है दान के कई प्रकार हैं
परंतु एसा कोई भी प्रकार नही जिससे भीख और भिक्षा मे समानता महसूस हो
वास्तव मे धर्म
क्या है इसको आज समझना जरूरी है हम मनुष्य हैं और हमे अपना सुख और स्वार्थ न देखते
हुये धर्म , जिसे हमारे
पूर्वजों ने धर्म बताकर नियमों और परंपराओं मे प्रतिष्ठित कर दिया है उसका पालन
करना ही मनुष्य का उत्तरदायित्व है ।
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