जब भी लोकतांत्रिक अधिकारों को कुचलने की कोशिश हुई, हमारी न्यायपालिका ने नागरिकों का पक्ष लिया है। मुंबई उच्च न्यायालय का ताजा फैसला इसी परिपाटी के अनुरूप है। युवा कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को जनलोकपाल आंदोलन के दौरान वर्ष 2011 में देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किए जाने के मामले की सुनवाई करते हुए न्यायालय ने कहा कि हर नागरिक को सरकार से असहमत होने, उसकी नीतियों और फैसलों की आलोचना करने का हक है, जब तक उसका इरादा हिंसा भड़काना या सार्वजनिक शांति भंग करना न हो। त्रिवेदी को जिन सात कार्टूनों के कारण मुंबई पुलिस ने उस वक्त गिरफ्तार किया था, उन पर कुछ सत्तारूढ़ राजनीतिकों ने एतराज जताया था। पर इसी से वह कोई गुनाह नहीं हो जाता। अदालत ने कहा है कि इन कार्टूनों में कुछ कमियां हो सकती हैं, पर यह कला का विषय है, कानून-व्यवस्था का नहीं। इसी के साथ उच्च न्यायालय ने मुंबई पुलिस को ऐसे मामलों की छानबीन करने का निर्देश दिया है जिनमें मामूली आरोपों को देशद्रोह का रूप दे दिया गया हो। त्रिवेदी की गिरफ्तारी के तीन दिन बाद ही अदालत ने उन्हें जमानत दे दी थी। और अब उन्हें निर्दोष ठहराते हुए पुलिस-प्रशासन को फटकार लगाई है। जनलोकपाल आंदोलन के दौरान केंद्र में भी कांग्रेस की अगुआई वाली सरकार थी और महाराष्ट्र में भी। लेकिन भारतीय जनता पार्टी का रवैया भी उससे अलग नहीं है। जनवरी में ग्रीनपीस की कार्यकर्ता प्रिया पिल्लई को दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड््डे पर रोक दिया गया, यह कह कर कि उनके विरुद्ध ‘लुकआउट सर्कुलर’ जारी है। आमतौर पर ऐसा सर्कुलर उन अपराधियों के खिलाफ जारी किया जाता है जिन्हें फरार घोषित किया गया हो। इसके बाद संबंधित व्यक्ति को देश से बाहर जाने की इजाजत नहीं होती। प्रिया पिल्लई को इसलिए रोका गया कि वे मध्यप्रदेश में एक खनन परियोजना से स्थानीय लोगों पर पड़ने वाले कुप्रभाव के बारे में ब्रिटेन के कुछ सांसदों को बताने के लिए लंदन जा रही थीं। मोदी सरकार की निगाह में यह राष्ट्र-विरोधी कृत्य था। क्या सरकार की किसी नीति या फैसले से असहमत होना और दुनिया को उससे अवगत कराना देश के खिलाफ काम करना है? फिर हमारे लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों का क्या मतलब रह जाता है? इमरजेंसी के विरुद्ध कई भारतीयों ने विदेश में मुहिम चलाई थी। उसके बारे में भाजपा क्या कहेगी? असीम त्रिवेदी के मामले में जैसा फैसला मुंबई उच्च न्यायालय ने सुनाया है वैसा ही प्रिया पिल्लई के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने। पिल्लई के मामले में भी अदालत ने यही कहा कि असहमति जाहिर करना कोई गुनाह नहीं है, यह अभिव्यक्ति की आजादी का हिस्सा है। चौतरफा हुई आलोचनाओं के जवाब में मोदी सरकार ने अपनी सफाई में दो तर्क पेश किए थे। एक यह कि प्रिया पिल्लई के विदेश दौरे से देश की छवि खराब होती। दूसरे, विदेशी निवेश पर बुरा असर पड़ता। विचित्र है कि पर्यावरण का सवाल उठाने वाली एक महिला के नागरिक अधिकार का हनन करने से देश की छवि खराब नहीं होती! यह भी कम अजीब नहीं है कि विदेशी निवेश के कोण से देशभक्ति को परिभाषित किया जाए। भाजपा ने खुदरा क्षेत्र को एफडीआइ के लिए खोलने के यूपीए सरकार के फैसले का विरोध किया था। तब उसने एफडीआइ को राष्ट्रीय हितों से क्यों नहीं जोड़ा? लोकतंत्र का मतलब केवल चुनाव नहीं होता, यह भी होता है कि नागरिक अधिकारों पर आंच न आए।
http://www.jansatta.com/editorial/jansatta-editorial-aalochna-ka-haq/21304/
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