आलोचना या
समालोचना किसी वस्तु/विषय की, उसके लक्ष्य को
ध्यान में रखते हुए, उसके गुण-दोषों
एवं उपयुक्ततता का विवेचन करने वाली साहित्यिक विधा है।
हिंदी आलोचना की
शुरुआत १९वीं सदी के उत्तरार्ध में भारतेंदु युग से ही मानी जाती है।
कबीरदास ने भी
निंदक को नियरे रखने की बात कही है, इससे पता चलता है कि व्यक्तित्व में निखार लाने के लिए, रचना में निखार के लिए आलोचना का बहुत महत्व है|
आलोचना- किसी
कृति या रचना के गुण-दोषों का निरूपण या विवेचन करना।
समालोचना-
साहित्यिक कृतियों के गुण-दोष विवेचन करने की कला या विद्या।
सरल शब्दों में
हम यह कह सकते हैं कि जब हम किसी बात को साधारण तरीके से कहें तो कथ्य और कलात्मक
तरीके से कहें तो कविता या कहानी होती है वैसे ही|
जब से समाज बना,
सभ्यता का विकास होने लगा, लेखन की ओर ध्यान जाने लगा तो अपनी अपनी सोच या
सामाजिक परिस्थिति क के अनुसार साहित्य की रचनाएँ सामने आने लगीं| उन रचनाओं एवं विचारों से सबका सहमत होना जरूरी
नहीं था| इस तरह से साहित्य में
गुण-दोष विवेचन की प्रवृति जन्म लेने लगी और आलोचना की जरूरत महसूस हुई जिससे
नकारात्मकता पर अंकुश लगाई जा सके|
आधुनिक आलोचक डॉ
श्यामसुन्दर दास के अनुसार, “साहित्यिक
क्षेत्र में ग्रन्थ को पढ़कर उसके गुण-दोष का विवेचन करना और उसके सम्बन्ध में
अपना मत प्रकट करना आलोचना कहलाता है। यदि हम साहित्य को व्याख्या मानें तो आलोचना
को उस वयाख्या की व्याख्या मानना पड़ेगा।’’
आलोचना की इस
परिभाषा पर किसी को आपत्ति नहीं होगी। संस्कृत शब्द ‘आलोचना’ का शब्दार्थ है -
‘गुण-दोष का विवेचन’,
‘परख’ या ‘समीक्षा’। पाश्चात्य और संस्कृत आलोचना पद्धतियों में
सुन्दर सामंजस्य स्थापित करते हुए हिन्दी की आधुनिक आलोचना शुरु हुई।
आलोचना और
समीक्षा पर्याय ही हैं, समीक्षा में बात
रोचक तरीके से रखी जाती है जिसमें आलोचक का अपना मत भी शामिल होता है कि रचना की
बेहतरी के लिए और क्या किया जा सकता है|
दूसरे शब्दों में
हम कह सकते है आलोचना वह कर सकता है जिसे उस विधा की व्याकरणीय सम्यक जानकारी हो
किन्तु समीक्षा वही कर सकता है जिसे व्याकरणीय जानकारी तो हो ही ,साथ ही वह स्वयं भी उस विधा विशेष में पारंगत
हो
आलोचना अथवा
समीक्षा के मूलतः दो भेद हैं - साहित्यिक एवं वैज्ञानिक समीक्षा।
साहित्यिक
समीक्षा में आलोच्य पुस्तक पर आलोचक निजी अनुभूतियों एवं धारणाओं को कलात्मक शैली में
प्रस्तुत करते हैं, जबकि वैज्ञानिक
समीक्षा में आलोचक आलोच्य पुस्तक का प्रामाणिक विश्लेषण करते हैं और संतुलित
निर्णय देते हैं।
वर्गीकरण के आधार
पर हिन्दी समालोचना के दो वर्ग हो सकते हैं - सैद्धान्तिक तथा व्यवहारिक।
1. सैद्धांतिक
आलोचना-"...युगीन साहित्य के आधार पर साहित्य.संबंधी सामान्य सिद्धांतों की
स्थापना का प्रयास किया जाता है...। "मानविकी पारिभाषिकी कोश, साहित्य खंड, पृ.65)
2. व्यवहारिक
आलोचना-जब सिद्धांतों के आधार पर साहित्य की समीक्षा की जाय, तो उसे व्यावहारिक आलोचना का नाम दिया जाता है।
व्यावहारिक आलोचना कर्इ प्रकार की हो सकती है-
व्यावहारिक
आलोचना कर्इ प्रकार की हो सकती है-
व्याख्यात्मक
आलोचना- गूढ़.गंभीर साहित्य.रचना के विषय, उसकी भाषा, शिल्प को
सरल.सुबोध भाषा में स्पष्ट करना।
जीवन चरितात्मक
आलोचना- किसी भी रचनाकार का साहित्य किसी न किसी रूप और किसी न किसी मात्राा में
उसके अपने जीवन, घटनाओं से
प्रभावित होता है। अतएव जीवन.चरितात्मक आलोचना में किसी रचनाकार की कृतियों का
उसके जीवन और विशिष्ट घटनाओं की पृष्ठभूमि में मूल्यांकन किया जाता है।
ऐतिहासिक
आलोचना-ऐतिहासिक आलोचना के अंतर्गत वे आलोचनाएँ आती हैं जिनमें किसी रचना का
मूल्यांकन रचनाकार की जाति, वर्ग और उसके
समाज के आधार पर किया जाता है। इस आलोचना.पद्धति का आरंभ प्रसिद्ध इतिहासकार तैन
ने किया था।
रचनात्मक आलोचना-
रचनात्मक आलोचना वह कहलाती है जब आलोचक किसी रचना या साहित्यकार के संपूर्ण
साहित्य को आधार बना कर आलोचना तो करता है किंतु वह आलोचना उस रचना या साहित्य की
मात्रा व्याख्या या स्पष्टीकरण नहीं होती बलिक पाठकों को वह आलोचना स्वतंत्रा रचना
का सा आनंद प्रदान करती है।
प्रभाववादी
आलोचना-प्रभाववादी आलोचना में आलोचक कृति को भूलकर उसके द्वारा उपन्न प्रभाव की
मार्मिक आलोचना करने में तत्पर होता है।-डा. नगेन्द्र
तुलनात्मक
आलोचना- जब किसी रचना या साहित्य की तुलना किसी अन्य रचनाकार, या किसी दूसरी भाषा के साहित्य से की जाए तो
तुलनात्मक आलोचना होती है।
सैद्धांतिक
आलोचना का विकास मध्यकाल में हो गया था। अकबर के दरबार में कुछ दरबारी कवियों ने
काव्य विवेचन में रसिकता को महत्त्व दिया। केशवदास के विवेचन में काव्य-शास्त्र की
शिक्षा देने की नियति थी। तत्पश्चात हिन्दी साहित्य में समीक्षा के जन्मदाता
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र दिखाई पड़ते हैं, जिन्होंने 1883 में ‘नाटक’ लिखकर हिन्दी साहित्य की आलोचना में एक नई शुरुआत की। तत्पश्चात समालोचना में
नव-विकास हुआ और आलोचना के स्वरूप में कई नए तत्त्वों के समावेश हुए। हिन्दी
समीक्षा गम्भीर होने लगी तथा अंग्रेजी समालोचना का प्रभाव पड़ने लगा।
ड्राइडन (1631-1700)
अंग्रेजी के प्रमुख गद्यकारों में थे। उनकी
आलोचना शैली सुलझी हुई और सुव्यवस्थित थी। वह चिंतन को सहज और तर्कसंगत अभिव्यक्ति
देते हैं।
समय के साथ साथ
हिन्दी आलोचना में भी तर्कसंगत स्पष्टता का प्रभाव दिखने लगा|
आलोचना का पुस्तकरूप
‘हिन्दी कालिदास की आलोचना’
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लिखी। उसी समय ‘नैषध-चरित चर्चा’, ‘विक्रम-चरित-चर्चा’ नामक पुस्तकें भी आईं। परन्तु आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा – इन पुस्तकों को एक मुहल्ले में फैली बातों को
दूसरे मुहल्लेवालों को परिचित कराने के प्रयत्न के रूप में समझना चाहिए, स्वतन्त्र आलोचना के रूप में नहीं। द्विवेदी जी
ने ‘कालिदास की निरंकुशता’
में निर्णयात्मक आलोचना प्रस्तुत की। हिन्दी
में वैज्ञानिक समालोचना के जन्मदाता आचार्य रामचन्द्र शुक्ल माने गए हैं। उनके समय
से हिन्दी समालोचना में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए। उन्होंने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’, ‘तुलसीदास’, ‘जायसी’, तथा ‘सूर’ पर समालोचना लिखकर इसे नया आयाम दिया, जो हिन्दी समालोचना का चरम माना गया। उन्होंने लेखकों और कवियों के मनोभावों
का सूक्ष्म निरीक्षण कर पूरे पाण्डित्यपूर्ण तरीके से आलोचना की एवं
अलंकार-शास्त्र को मनोवैज्ञानिक तरीके से प्रस्तुत किया।
आलोचना के मापदंड
समय, परिसिथति के अनुसार बदलते
रहे हैं। भारतीय काव्यशास्त्रों के विभिन्न संप्रदायों (रस, ध्वनि, अलंकार, वक्रोक्ति) के आचार्य इस विषय पर चर्चा करते
रहे हैं कि काव्य की आत्मा क्या हो? भक्तिकाल में अनुभूति काव्य की कसौटी रही तो रीतिकाल में चमत्कार ओर कलाकारी।
आधुनिक काल में सामजिक यथार्थ और उस की अभिव्यक्ति आलोचना का केन्द्र बनी। दृषिट,
विषय और अभिव्यä मिें बदलाव आया, सौंदर्य के प्रतिमान बदले, कविता छंदों के
बंधन से मुक्त हुर्इ और उसमें आंतरिक लय की खोज की जाने लगी। परंपरागत धीरोदात्त
नायकों और सुंदर.कोमल नायिकाओं का स्थान आम आदमी ने ले लिया, उसके संघर्षों में सौंदर्य दिखार्इ देने लगा।
तदनुसार आलोचना के मानदंड भी समय, सोच और परिसिथति
के अनुसार बदलते रहते हैं।
रचनाकार और आलोचक का सम्बन्ध गुरु -शिष्य जैसे
होना चाहिए |
आलोचना में कोई
भी पूर्वाग्रह नहीं होना चाहिये, ना तो लेखक की
तरफ से और ना ही आलोचक के दिमाग में।
रचनाकार को
आलोचना उतना ही स्वीकार करनी चाहिए जितना उसका दिल स्वीकार करे| आलोचक को भी धैर्यपूर्वक लेखक की बात समझना
चाहिए और उसे प्रतिष्ठा का विषय नहीं बनाना चाहिए|
अत्यधिक आलोचना
कभी कभी रचनाकार को हतोत्साहित भी कर देती है| ऐसी स्थिति से दोनो को बचना चाहिए|
आलोचकों को भाषा
शैली में दुरूहता, अस्पष्टता एवं
जटिलता से बचना चाहिए।
आलोचना हमेशा
स्पष्ट, निर्भीक एवं ईमानदार होनी
चाहिए।
अच्छे आलोचक के गुण
एक अच्छे आलोचक में इन गुणों का होना आवश्यक है- निष्पक्षता, साहस, सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण, इतिहास और वर्तमान का सम्यक ज्ञान, देशी-विदेशी साहित्य और कलाओं का ज्ञान, संवेदनशीलता, अध्ययनशीलता और मननशीलता। इन गुणों के अभाव में कोर्इ आलोचक किसी रचना के ऊपरी गुण-दोष तो रेखांकित कर सकता है, उसके अंदर तक पैठ पाने की क्षमता उसके पास नहीं होती। ऐसी पल्लवग्राही आलोचनाएँ न तो पाठकों को कोर्इ दिशा दे पाती हैं और न ही रचना के साथ न्याय कर पाती हैं।" ...निष्ट रचना उतनी हानिकारक नहीं होती जितनी एक निष्ट आलोचना।" [4]
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------
'उपलब्ध' आलोचना का कच्चा माल है।'अनुपलब्ध' आलोचना का मौलिक तत्व है। आलोचना में जनतंत्र का विकास तब होता है जब आलोचना 'अनुपलब्ध' की तरफ ध्यान देती है। परिवर्तनकामी विचारों को भविष्य में ले जाती है। परिवर्तनकामी विचारों को भविष्य की जरूरत होती है। संकीर्ण विचारों को अतीत की जरूरत होती है। जो आलोचना मूलगामी परिवर्तनकामी विचारों को भविष्य में ले जाती है वह आलोचना में जनतंत्र का विकास करती है साथ ही हाशिए के लोगों के साहित्य को भी सामने आने का अवसर देती है। आलोचना में लोकतंत्र का अर्थ है सामाजिक परिवर्तन के मूलगामी विचारों को भविष्य को सौंपना। हिन्दी आलोचना इस अर्थ में अधूरी है। इसने रेडीकल विचारों को भविष्य को सौंपने की बजाय अतीत के हवाले कर दिया है। हम नए विचारों की पुष्टि प्राचीन प्रमाणों से करते हैं। अभी भी पुराने से वैधता न मिले तो उसे हम स्वीकार नहीं करते। पुराना अभी भी वैध है,प्रामाणिक है। नए को प्रामाणिकता हासिल करनी है तो पुराने की शरण में लौटे। नए की जमीन वर्तमान है और उसका विकास भविष्य में होता है। हमें देखना होगा हमारी नयी आलोचना भविष्य की ओर जाती है अथवा अतीत की ओर। हिन्दी आलोचना की प्रधान चिन्ता है अतीत को अर्जित करने की। भविष्य को खोजना उसका लक्ष्य नहीं रहा है। सभी किस्म के रेडीकल विचारों के लिए भविष्य की जरूरत होती है,वैसे ही जैसे सभी किस्म की संकीर्ण राजनीति के लिए अतीत की जरूरत होती है। रेडीकल विचारों को भविष्य के लिए सौंपने का अर्थ है आलोचना में आत्मालोचना का विकास करना।
अच्छे आलोचक के गुण
एक अच्छे आलोचक में इन गुणों का होना आवश्यक है- निष्पक्षता, साहस, सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण, इतिहास और वर्तमान का सम्यक ज्ञान, देशी-विदेशी साहित्य और कलाओं का ज्ञान, संवेदनशीलता, अध्ययनशीलता और मननशीलता। इन गुणों के अभाव में कोर्इ आलोचक किसी रचना के ऊपरी गुण-दोष तो रेखांकित कर सकता है, उसके अंदर तक पैठ पाने की क्षमता उसके पास नहीं होती। ऐसी पल्लवग्राही आलोचनाएँ न तो पाठकों को कोर्इ दिशा दे पाती हैं और न ही रचना के साथ न्याय कर पाती हैं।" ...निष्ट रचना उतनी हानिकारक नहीं होती जितनी एक निष्ट आलोचना।" [4]
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------
'उपलब्ध' आलोचना का कच्चा माल है।'अनुपलब्ध' आलोचना का मौलिक तत्व है। आलोचना में जनतंत्र का विकास तब होता है जब आलोचना 'अनुपलब्ध' की तरफ ध्यान देती है। परिवर्तनकामी विचारों को भविष्य में ले जाती है। परिवर्तनकामी विचारों को भविष्य की जरूरत होती है। संकीर्ण विचारों को अतीत की जरूरत होती है। जो आलोचना मूलगामी परिवर्तनकामी विचारों को भविष्य में ले जाती है वह आलोचना में जनतंत्र का विकास करती है साथ ही हाशिए के लोगों के साहित्य को भी सामने आने का अवसर देती है। आलोचना में लोकतंत्र का अर्थ है सामाजिक परिवर्तन के मूलगामी विचारों को भविष्य को सौंपना। हिन्दी आलोचना इस अर्थ में अधूरी है। इसने रेडीकल विचारों को भविष्य को सौंपने की बजाय अतीत के हवाले कर दिया है। हम नए विचारों की पुष्टि प्राचीन प्रमाणों से करते हैं। अभी भी पुराने से वैधता न मिले तो उसे हम स्वीकार नहीं करते। पुराना अभी भी वैध है,प्रामाणिक है। नए को प्रामाणिकता हासिल करनी है तो पुराने की शरण में लौटे। नए की जमीन वर्तमान है और उसका विकास भविष्य में होता है। हमें देखना होगा हमारी नयी आलोचना भविष्य की ओर जाती है अथवा अतीत की ओर। हिन्दी आलोचना की प्रधान चिन्ता है अतीत को अर्जित करने की। भविष्य को खोजना उसका लक्ष्य नहीं रहा है। सभी किस्म के रेडीकल विचारों के लिए भविष्य की जरूरत होती है,वैसे ही जैसे सभी किस्म की संकीर्ण राजनीति के लिए अतीत की जरूरत होती है। रेडीकल विचारों को भविष्य के लिए सौंपने का अर्थ है आलोचना में आत्मालोचना का विकास करना।
आलोचना में लोकतंत्र का अर्थ अनालोचनात्मक ढ़ंग से सब कुछ स्वीकार कर लेना नहीं है।सबको संतुष्ट करना नहीं है। आलोचना में लोकतंत्र का अर्थ है आलोचना में आत्मालोचनात्मक विवेक पैदा करना। आलोचना की अवधारणाओं का सही प्रयोग करना। आलोचना के बृहत्तर सैध्दान्तिक प्रश्नों को उठाना। साहित्य और जीवन में सही और गलत का बोध पैदा करना। साहित्य और आलोचना को पारदर्शी बनाना। उसके आंतरिक तत्वों को ज्यादा लोचदार और पारदर्शी बनाना,पाठक को शिरकत का अवसर देना, असहमति को जगह देना। साहित्य और आलोचना के प्रति अभिरूचि पैदा करना। कृति ,कृतिकार और पाठक के बीच जनतांत्रिक संबंध बनाना।
No comments:
Post a Comment