Monday, May 9, 2016

नेता ही लोकतंत्र के नायक होते हैं

जब लोकतंत्र का जिक्र किया जाता है तो भारत का नाम शीर्ष पर होता है क्योंकि जितनी आजादी हमारे सरकार ने नागरिकों को दे रखी है, उतनी पूरे विश्व में आपको कहीं भी देखने को नहीं मिलेगी और यह बात हम बङे अच्छी तरह जानते हैं. लोकतंत्र को साधारण तौर पर हम आजादी कह सकतें हैं यानी कि बिना किसी भेदभाव के अपने बात को समाज में रखने की आजादी, किसी से भी मुलाकात करने की आजादी, खाने – पीने की आजादी, कहीं भी देश में भ्रमण करने की आजादी, शादी करने की आजादी इत्यादि जो कि प्रमुख हैं. हालांकि सुरक्षा व्यवस्था को लेकर जम्मू-कश्मीर, अरूणाचल प्रदेश यानि कि सीमावर्ती इलाकों ( राज्यों) में कुछ सख्त कानून हैं और यह कानून हमारे भलाई के लिए हैं तो इनके उदाहरण देकर हम लोकतंत्र पर आरोप नहीं लगा सकते लेकिन भारत सरकार ने इन विशेष कानून के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों को रोका नहीं है तो यह भी एक तरह से आजादी ही हुई. परन्तु सवाल यह नहीं है कि कहां आजादी हैं और कहां नहीं है जबकि सवाल अब यह आता है कि क्या हम वाकई में लोकतांत्रिक देश के जिम्मेदार व जागरूक नागरिक हैं? जवाब तो हमारे सामने है और हम एक सामान्य आदमी से लेकर उच्च स्तरीय जन समुदाय को देखते हैं तो लगता है कि नहीं हम सचमुच में अपने देश के प्रति वफादार नहीं है तो एक नजर डालते हैं उन बिन्दुओं पर जो कि लोकतंत्र का बस फायदा उठा रही हैं –
हमारा संविधान मुख्य रूप से जन कल्याण के लिए बना है. साधारण शब्द में कहे तो लोकतंत्र लोगों के लिए ही है जिसको भूतपूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने सरल व सुन्दर शब्दों में कहा ” लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा संचालित हैं”. हमारे संविधान में अनुच्छेद 19 (A) जो हमें विचार अभिव्यक्ति, सूचना पाने की स्वतंत्रता व प्रेस का स्वतंत्रता का अधिकार देता है लेकिन मौजूदा भारत के परिस्थितियों पर नज़र डालें तो यह दुरूपयोग हो रहा है और वह भी हमारे शिक्षित समाज के द्वारा जिनके ऊपर आम आदमी भरोसा करते हैं.
आधुनिक भारत के लेखकों की विचार अभिव्यक्ति
भारत इतिहास काल से ही साहित्य का धनी रहा हैं क्योंकि यह वह धरती हैं जहां पर महान नाटककार कालिदास, कथा सम्राट प्रेमचंद, राष्ट्रकवि दिनकर, रविंद्र नाथ टैगोर, कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी, मैथिलीशरण गुप्त, रहीम, कबीरदास ने राजतंत्र काल में भी माटी के लिए लिखा. आज का हमारा भारत अपने साहित्य को खोता जा रहा है क्योंकि हमने साहित्य को बाजार में उतार दिया है. आज के मौजूदा भारत ने लेखक व कवि के रूप को विकृत कर दिया है और जिसे हम लेखक और कवि कह कह कर सम्मानित कर रहे हैं वो सब बस शब्दों का व्यापार कर रहे हैं और गवईया भाषा में कहें तो शब्दों को चेप रहे हैं यानी कि दोधारी शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं अर्थात अश्लीलता को शालीनता का लिबास ओढ़ा रहे हैं और खुद को संवैधानिक नागरिक बता कर बच रहे हैं. उदाहरण के तौर पर युवाओं के चहेते चेतन भगत जिनकी किताब बस आकर्षण का केंद्र है क्योंकि फूहड़ता को सुन्दरता देनी जो आती है और इसके वजह से वास्तविक लेखन मरती जा रही हैं जिसके कारण साहित्य भी दम तोड़ रहा है तभी तो हमारे साहित्य के अनुपालक विदेशी, आज हमारे पुस्तकालयों में भरे हुए हैं और भारतीय लेखक पङे है किसी दराज के कोने में धूल से भरे हुए. शब्द सबसे ज्यादा प्रभावशाली होते हैं और इनके प्रभाव हम गुलामी के काल में देख चुके हैं. आज के लेखकों के पास अपने शब्द है ही नहीं तो फिर अभिव्यक्ति के अधिकार के आधार पर हम इन्हें लेखक का दर्जा कैसे दे रहे हैं.तो इस तरह फिर सोशल मीडिया पर लिखने वालों को भी लेखक का नाम दे देना चाहिए. केन्द्रीय विश्वविद्यालय के पी. एच. डी. स्काॅलर के अनुसार सिर्फ शब्द मैनेजर मात्र है आज के लेखक. जो सिर्फ बतफरोशी करना जानते हैं और इसमें गलती भी हम पाठकों की है क्योंकि जगह भी तो हमने दे रखी है. हम करें भी तो क्या क्योंकि ये सब खङे है अनुच्छेद 19के सहारे. शब्दों के बाजारीकरण ने हमारे साहित्य को ही नहीं बल्कि राजनीति के क्षेत्र को भी बदल दिया है.
नेता और अभिव्यक्ति का प्रयोग 
नेताओं के अडिग व अथक नेतृत्व ने ही हमें आजादी का उपहार दिया. नेता ही लोकतंत्र के नायक होते हैं. राजनीति के बिना लोकतंत्र की कल्पना करना ही व्यर्थ है और बिना राजनीति की लोकतंत्र को कायम रखना असम्भव है. लोकतंत्र में राजनीति के महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. लेकिन आज का हमारा नेतृत्वकारी समाज ही भटक गया है और अपनी महत्ता को भी भूल रहा है. आज के नेता शिक्षित व समाजिक रूप से विकसित हैं लेकिन विडंबना यह है कि सिर्फ पार्टी पक्ष ( हित) की भावना लेकर सिर्फ वोट के लिए शब्दों का इस्तेमाल हथियार के रूप में कर रहे हैं. बात अगर बीजेपी के सांसद आदित्य नाथ योगी, उमा भारती, आडवाणी, हैदराबाद के नेता ओवैसी, समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आजम खान, काँग्रेस के वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद इत्यादि की करें तो यह हर पल अपना बयान समाज के खिलाफ ही देते हैं लेकिन जब इनके ऊपर सवाल ऊठने लगते हैं तो बोलने की आजादी का अधिकार का प्रयोग कर खुद को बचा लेते हैं. इनके देखा देखी में आज हमारे देश के युवाओं में भी बिना सोंचे समझे बोलने की आदत पड़ गई है जिसका परिणामस्वरूप हम सोशल मीडिया पर देख रहे हैं और भारत में सोशल मीडिया बस गाली-गलौज का केंद्र बन गया है. एक बङा ही चिंतनीय सवाल यह उठता है कि जनतंत्र के रक्षक ही जब लोकतंत्र को लोभतंत्र में तब्दील कर रहे हैं तो फिर आम आदमी कहाँ जाएगा और फिर किस बात का लोकतंत्र व किस बात का अधिकार. देश को निर्देश व गति देने वाले ही जब दिशाविहीन हो रहें तो फिर उनका क्या जो सह चालक या सहयोगी हैं.
फिल्मों की अभिव्यक्ति 
19वीं सदी से मानव समाज ने फिल्म की दुनिया में कदम रखा और तेजी से पूरे विश्व में जङ बिछाने में कामयाब रही. आधुनिकीकरण का कुछ श्रेय फिल्म को भी माना जाता है क्योंकि फिल्म काल्पनिक व वास्तविक जीवन का सम्मिश्रण है. एक बात और गौर करने वाली है कि जो फिल्मी कलाकार बोल देते हैं उसका प्रभाव काफी तेजी से समाज में दिखने लगता है. इसीलिए अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर की कम्पनियाँ अपने प्रोडक्ट का विज्ञापन करवाती हैं और सरकार भी जागरूकता अभियान के लिए इनका ही चयन करती हैं तो इस आधार पर हम इनके समाजिक व आर्थिक योगदान को नकार नहीं सकते हैं. हालांकि यह बात सच है कि इसके लिए यह अपनी राशि भी लेते हैं क्योंकि केवल समाज सेवा से तो पेट नहीं भर सकता है. लेकिन तुलना अगर ग्रिफीत, चार्ली चैप्लिन, फाल्के साहब व आज के आधुनिक कलाकारों की करें तो देखने को मिल रहा है कि समाज से इनका कोई लेना-देना नहीं है, सिर्फ और सिर्फ यह व्यवसाय मात्र बन गया है. पहले की फिल्म राजतंत्र काल की होते हुए भी समाजिक उत्थान के लिए बनी जैसे कि द डिक्टेटर, द बर्थ आॅफ नेशन, गोल्डन रश, आलम आरा, हरिश्चंद्र दी फैक्टरी इत्यादि लेकिन आज तो बस गरीबी, गांव, मजदूरी, नारी अत्याचार को एक कहानी या काॅमेडी बना कर जनता से ही टिकट के माध्यम से पैसे वसूल किए जा रहे हैं. उदाहरण के तौर पर आप कपिल की काॅमेडी को ही देख लीजिए जो कि अपने परिवारिक कलाकारों के माध्यम से शुरू से लेकर अंत तक बस गरीबी व नारी का मजाक ही उङाते नजर आता है. अगर सार्वजनिक स्थानों पर कोई बोले ‘ ठोको, ठोको’ तो पता नहीं कितनी धुलाई होगी लेकिन पुरे दुनिया के सामने जब कपिल शर्मा व सिध्दू बोलते हैं तो हमें बहुत अच्छा लगता है क्योंकि साला – साली, कमीनी – कमीना, कुत्ते – कुत्ती, बास्टर्ड कहना – सुनना तो हमारी संस्कृति बन गई हैं और हम यह सब बोलना अपनी शान समझते हैं. हाँ, यह बात सही है कि कोई फिल्म व टीवी शो आलोचना का काम करते हैं ताकि समाज सबक ले. परन्तु आलोचना करने का मतलब यह नहीं है कि हम मान – मर्यादा को तोङ दे क्योंकि भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने कहा ” अनुशासन ही देश को महान बनाता है”. सबसे महान कलाकार चैप्लिन, जिन्होंने आलोचक का किरदार बखूबी निभाया और दुनिया को मानवता से जोड़ा क्योंकि मानव का पहला धर्म व कर्म है कि मानवीय मर्यादा को बरकरार रखना. चार्ली साहब ने भले ही पैसा कम कमाया लेकिन उनके फिल्म आज भी हमारे लिए एक संदेश दे रहे हैं कि शब्द व अभिव्यक्ति के महत्व को हमें समझ कर काम करने चाहिए.
अभिव्यक्ति स्वतंत्रता की स्वच्छता 
जब समाज के शिक्षित सम्मानित वर्ग ही आजादी को हथियार बना कर उपयोग करने लगे हैं तो बाकी अनुपालन करने वाले जनता की तो बात ही छोड़ दिया जाए. बोलने की स्वतंत्रता हमारी मानवाधिकार है और लोकतांत्रिक देश में संवैधानिक दर्जा दिया गया है. लोकतंत्र की गरिमा का यह पहला महत्वपूर्ण उपलब्धि है क्योंकि बोलने का हक़ ही सबसे बड़ी आजादी हैं तभी तो राजतंत्र में इसका प्रयोग रोका जाता था. आवाज के वजह से ही आवाम बनती हैं और आवाज के वजह से ही आवाम टूटता है इसलिए हमें इसका उपयोग सोच विचार कर के करना चाहिए और इसका जीता जागता उदाहरण हम जेसिका लाल हत्या कांड, निर्भया बलात्कार कांड, रोहित वेमुला जैसे केस में देख चुके हैं और दुसरे तरफ हमने यह भी देखा है कि चंद दोमुँहे बोल महाभारत व तमाम तरह के दंगों की वजह बनी हैं. लेकिन बङे ही शर्म की बात है कि तब भी हम अपनी बेलगाम जुबान पर लगाम नहीं लगा पाए हैं. आजादी का मोल तो उन शहीदों को पता है जिन्होंने खुद को मिटा कर हमें हमारे अधिकार दिलाएं है और हम हैं कि इन अधिकारों का उल्लंघन आए दिन करते जा रहे हैं क्योंकि हमें तो बस चिल्लाना आता है बस अपने फायदे के लिए. बात चाहे राजनीतिक दलों की हो या फिल्मी दुनिया की सभी लोग इस अधिकार का प्रयोग मात्र कर रहे हैं जिसके वजह से हमारे समाज से सुविचार का जन्म होना बंद हो गया है और देश का वर्तमान असमाजिक गन्दगी से दूषित हो रहा है तो फिर आप सोचिए कि भविष्य कैसा होगा? सकारात्मक सोच ही अविष्कार को पनपने देती है और गंदगी के माहौल से विकसित समाज की स्थापना करना नामुमकिन नहीं है लेकिन इतना तय है कि हम जल्द ही इतिहास में चलें जाएंगे. इसलिये अब यह जरूरी है कि समाज से असमाजिक बात विचार को फेंक दिया जाए नहीं तो यह निश्चित है कि हमसे यह अधिकार छिन लिए जाएंगे क्योंकि अधिकार राष्ट्र के भलाई के लिए दिए जाते हैं ना कि समाज को मिटाने के लिए. हाँ! यह बात तय है कि हम फिर इसका प्रयोग कर सङक पर हो हल्ला – नारेबाजी करेंगें, लेकिन एक बात सार्वभौमिक सच है ” अति सर्वत्र वर्जयते”. और अभी भी वक्त है सुधारने – सुधरने का ताकि तार्किक परिपक्वता आएं क्योंकि जरा विचार किजिये हमारे समाज व निजी जीवन पर की देश जो कि अभिव्यक्ति सागर में गोते लगा रहा है लेकिन यह पता नहीं कि जा कहां रहा हैं और किस ओर ले जा रहा है?

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