Friday, May 6, 2016

समाचार: सिद्धांत और अवधारणा – समाचार लेखन के सिद्धांत

पहले हमने पांच ‘डब्‍ल्‍यू’ और एक ‘एच’ यानी छह ककारों की चर्चा की है। दरअसल, समाचार लेखन में घटनाओं और इनसे संबंधित तथ्‍यों के चयन की प्रक्रिया का महत्‍वपूर्ण स्‍थान होता है। देश-दुनिया में रोज हजरों-लाखों घटनाएं घटती हैं लेकिन इनमें से कुछ ही समाचार बन पाती हैं। यूं तो हमने किसी घटना के सामचारीय होने के कारकों को भी जिक्र किया है लेकिन समाचार जगत की चयन की प्रक्रियाएं इतनी विविध, कठिन, और जटिल हैं कि उनके कारणों को स्‍पष्‍ट रूप से चिन्हित करना लगभग असंभव है।
समाचार लेखन के बारे में भी मौटे तौर पर हम यह कह सकते है कि जब हमे किसने, क्‍या, कब और कहां का उत्‍तर दे रहे होते हैं तो कहा जा सकता है कि यहां तथ्‍य ही केंद्र में हैं। हालांकि यहां इस बात का उल्‍लेख करना भी जरूरी है कि यह भी एक अहम मसला है कि एक पत्रकार किन त‍थ्‍यों का चयन करता हैं और किस आधार पर यह चयन किया जाता है। कौन सी अवधारणाएं और मूल्‍य तथ्‍यों के चयन की इस प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं।
लेकिन जब एक पत्रकार (या कोई भी) क्‍यों और कैसे उत्‍तर देताहै तो यहां समाचार लेखन में व्‍याख्‍या के तत्‍व का प्रवेश हो जाता है। चंद घटनाएं ऐसी होती हैं कि उनमें सपाट तथ्‍य होते हैं और संभव है कि ‘क्‍यों’ और ‘कैसे’ में भी दृष्टिकोण (परसेप्‍शन) में कोई भिन्‍नता न हो। लेकिन राजनीति, अर्थशास्‍त्र और समाज से संबंधित अनेक ऐसे मसले हैं जिनहें कोई भी व्‍यक्ति किसी तटस्‍थ स्‍थान से देख ही नहीं सकता क्‍यों कि ऐसा कोई तटस्‍थ स्‍थान होता ही नहीं है। वह एक मूल्‍यबोधके साथ ही इन मसलों को देखता है और उसकी निगाह स्‍वयं अपने दृष्टिकोण और मूल्‍यों के पूर्वाग्रहों से प्रभावित होती हे। कहा जाता है कि आमतौर पर हम पहले देखकर परिभाषित नहीं करते हैं बल्कि पहले हम परिभाषित करते हैं और फिर देखते हैं। इस तरह हर यथार्थ की एक छवि हमारे मस्तिष्‍क में होतीहैऔर हम इस यथार्थ को अपनी इस छवि के अनुरूप ही देखने पर अड़े हो सकते हैं।
इस तरह हम संक्षेप में कह सकते हैं कि सबसे पहले तो हजारों-लाखों घटनाओं में से चंद घटनाओं को समाचार के रूप से निर्धारित कर यह तय किया जाता है कि लोगों को किन मुद्दों के बारे में सोचना चाहिए अर्थात जो मुद्दे समाचार हैं वही ज्‍वलंत हैं और उन्‍हीं पर चर्चा और बहस होनी चाहिए। फिर इन समाचारों में ही तथ्‍यों का चयन और व्‍याख्‍या इस तरह से की जाती है कि उसके सबसे महत्‍वपूर्ण पहलुओं पर ही रोशनी डाली जा सकती है। इस तरह यह भी कहा जा सकता है कि मीडिया लोगों को यह भी बताता है कि उस विषय के बारे में किस तरह सोचना चाहिए। इसलिए समचारों के चयन और फिर समाचारों में शामिल किए जाने वाले तथ्‍यों के चयन में एक पत्रकार को इस बात से पूरी तरह से सचेत होना चाहिए कि इन दो कार्यों के कारण वह एजेंडा का निर्धारिण कर रहा है। समाज और देश के सामने उन ‘ज्‍वलंत मु्द्दों’ को पेश कर रहा है और इस पर कैसे सोचा जाए यह भी बता रहा है। लेकिन इस पर कैसे सोचा जाए यह भी बता रहा है। लेकिन इस प्रक्रिया में अगर लोगों के वास्‍तविक मसलों और मीडिया के मसलों के बीच खाई अधिक चौड़ी होगी, तो मीडिया और समाचार अपनी साख खो बैठेंगे। साख को बचाना समाचार लेखन का सर्वोत्‍तम सिद्धांत है। समाचारों की साख को बनाए रखने के लिए निम्‍नलिखित सिद्धांतों का पालन करना जरूरी है।
  • यथार्थता (Accuracy)
  • वस्‍तुपरकता (Objectivity)
  • निष्‍पक्षता (Fairness)
  • संतुलन (Balance)
  • स्रोत (Sourcing-Attribution)
जैसी कि पहले चर्चा की गई है कि तथ्‍यों का चयन ही निर्धारित करता है कि समाचार यथार्थ का कैसा प्रतिबिंब कर रहे हैं। फिर जब हम इसकी व्‍याख्‍या कर रहे होते हैं तो स्‍वयं हमारे अपने मूल्‍य और प्राथमि‍कताएं भी घटना के, हमारे समाचारीय मूल्‍यांकन और प्रस्‍तुतीकरण को प्रभावित करती हैं। वे तथ्‍य हमें अधिक अधिक समाचारीय लगते हैं जो हमारे अपने दृष्टिकोण या परसेप्‍शन को झुठलाते हों उन्‍हें स्‍वीकार करने में हमें एक मानसिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है। यथार्थ से वास्‍ता पड़ने तथा स्‍वयं अपने अनुभव के साथ हमारे दृष्टिकोण भी बदलते हैं। इनका बदलना भी एक गतिशील प्रक्रिया है और एक प्रोफेसनल पत्रकार में तो यह गतिशीलता आवश्‍यक होती है। समाज के विभिन्‍न तबकों में इस गतिशीलता का स्‍तर भिन्‍न होता है। कुछ तबके परिवर्तन को आसानी से स्‍वीकार कर लेते हैं। और काफी रूढि़वादी हो सकते हैं जो अपने दृष्टिकोणको आसानी से परिवर्तित नहीं करते।
यथार्थता
एक आदर्श रूप में मीडिया और पत्रकारिता यथा‍र्थ का प्रतिबिंब मात्र हैं। इस तरह समाचार यथार्थ की पुनर्रचना करता है। वह अपने आप में एक जटिल प्रक्रिया है और आज तो यहां तक कहा जाता है कि समाचार संगठनों द्वारा सृजित यथार्थ की छविया भ्रम पैदा करती हैं। लेकिन सच यही है कि मानव यथार्थ की नहीं, यथार्थ की छवियों की दुनिया में रहता है। किसी भी यथार्थ के बारे में जो भी जानकारियां प्राप्‍त होती हैं उसी के अनुसार हम उस यथार्थ की एक छवि अपने मस्‍तिष्‍क में बना लेते हैं और यही छवि हमारे लिए वास्‍तविक यथार्थ का काम करती है। एक तरह से हम सूचना सृजित छवियों की दुनिया में रहते हैं।
संचार के प्रारंभ से ही ऐसा होता आया है। जो कुछ भी मानव ने देखा नहीं है और जिसके होनेका उसे अहसास है उसके बारे में एक सूचना छवि उसके पास होती है। दरअसल, यथार्थ को उसकी संपूर्णता में प्रतिबिंबित करने के लिए आवश्‍यक है कि ऐसे तथ्‍यों का चयन किया जाए जो इसकी संपूर्णता का प्रतिनिधित्‍व करते हैं। समाचार में हम किसी भी यथार्थ को उसके बारे में अत्‍यंत सीमित चयनित सूचनाओं और तथ्‍यों के माध्‍यम से ही सृजित करते हैं। इसलिए यह अत्‍यंत महत्‍पूर्ण हो जाता है कि किसी भी विषय के बारे में समाचार लिखते वक्‍त किन सूचनाओं और तथ्‍यों का चयन करते हैं। चुनौती यही है कि ये सूचनाएं और तथ्‍य केंद्रीय हों और संपूर्ण विषय का प्रतिनिधित्‍व करते हों अर्थात तथ्‍यों का प्रतिनिधित्‍वपूर्ण होना अत्‍यंत आवश्‍यक है।
इस संदर्भ में एक भारतीय लोक कथा तथ्‍यात्‍मकता और सत्‍यात्‍मकता को काफी अच्‍छे ढंग से उजागर करती है। छह अंधे और एक हाथी की कहानी। छह अंधों में बहस छिड़ गई कि हाथी कैसा होता है और फिर उन्‍होंने इस बहस को खत्‍म करने के लिए स्‍वयं हाथी को छूकर यह तय करने का निश्‍चय किया कि हाथी कैसा होता है। एक अंधे ने हाथी के पेट को छुआ और कहा यह “दीवार की तरह है।“ दूसरे ने उसके दांत को छुआ और कहा “नहीं यह तलवार की तरह है।” तीसरे के हाथ उसकी सूढ़ आई और उसने कहा “यह तो सांप की तरह है।“ चौथे ने उसका पैर छुआ और चिल्‍लाया तुम पागल हो “यह पेड़ की तरह है।” पांचवें को हाथी का कान हाथ आया और उसने कहा, “तुम सब गलत हो यह पंखे की तरह है।” छठे अंधे ने उसकी पूंछ पकड़ी और बोला, “बेवकूफों हाथी दीवार, तलवार, सांप, पेड़, पंखे में से किसी भी तरह का नहीं होता यह तो एक रस्‍सी की तरह हैं।” हाथी तो गया और छह अंधे आपस में लड़ते रहे। हरेक अपने ‘तथ्‍यों’ के आधार पर हाथी की अपनी ‘छवि’ पर अडिग था।
तथ्‍य या सूचनाएं जो हर अंधे ने छूकर प्राप्‍त किए वे अपने आप में सच थे हाथी का कान पंखे जैसा होता है लेकिन हाथी तो पंखे जैसा नहीं होता। इस तरह हम कह सकते हैं कि तथ्‍य अपने आप में तो सत्‍य ही होते हैं लेकिन अगर किसी संदर्भ में उनका प्रयोग किया जा रहा हो तो उनका पूरे विषय के संदर्भ में प्रतिनिधित्‍वपूर्ण होना आवश्‍यक है। उसी स्थिति में तथ्‍य यथा‍र्थ की सही तस्‍वीर प्रतिबिंबित कर पाएंगे। इसके अलावा समाचार और उनके यथा‍र्थ को ले‍कर काफी कुछ कहा और लिखा गया है। कैनेथ ब्रुकने तो १९३५ में कहा था कि किसी एक पहलू पर केंद्रित होने का मतलब दूसरे पहलू की अनदेखी भी है। समाचार लेखन के संदर्भ में अपने आप को इन तथ्‍यों की सत्‍यता के दायरे में नहीं बांध सकते जो अपने आप में सत्‍य ही होते हैं बल्कि हमार सामने चुनौती होती हैं सत्‍यपूर्ण तथ्‍यों के माध्‍यम से संपूर्ण यथार्थको प्रतिबिंबित करने की।
एक नस्‍ली, जातीय या धार्मिक हिंसा की घटना का समाचार कई तरह से लिखा जा सकता है। इसे तथ्‍यपरक ढंग से इस तरह भी लिखा जा सकता है कि किसी एक पक्ष की शैतान की छवि सृजित कर दी जाए और दूसरे पक्ष को इसके कारनामों का शिकार। इस घटना से किसी भी एक पक्ष को अधिक उजागर कर एक अलग ही तरह की छवि का सृजन किया जा सकता है। फिर इस घटना में आम लोगों के दु:ख-दर्दों को उजागर कर इस तरह की हिंसा के अमानवीय और जघन्‍य चेहरे को भी उजागर किया जा सकता है। एक रोती विधवा, विलखते अनाथ बच्‍चे या तो मात्र विधवा और अनाथ बच्‍चे हैं जिनकी यह हालत जातीय या धार्मिक हिंसा ने की या फिर ये इसलिए विधवा और अनाथ हैं क्‍योंकि ये किसी खास जाति या धर्म में हैं। इस तरह समाचार को वास्‍तव में यथार्थ के करीब रखने के लिए एक पत्रकार को प्रोफेशनल और बौद्धिक कौशलमें एक स्‍तर का महारथ हासिल करना जरूरी है। इस तरह की तमाम घटनाओं को सतह पर नहीं एक व्‍यापक परिप्रेक्ष्‍य में रखकर इनका मूल्‍यांकन करना पड़ेगा। वरना, प्रतिनिधित्‍वपूर्ण तथ्‍यों का चयन करना मुश्किल हो जाएगा।
वस्‍तुपरकता
वस्‍तुपरकता को भी इस तरह की तथ्‍यपरकता से ही आंकना आवश्‍यक है। जैसी कि पहले ही चर्चा की गयी है कि हम किस घटना का समाचार के रूप में चयन करते हैं और दूसरा इस घटना से संबंधित ढेर सारे तथ्‍यों में से किन तथ्‍यों को समाचार गठन की प्रक्रिया में चयनित करते हैं या अस्‍वीकार करते हैं लेकिन उस प्रक्रिया में किस आधार पर और क्‍यों हम चंद तथ्‍यों को वस्‍तुपरक मान लेते हैं? वस्‍तुपरकता और यथा‍र्थता के बीच काफी समान क्षेत्र भी है लेकिन दोनों विचारों के अंतर को भी समझना जरूरी है। एक होते हुए भी ये दोनों अलग विचार हैं। यथार्थता का संबंध जहां अधिकाधिक तथ्‍यों से है वहीं वस्‍तुपरकता का संबंध इस बात से है कि कोई व्‍यक्ति तथ्‍यों को कैसे देखता है। किसी विषय के बारे में हमारे मस्तिष्‍क में पहले से सृजित छवियां हमारे समाचार मूल्‍यांकन की क्षमता को प्रभावित करती हैं और हम इस यथार्थ को इन छवियों के अनुरूप देखने का प्रयास करते हैं।
हमारे मस्तिष्‍क में अनेक मौकों पर इस तरह की छवियां वास्‍तविक भी हो सकती हैं और वास्‍तविकता से दूर भी हो सकती हैं। यह भी कहा जा सकता है कि जहां तक यथार्थता के चित्रण का संबंध मूल्‍यों से अधिक है। हमें ये मूल्‍य हमारे सामाजिक महौल से मिलते हैं। बचपन से ही हम स्‍कूल में, घर में, सड़क चलते हर कदम पल सूचनाएं प्राप्‍त करते हैं और दुनिया भर के स्‍थानों, लोगों, संस्‍कृतियों और सैकड़ों विष्‍यों के बारे में अपनी एक धारणा या छवि बना लेते हैं। वस्‍तुपरकता का तकाजा यही है कि किस हद त‍क हम इस छवि को वास्‍तविकता के सबसे करीब ले जा पाते हैं। कुछ सत्‍य ऐसे हैं जिन पर एक विश्‍वव्‍यापी सहमति हो सकती है लेकिन ऐसे तमाम सच तो हमारे दृष्टिकोण से निर्धारित होते हैं उन पर यह पैमाना लागू नहीं किया जा सकता। इस दृष्टि से दुनिया हमेशा सतरंगी और विविध रहेगी। इसे देखने के दृष्टिकोण भी अनेक होंगे। इसलिए कोई भी समाचार सबके लिए एक साथ वस्‍तुपरक नहीं हो सकता। एक ही समाचार किसी के लिए वस्‍तुपरक हो सकता है और किसी के लिए पूर्वाग्रह से प्रभावित हो सकता है।
हमें समाचार लेखन के हर सिद्धांत और अवधारणा के संदर्भ में बार-बार इस बात पर केंद्रित होना पड़ेगा कि देश और दुनिया भर की हजारों-लाखों घटनाओं से चंद घटनाओं को किस आधार पर समाचार योग्‍य माना जाता है और फिर समाचार योग्‍य माने जानी वाली घटनाएं जिस रूप में पाठकों या दर्शकों/श्रोताओं तक पहुंचती हैं तो इनमें किन तथ्‍यों का समावेश होता है? घटना के किन पक्षों को उछाला जाता है और किन पक्षों की अनदेखी की जाती है? ऐसा क्‍यों होता है और किया जाता है यह भी एक जटिल सवाल है। तात्‍कालिक तौर पर तो इसे इस पैमाने पर ही परखा जा सकता है कि किसी खास घटना के समाचार बनने और इसके किसी खास पक्ष को अहमियत मिलने से किसके हितों की पूर्ति होती है। हितों की पूर्ति का पैमाने का इस्‍तेमाल पत्रकारिता में अनेक रूझानों के मूल्‍यांकन के लिए किया जा सकता है।
निष्‍पक्षता
वैसे तो निष्‍पक्षता सीधे-सीधे अपना अर्थ व्‍यक्‍त करता है। लेकिन निष्‍पक्षता को तटस्‍थता के रूप में देखना पत्रकारिता के पेशे में एक गंभीर भूल होगी। पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्‍तंभ है। इसकी राष्‍ट्रीय और सामाजिक जीवन में अहम भूमिका है। इसलिए पत्रकारिता और समाचार सही और गलत, अन्‍याय और न्‍याय जैसे मसलों के बीच तटस्‍थ नहीं हो सकते बल्कि वे निष्‍पक्ष होते हुए सही और न्‍याय के साथ होते हैं।
जब हम समाचारों में निष्‍पक्षता की बात करते हैं तो इसमें न्‍यायसंगत होने का तत्‍व अधिक अहम होता है। आज मीडिया एक बहुत बड़ी ताकत है। एक ही झटके में यह किसी पर बट्टा लगाने की ताकत रखता है। इसलिए किसी के बारे में समाचार लिखते वक्‍त इस बात का विशेष ध्‍यान रखना होता है कि कहीं किसी को अनजाने में ही बिना सुनवाई के फांसी पर तो नहीं लटकाया जा रहा है। भ्रष्‍टाचार और इस तरह के आचारण के मामलों में इस बात का विशेष महत्‍व है। समाचार की वजह से किसी व्‍यक्ति केे साथ अन्‍याय न हो जाए, इसकी गारंटी करने के लिए निष्‍पक्षता की अहम भूमिका है।
इसका एक आयाम यह भी है कि किसी को भी संदर्भ से काटकर उद्धत न किया जाए। अनेक अवसरों पर यह देखा जाता है कि प्रमुख व्‍यक्तियों से काल्‍पनिक प्रश्‍न पूछे जाते हैं और उनके उत्‍तर ही समाचारों की डेडलाइन बन जाते हैं। एक काल्‍पनिक उदाहरण लें: किसी राजनीतिक दल में विभाजन के आसार नहीं हैं और इस दल के अध्‍यक्ष से पूछा जाता है “आप अपने दल में विभाजन को रोकने के लिए क्‍या उपाय कर रहे हैं?” स्‍वाभाविक तोर पर दल का अध्‍यक्ष इसका खंडन करेगा और अगले दिन अगर अखबार में सुर्खी हो “दल में विभाजन नहीं” तो पाठकों पर इसका क्‍या असर पड़ेगा? कहीं न कहीं उनके मस्तिष्‍क में यह बात तो आ ही जाएगी कि इस दल में ऐसा कुछ होने जा रहा था। यानि सब कुछ ठीक नहीं है। यह कहा जा सकता है कि इस तरह का समाचार लेखन निष्‍पक्ष नहीं है। यह तो एक बहुत सरल और काल्‍पनिक उदाहरण था लेकिन समाचारों की वास्‍तविक दुनिया में निष्‍पक्षता का पैमाना लागू करने के लिए अत्‍यंत पैनी नजर होना आवश्‍यक है। फिर, निष्‍पक्षता को यथार्थता, वस्‍तुपरकता, सूचना स्रोत और संतुलन से काटकर नहीं देखा जा सकता है।
संतुलन
निष्‍पक्षता की अगली कड़ी संतुलन है। आमतौर पर मीडिया पर आरोप लगाया जाता है कि समाचार कवरेज संतुलित नहीं है यानि यह किसी एक पक्ष की ओर झुका है। हम सामचार में संतुलन के सिद्धांत की बात करते है तो वह इस तरह के व्‍यापक संतुलन से थोड़ा हटकर है। आमतौरपर संतुलन की आवश्‍यकता वहीं पड़ती है जहां किसी घटना में अनेक पक्ष शामिल हों और उनका आपस में किसी न किसी रूप में टकराव हो। उस स्थिति में संतुलन का तकाजा यही है कि सभी संबद्ध पक्षों की बात समाचार में अपने-अपने समाचारीय वजन के अनुसार स्‍थान पाए।
समाचार में संतुलन का महत्‍व तब कहीं अधिक हो जाता है जब किसी पर किसी तरह के आरोप लगाए गए हों या इससे मिलती-जुलती कोई स्थिति हो। उस स्थिति में हर पक्ष की बात समाचार में अभिव्‍यक्‍त होनी चाहिए अन्‍यथा यह एकतरफा चरित्र हनन का हथियार बन सकता है। व्‍यक्तिगत किस्‍म के आरोपों में आरोपित व्‍यक्ति के पक्ष को भी स्‍थान मिलना चाहिए। लेकिन यह स्थिति तभी हो सकती है जब आरोपित व्‍यक्ति सार्वजनिक जीवन में है और आरोपों के पक्ष में पक्‍के सबूत नहीं हैं या उनका सही साबित होना काफी संदिग्‍ध है। अगर कोई “सार्वजनिक व्‍यक्तित्‍व” बलात्‍कार जैसा अपराध कर दे और मामला साफ-साफ सबके सामने हो तो पत्रकार को भी अपने विवेक से ही संतुलन के सिद्धांत का पालन करना पड़ेगा। कुख्‍यात अपराधियों का मामला इससे अलग है। संतुलन के नाम पर समाचार मीडिया इस तरह के तत्‍वों का मंच नहीं बन सकता जो कई मौकों पर देखने को मिलता है। कभी-कभार किसी समाचार से इस तरह के तत्‍वों को लाभ पहुंचता है। इसे रोकना भी जरूरी है।
संतुलन का सिद्धांत अनेक सार्वजनिक मसलों पर व्‍यक्‍त किए जाने वाले विचारों और दृष्टिकोणों पर तकनीकी ढंग से लागू नहीं किया जाना चाहिए। अनेक मसलों पर प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करने में राजनीतिक ढंग से लागू नहीं किया जाना चाहिए। अनेक मसलों पर प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करनेमें राजनीतिक पार्टियां समय लेती हैं। आशय यह है कि राजनीतिक आलोचना के विषयों पर संतुलन का सिद्धांत उस तरह लागू नहीं किया जाना चाहिए जैसा व्‍यक्तिगत आरोपों के मामले में किया जाना चाहिए। राजनीतिक संतुलन तत्‍काल या रोजमर्रा की चीज नहीं है बल्कि एक समाचार संगठन को अपने कवरेज की संपूर्णता में संतुलित होना चाहिए।
संसदीय और राज्‍य विधायिकाओं की रिपोर्टिंग में भी संतुलन का ध्‍यान रखा जाना चाहिए। एक लोकतांत्रिक समाज में समाचार माध्‍यकों को सभी तरह की राजीनतिक धाराओं के विचारों और विभिन्‍न मुद्दों पर उनके स्‍टैंड को प्रतिबिंबित करना चाहिए। इसके जरिए ही लोग प्रतियोगी राजनीति और इसमें भाग लेने वाली शक्तियों के बारे में सही और वैज्ञानिक समझ पैदा कर सकते हैं। संसद और विधयिकाओं में अनेक तरह के विचार व्‍यक्‍त किए जाते हैं और इन सबको संतुलित ढंग से प्रस्‍तुत करना आवश्‍यक है। लेकिन साथ ही यह भी ध्‍यान में रखा जाना चाहिए कि देश के राजनीतिक जीवन में हर दल की अपनी ताकत और हैसियत है। इस तरह के समाचारों में संतुलन कायम करते समय इसका भी ध्‍यान रखा जाना चाहिए। इसके अलावा सत्‍तापक्ष के नेताओं के कथन निश्‍चय ही अधिक महत्‍वपूर्ण होते हैं क्‍योंकि वे किसी न किसी रूप में सरकार की नीतियों को प्रतिबिंबित करते हैं जिसका असर सीधे लोगों के जीवन पर पड़ता है जबकि विपक्ष के नेताओं के कथन उनकी राय, आलोचना या सुझाव भर हैं। वे राज्‍य की नीति नहीं हैं।
स्रोत
हर समाचार में शामिल की गई सूचना और जानकारी का कोई स्रोत होना आवश्‍यक है। यहां स्रोत के संदर्भ में सबसे पहले यह स्‍पष्‍ट कर देना आवश्‍यक है कि किसी भी समाचार संगठन के समाचार के स्रोत होते हैं और फिर उस समाचार संगठन का पत्रकार जब सूचनाएं एकत्रित करता है तो उसके अपने भी स्रोत होते हैं। इस तरह किसी भी दैनि‍क समाचारपत्र के लिए पी.टी.आई. (भाषा), यू. एन. आई. (यूनीवार्ता) जैसी समाचार एजेंसियां और स्‍वयं अपने ही संवाददाताओं और रिपोर्टरों का तंत्र समाचारों का स्रोत होता है। लेकिन चाहे समाचार एजेंसी हो या समाचारपत्र इनमें काम करने वाले पत्रकारों के भी अपने समाचार स्रोत होते हैं। यहां हम एक पत्रकार के समाचार के स्रोतों की चर्चा करेंगे। आशय यह है कि समाचार के भीतर जो सूचनाएं और जानकारियां होती हैं उनका स्रोत क्‍या होता है और समाचार तथा स्रोत के अंतर्संबंधों का पत्रकारिता पर क्‍या प्रभाव पड़ता है।
समाचार की साख को बनाए रखने के लिए आवश्‍यक है कि इसमें शामिल की गई सूचना या जानकारी का कोई स्रोत हो और वह स्रोत इस तरह की सूचना या जानकारी देने योग्‍य समर्थ हो। कुछ बहुत सामान्‍य जानकारियां होती हैं जिनके स्रोत का उल्‍लेख करना आवश्‍यक नहीं है लेकिन जैसे ही कोई सूचना ‘सामान्‍य’ होने के दायरे से बाहर निकलकर ‘विशिष्‍ट’ होती है उसके स्रोत का उल्‍लेख आवश्‍यक है। स्रोत के बिना उसकी साख नही होगी। उसमें विश्‍वसनीयता नहीं होगी। एक समाचार में समाहित हर सूचना का स्रोत होना आवश्‍यक है और जिस सूचना का कोई स्रोत नहीं है उसका स्रोत या तो पत्रकार स्‍वयं है या फिर यह एक सामान्‍य जानकारी है जिसका स्रोत देने की आवश्‍यकता नहीं है।
आमतौर पर पत्रकार स्‍वयं किसी सूचना का प्रारंभिक स्रोत नहीं होता। वह किसी घटना के घटित होने के समय घटनास्‍थल पर उपस्थित नही होता। वह घटना घटने के बाद घटनास्‍थल पर पहुंचता है इसलिए यह सब कैसे हुआ इसके लिए उसे दूसरे स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है। अगर एक पत्रकार स्‍वयं अपनी आंखों से पुलिस फायरिंग में या अन्‍य किसी भी तरह की हिंसा में मरने वाले दस लोगों के शव देखता है तो निश्‍चय ही वह खुद दस लोगों के मरे का स्रोत हो सकता है। हालांकि इस बारे में कुछ लोग अलग सोच भी रखते हैं और उनका मानना है कि पत्रकार तो सूचना का वाहक भर है और हर सूचना का कोई स्रोत अवश्‍य होना चाहिए।
साभार: समाचार लेखन अवधारणा और लेखन प्रक्रिया, भारतीय जन संचार संस्‍थान, 2004

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