महानगरों में रहने वाले,बड़ी बड़ी तनख्वाह पाने वाले, ऊँचे नाम वाले पत्रकारों को कोई अचरज इन ख़बरों से हो तो हो हमें तो नहीं है। हो भी क्यूँ, जो बोया वही तो काट रहें हैं। वर्तमान में अखबार अखबार नहीं रहा एक प्रोडक्ट हो गया और पाठक एक ग्राहक। हर तीस चालीस किलोमीटर पर अखबार में ख़बर बदल जाती है। ग्राहक में तब्दील हो चुके पाठक को लुभाने के लिए नित नई स्कीम चलाई जाती है। पाठक जो चाहता है वह अख़बार मालिक दे नहीं सकता,क्योंकि वह भी तो व्यापारी हो गया। इसलिए उसको ग्राहक में बदलना पड़ा। ग्राहक को तो स्कीम देकर खुश किया जा सकता है पाठक को नहीं। यही हाल न्यूज़ चैनल का हो चुका है। जो ख़बर है वह ख़बर नहीं है। जो ख़बर नहीं है वह बहुत बड़ी ख़बर है। हर ख़बर में बिजनेस,सनसनी,सेक्स,सेलिब्रिटी,क्रिकेट ,या बड़ा क्राईम होना जरुरी हो गया। इनमे से एक भी नहीं है तो ख़बर नहीं है। पहले फाइव डब्ल्यू,वन एच का फार्मूला ख़बर के लिए लागू होता था। अब यह सब नहीं चलता। जब यह फार्मूला था तब अख़बार प्रोडक्ट नहीं था। वह ज़माने लद गए जब पत्रकारों को सम्मान की नजर से देखा जाता था। आजकल तो इनके साथ जो ना हो जाए वह कम। यह सब इसलिए कि आज पत्रकारिता के मायने बदल गए हैं। मालिक को वही पत्रकार पसंद आता है जो या तो वह बिजनेस दिलाये या फ़िर उसके लिए सम्बन्ध बना उसके फायदे मालिक के लिए ले। मालिक और अख़बार,न्यूज़ चैनल के टॉप पर बैठे उनके मैनेजर,सलाहाकार उस समय अपना मुहं फेर लेते हैं जब किसी कस्बे,नगर के पत्रकार के साथ प्रशासनिक या ऊँची पहुँच वाला शख्स नाइंसाफी करता है। क्योंकि तब मालिक को पत्रकार को नमस्कार करने में ही अपना फायदा नजर आता है। रिपोर्टर भी कौनसा कम है। एक के साथ मालिक की बेरुखी देख कर भी दूसरा झट से उसकी जगह लेने पहुँच जाता है।उसको इस बात से कोई मतलब नहीं कि उसके साथी के साथ क्या हुआ,उसे तो बस खाली जगह भरने से मतलब है। अब तो ये देखना है कि जिन जिन न्यूज़ चैनल और अख़बार वालों के रिपोर्टर्स के साथ बुरा सलूक हुआ है,उनके मालिक क्या करते हैं। पत्रकारों से जुड़े संगठनों की क्या प्रतिक्रिया रहती है। अगर मीडिया मालिक केवल मुनाफा ही ध्यान में रखेंगें तो कुछ होनी जानी नहीं। संगठनों में कौनसी एकता है जो किसी की ईंट से ईंट बजा देंगे। उनको भी तो लाला जी के यहाँ नौकरी करनी है। किसी बड़े लाला के बड़े चैनल,अखबार से जुड़े रहने के कारण ही तो पूछ है। वरना तो नारायण नारायण ही है।
बाजपेई साब अगर कोलकाता या महानगर की पत्रकार पर मुसीबत आती है तभी इसके संकट नज़र आते हैं क्या?कस्बो और छोटे शहरो मे रहने वाले पत्रकारो पर संकट क्या संकट नही होता?माफ़ किजियेगा मेरा ईरादा इस विषय पर आपसे असहमति जताने का नही है मगर इस पेशे की कुछ कड़वी सच्चाई शायद दिल्ली पहुंचते-पहुंचते मीठी हो जाती है।यंहा एक छोटे से इलाके का पत्रकार नवरतन बंग सबसे बड़ा होने का दवा करने वाले दैनिक भास्कर के लिये काम करता था।उसकी जंगल मे आग लगने की रिपोर्ट दैनिक भास्कर ने छतीसगढ के सभी संस्करणों मे प्रथम पृष्ठ पर सबसे बड़ी खबर के रूप मे प्रकाशित की और उसके बाद उस पत्रकार को फ़ारेस्ट रेंजर ने वन अधिनियम के तहत झूठे मामले मे फ़ंसा दिया जिसमे जमानत तक़ का प्रावधान नही है।वो दर-दर भटका यंहा राजधानी मे मेरे पास भी आया और हम लोगो से जो भी बन पड़ा हमने किया।ये अकेला मामला नही है।और भी हैं,खुद मेरे खिलाफ़ एक नही तीन-तीन दफ़ा 307 के तहत हत्या के प्रयास के झूठे मुकदमे दर्ज़ किये गये।मेरी नौकरी गई,व्यापार को तहस-नहस कर दिया गया।मै छोटे शहर या कस्बे का छोटा-मोटा पत्रकार नही था।क्या ये उस समय पत्रकारिता के लिये संकट नही था?एक वरिष्ठ और सारे छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश मे अपनी अलग पहचान रखने वाले पत्रकार राजनारायण मिश्र को साम्प्रदायिकता भडकाने के आरोप मे सीधे गिरफ़्तार कर जेल मे ठूंसने की तैयारी कर ली थी कांग्रेस की सरकार ने?क्या ये पत्रकारी के लिये संकट नही था?आज भी जब संपादको को मुख्यमंत्री के सामने हाथ जोड़े खड़े देखा जा सकता है?क्या ये संकत नही है?विज्ञापन के दबाव मे खबरों का दम तोडना,क्या संकट नही है?और भी बहुत सी बाते है बाजपेयी जी जो किसी दिन फ़ुर्सत मे बताऊंगा लेकिन मेरा ये कहना है कि पत्रकार,पत्रकार होता है चाहे वो कोलकाता का हो दिल्ली का हो या फ़िर छोटे से कस्बे का।संकट सब पर है और ये सवाल भी सबके लिये है,मगर चुनौतियां और खतरे छोटे इलाके के पत्रकारो पर ज्यादा है क्योंकी उनका कोई माई-बाप ही नही होता।ज्यादा मुसीबत आई तो अख़बार भी कह देता है कि वो हमारा कर्मचारी नही।क्या करोगे सारा सिस्टम ही सड़ा हुआ है।कोई बात अगर बुरी लगी हो तो माफ़ कर देना साब आप लोग बड़े पत्रकार हैं।
बाजपेई साब अगर कोलकाता या महानगर की पत्रकार पर मुसीबत आती है तभी इसके संकट नज़र आते हैं क्या?कस्बो और छोटे शहरो मे रहने वाले पत्रकारो पर संकट क्या संकट नही होता?माफ़ किजियेगा मेरा ईरादा इस विषय पर आपसे असहमति जताने का नही है मगर इस पेशे की कुछ कड़वी सच्चाई शायद दिल्ली पहुंचते-पहुंचते मीठी हो जाती है।यंहा एक छोटे से इलाके का पत्रकार नवरतन बंग सबसे बड़ा होने का दवा करने वाले दैनिक भास्कर के लिये काम करता था।उसकी जंगल मे आग लगने की रिपोर्ट दैनिक भास्कर ने छतीसगढ के सभी संस्करणों मे प्रथम पृष्ठ पर सबसे बड़ी खबर के रूप मे प्रकाशित की और उसके बाद उस पत्रकार को फ़ारेस्ट रेंजर ने वन अधिनियम के तहत झूठे मामले मे फ़ंसा दिया जिसमे जमानत तक़ का प्रावधान नही है।वो दर-दर भटका यंहा राजधानी मे मेरे पास भी आया और हम लोगो से जो भी बन पड़ा हमने किया।ये अकेला मामला नही है।और भी हैं,खुद मेरे खिलाफ़ एक नही तीन-तीन दफ़ा 307 के तहत हत्या के प्रयास के झूठे मुकदमे दर्ज़ किये गये।मेरी नौकरी गई,व्यापार को तहस-नहस कर दिया गया।मै छोटे शहर या कस्बे का छोटा-मोटा पत्रकार नही था।क्या ये उस समय पत्रकारिता के लिये संकट नही था?एक वरिष्ठ और सारे छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश मे अपनी अलग पहचान रखने वाले पत्रकार राजनारायण मिश्र को साम्प्रदायिकता भडकाने के आरोप मे सीधे गिरफ़्तार कर जेल मे ठूंसने की तैयारी कर ली थी कांग्रेस की सरकार ने?क्या ये पत्रकारी के लिये संकट नही था?आज भी जब संपादको को मुख्यमंत्री के सामने हाथ जोड़े खड़े देखा जा सकता है?क्या ये संकत नही है?विज्ञापन के दबाव मे खबरों का दम तोडना,क्या संकट नही है?और भी बहुत सी बाते है बाजपेयी जी जो किसी दिन फ़ुर्सत मे बताऊंगा लेकिन मेरा ये कहना है कि पत्रकार,पत्रकार होता है चाहे वो कोलकाता का हो दिल्ली का हो या फ़िर छोटे से कस्बे का।संकट सब पर है और ये सवाल भी सबके लिये है,मगर चुनौतियां और खतरे छोटे इलाके के पत्रकारो पर ज्यादा है क्योंकी उनका कोई माई-बाप ही नही होता।ज्यादा मुसीबत आई तो अख़बार भी कह देता है कि वो हमारा कर्मचारी नही।क्या करोगे सारा सिस्टम ही सड़ा हुआ है।कोई बात अगर बुरी लगी हो तो माफ़ कर देना साब आप लोग बड़े पत्रकार हैं।
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