दलितों को उत्पीड़न से बचाने के लिए कड़े कानून हैं. दलित विरोधी मानसिकता को काबू में करने के लिए अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति एक्ट के तहत कड़ी सजाओं का प्रावधान भी है. इसके बावजूद उत्पीड़न के मामलों में वृद्धि हो रही है.
दलितों का असहाय चेहरा जब तब सामने आता रहता है. इस साल के शुरूआती तीन महीनों मे ही दलित उत्पीड़न के सैकड़ों मामले सामने आए हैं. रविदास जयंती मना रहे दलितों के साथ मध्य प्रदेश के दमोह में मारपीट का मामला हो या हरियाणा के फरीदाबाद में पंचायत चुनाव में वोट न देने पर दलितों की पिटाई का, दबंगों ने कानून की धज्जियां उड़ाते हुए दलितों पर अत्याचार किया. उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में एक दलित परिवार की सिर्फ इसलिए पिटाई कर दी गयी क्योंकि उनमें से एक का हाथ भूलवश एक ब्राह्मण को छू गया था. इस परिवार में एक महिला गर्भवती भी थी. दो दिन पहले यूपी के कन्नौज में रेप के बाद एक दलित महिला को एसिड से नहला दिया गया. सबसे ताजा मामला राजस्थान के चित्तौड़गढ़ से सामने आया है जहां बाइक चोरी के आरोप में दलित बच्चों को नंगा करके पीटा गया. पूर्व केंद्रीय मंत्री सचिन पायलेट का कहना है कि दलितों पर अत्याचार के इस तरह के मामले लगातार सामने आ रहे हैं लेकिन सरकार इन्हें रोकने के पर्याप्त प्रयास नहीं कर रही है.
आत्म सम्मान पर चोट
देश में जातिगत भेदभाव की जड़ें बहुत गहरी हैं. सबसे अधिक प्रभावित दलित एवं कमजोर वर्ग है जो भेदभाव और तरह तरह के उत्पीड़न का शिकार है. किसी दलित के खाना बनाने से खाने को अपवित्र मानने वाले लोग भी मौजूद हैं. एक अनुमान के मुताबिक देश के 27 फीसदी से ज्यादा लोग किसी न किसी रूप में छुआछूत को मानते हैं.
हमेशा से होता रहा है उत्पीड़न
दलित समुदाय के लोगों को तरह तरह के अत्याचार सहने पड़ते हैं. अनुसूचित जाति से संबंध रखने वाले दिनेश वाहने का मानना है कि केंद्र में या राज्य में किसी भी पार्टी की सरकार रही हो, दलित उत्पीड़न के मामलों में कोई खास अंतर नहीं पड़ता. देश के कई जगहों पर मामूली सी गुस्ताखी पर दलितों को नंगा कर घुमाया जाता है या कभी उनका सिर मुंडवा दिया जाता है. मामूली सी बात पर दलित-कमजोर वर्ग के लोगों को पेड़ से बांधकर लटका दिए जाने की घटनाएं भी होती हैं.
उपाय
कानून तो है ही, लेकिन समाज जब तक पूरी तरह जागरूक नहीं होगा तब तक दलित उत्पीड़न को रोक पाना संभव नहीं होगा. दूसरा पहलू यह है कि शिक्षित, स्वावलंबी और आत्म-निर्भर होने पर ही दलित एवं कमजोर वर्ग के लोग सशक्त हो पाएंगे. कानून दलितों की सामाजिक हैसियत नहीं बढ़ा सकता है. संविधान निर्माता डॉक्टर बीआर अंबेडकर जाति-आधारित टकराव के लिए जाति व्यवस्था को जिम्मेदार मानते थे. जाति विहीन समाज के लिए उन्होंने अंतर्जातीय विवाह को बढ़ावा देने का आह्वान किया था. ऐसी स्थिति में जब राजनीतिक नेतृत्व इस समस्या का समाधान कर पाने में विफल रहा है, तब सामाजिक आंदोलन के जरिये ही दलितों को उत्पीड़न से बचाया जा सकता है.
"पुलिस और कानून व्यवस्था की बात अगर हम छोड़ दें तो बात करें इस तरह की घटनाओं को अंजाम देने वाले लोगों की मानसिकता की, तो क्या यही हमारी आधुनिकता है. क्या हमारी आधुनिक सोच हमें हैवान बनना सिखा रही है? क्या आधुनिकता का ये माहौल हमारे देश के युवाओं को भटका रहा है? क्या आधुनिक होने का मतलब हैवान होना है, तो इससे तो हम पिछड़े ही भले."
"जब कभी भी कहीं रेप होता है तो बात औरतों और लड़कियों के कपड़ों पर आ जाती है. उसे सेक्स कुंठा से उपजा मामला बता दिया जाता है. पर ये क्या पूरा सच है? नहीं, ये पूरा नहीं अधूरा सच भी नहीं है. वास्तव में औरत को संपत्ति बना दिया गया है. वह पति का, परिवार का और जाति का सम्मान बना दी गई है. वैसे ही जैसे किसी के खेत को कोई दूसरा हांक ले, या जानवर घुसा दे तो केवल नुकसान की बात नहीं होती, वह गांवों में सम्मान की बात भी बन जाती है और तुरंत फौजदारी होते देर नहीं लगती. परिवार के बाहर परिवार की औरत या लड़की परिवार का सम्मान है, लेकिन परिवार में या दूसरे परिवार की औरतें और लड़कियां पैरों की जूती भी हैं."
"पुलिस और कानून व्यवस्था की बात अगर हम छोड़ दें तो बात करें इस तरह की घटनाओं को अंजाम देने वाले लोगों की मानसिकता की, तो क्या यही हमारी आधुनिकता है. क्या हमारी आधुनिक सोच हमें हैवान बनना सिखा रही है? क्या आधुनिकता का ये माहौल हमारे देश के युवाओं को भटका रहा है? क्या आधुनिक होने का मतलब हैवान होना है, तो इससे तो हम पिछड़े ही भले."
"जब कभी भी कहीं रेप होता है तो बात औरतों और लड़कियों के कपड़ों पर आ जाती है. उसे सेक्स कुंठा से उपजा मामला बता दिया जाता है. पर ये क्या पूरा सच है? नहीं, ये पूरा नहीं अधूरा सच भी नहीं है. वास्तव में औरत को संपत्ति बना दिया गया है. वह पति का, परिवार का और जाति का सम्मान बना दी गई है. वैसे ही जैसे किसी के खेत को कोई दूसरा हांक ले, या जानवर घुसा दे तो केवल नुकसान की बात नहीं होती, वह गांवों में सम्मान की बात भी बन जाती है और तुरंत फौजदारी होते देर नहीं लगती. परिवार के बाहर परिवार की औरत या लड़की परिवार का सम्मान है, लेकिन परिवार में या दूसरे परिवार की औरतें और लड़कियां पैरों की जूती भी हैं."
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