गोविंद सिंह।
साहित्य और पत्रकारिता के बीच एक अटूट रिश्ता रहा है। एक ज़माना वह था जब इन दोनों को एक-दूसरे का पर्याय समझा जाता था। ज्यादातर पत्रकार साहित्यकार थे और ज्यादातर साहित्यकार पत्रकार। पत्रकारिता में प्रवेश की पहली शर्त ही यह हुआ करती थी कि उसकी देहरी में कदम रखने वाले व्यक्ति का रुझान साहित्य की ओर हो। लेकिन पिछले दो दशकों से इस रिश्ते में एक दरार आ गयी है। और यह दरार लगातार चौड़ी हो रही है। इसलिए आज की पत्रकारिता पर यह आरोप लग रहा है कि वह साहित्य की उपेक्षा कर रही है।
जब उसे साहित्य की जरूरत होती है, उसका खूब इस्तेमाल करती है, लेकिन जब उसका काम निकल जाता है, तब साहित्य की ओर मुड कर भी नहीं देखती। पत्रकारिता पर यह भी आरोप है कि उसका स्वरूप पहले की तरह स्पष्ट नहीं रह गया है। उसके मकसद को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं। उसमें अनेक स्तरों पर विखराव दिख रहा है तो कई स्तरों पर अराजकता भी लक्षित हो रही है। सवाल उत्पन्न होता है कि ये आरोप कहाँ तक सही हैं और यदि पत्रकारिता के पास उनका कोई जवाब है, तो वह क्या है?
कुछ लघु पत्रिकाओं ने साहित्य की मशाल जरूर जलाए राखी, लेकिन चूंकि उनका प्रसार बहुत कम होता है, इसलिए उसे हम हिन्दी समाज की मुख्य धारा पत्रकारिता की प्रवृत्ति के रूप में नहीं देख सकते। इंडिया टुडे, आउटलुक साप्ताहिक, आजकल, समयांतर, प्रथम प्रवक्ता, पब्लिक एजेंडा जैसी कुछ पत्रिकाएं अपने कलेवर और विषयवस्तु में कुछ भिन्न होते हुए भी कुछ हद तक साहित्य की परम्परा को बचाए हुए हैं, लेकिन मुख्यधारा की हवा एकदम विपरीत है।
इसकी सबसे बड़ी वजह शायद यह है कि हाल के वर्षों में मीडिया का अभूतपूर्व विस्तार हुआ है। इसमें कोई दो राय नहीं कि राष्ट्रीय एजेंडा निर्धारित करने में आज मीडिया की भूमिका कहीं बढ़ गयी है। आज वह केवल एक मिशन नहीं रह गया है। वह एक बड़े प्रोफेशन, बल्कि उद्योग में तब्दील हो चुका है। फिलहाल वह 10।3 अरब डॉलर का उद्योग है तो 2015 में वह 25 अरब डालर यानी सवा लाख करोड़ से अधिक का हो जाएगा। हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 600 से अधिक टीवी चैनल, 10 करोड़ पे-चैनल देखने वाले परिवार, 70,000 अखबार हैं। यहां हर साल ।,000 से अधिक फिल्में बनती हैं। जाहिर है इतने बड़े क्षेत्र को संभालना इतना आसान नहीं रह गया है। दुर्भाग्य यह है कि इसके लिए देश के पास कोई सुविचारित नीति भी नहीं है। इसलिए उसका एकरूप होना या किसी साफ़-सुथरी तस्वीर का न बन पाना अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन इस मसले को पूरी तरह से समझने के लिए एक नज़र भारतीय मीडिया की पृष्ठभूमि पर डालनी चाहिए।
आजादी से पहले हिन्दी पत्रकारिता के तीन चेहरे थे। पहला चेहरा था- आजादी की लड़ाई को समर्पित पत्रकारिता, दूसरा चेहरा था साहित्यिक उत्थान को समर्पित पत्रकारिता का और तीसरा चेहरा समाज सुधार करने वाली पत्रकारिता का था। कहना न होगा कि इन तीनों को एक महाभाव जोड़ता था और वह महाभाव आजादी प्राप्त करने का विराट लक्ष था। इसलिए साहित्यिक पत्रकारिता भी यदि राजनीतिक विचारों से ओत-प्रोत थी तो राजनीतिक पत्रकारिता में भी साहित्य की अन्तः सलिला बहा करती थी। तीनों धाराओं का संगम हमें भारतेंदु हरिश्चंद्र संपादित कवि वचन सुधा में देखने को मिलता है। 1868 में जब यह पत्रिका निकली थी, तब इसका कलेवर सिर्फ साहित्यिक था। बल्कि यह पत्रिका काव्य और काव्य-चर्चा को समर्पित थी। लेकिन धीरे-धीरे इसमें राजनीतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक विचार भी छपने लगे।
इस पत्रिका ने हिंदी प्रदेश को निद्रा से जगाने का काम किया था। एक समय ऐसा आया जब अँगरेज़ सरकार के प्रति इसका स्वर इतना तल्ख़ हो गया कि इसे मिलने वाली तमाम सरकारी सहायता बंद हो गयी। बालकृष्ण भट्ट, जिन्हें हम हिन्दी के शुरुआती निबंधकार के रूप में जानते हैं, उनके संपादन में निकलने वाले पत्र हिन्दी प्रदीप में कविता छपी, यह बम क्या चीज है? और इसी वजह से पत्र को अकाल मृत्यु का भाजन बनना पड़ता है। उचित वक्ता, भारत मित्र, हिंदी बंगवासी, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, सरस्वती, हिंदू पञ्च, चाँद, शक्ति, कर्मवीर, प्रताप, माधुरी, मतवाला, सैनिक, हंस, वीणा, सुधा, आज आदि को भी इसी नज़र से देखा जा सकता है।
जो राजनीतिक पत्र थे, वे भी साहित्य से एकदम असम्प्रिक्त नहीं थे। चाहे तिलक का केसरी हो या गांधी का हरिजन, वे साहित्य से दूर नहीं थे। जब गांधी जी ने हरिजन को हिंदी में निकाला तो उसके संपादन का दायित्व वियोगी हरि जैसे बड़े साहित्यकार को सौंप दिया। साहित्य, समाज और राजनीति का बेहतरीन उदाहरण निस्संदेह महाबीर प्रसाद द्विवेदी की सरस्वती ही थी, जिसने हिंदी भाषा और साहित्य और पत्रकारिता का एक युग निर्मित किया। सरस्वती सिर्फ एक साहित्यिक पत्रिका ही नहीं थी, समय की जरूरत के अनुरूप हर तरह की सामग्री उसमें छपा करती थी। दुनिया भर का श्रेष्ठ साहित्य उसमें छपता था। द्विवेदी जी स्वयं अनेक नामों से तरह-तरह के विषयों पर लिखा करते थे। ज्ञान की कोइ ऐसी चीज नहीं थी, जो सरस्वती में न छपी हो। इस से बड़ी बात और क्या हो सकती है कि एक संपादक के नाम पर हिंदी साहित्य के एक युग का नामकरण हुआ। अपनी पत्रिका के जरिये उन्होंने हिन्दी के साहित्यकार तैयार किये। लोगों को सही भाषा लिखना सिखाया। और हिन्दी भाषा के मानकीकरण के लिए ठोस प्रयास किये।
आजादी से पहले तो हिन्दी पत्रकारिता में साहित्य का दबदबा था ही, आजादी के बाद भी यह रिश्ता कायम रहा। आजादी के बाद जहां हिन्दी की दैनिक पत्रकारिता कोई खास झंडे नहीं गाड पायी थी, वहीं साप्ताहिक या मासिक पत्रकारिता ने हिन्दी का झंडा बुलंद रखा। विशाल भारत, ज्ञानोदय, धर्मयुग, नवनीत, कल्पना, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, नंदन, पराग, रविवार और दिनमान जैसी पत्रिकाओं ने आजादी से पहले की हिन्दी पत्रकारिता की साहित्यिक परम्परा को जीवित रखा।
इन पत्रिकाओं ने साहित्य को जीवित ही नहीं रखा बल्कि राष्ट्रीय एजेंडा में भी रखा। ये पत्रिकाएं अच्छे साहित्य की बदौलत ही चल भी पाईं। हेम चंद्र जोशी, इला चंद्र जोशी, बद्री विशाल पित्ती, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, बाल कृष्ण राव, रामानंद दोषी, कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी, नारायण दत्त, चंद्रगुप्त विद्यालंकार जैसे साहित्यकारों ने आज़ादी के बाद की हिन्दी पत्रकारिता को अपनी साहित्यिक सूझ-बूझ के साथ संवारा। यह क्रम अस्सी के दशक तक लगभग बना रहा। साहित्यिक दृष्टि से इस प्रवृत्ति के फायदे हुए तो इसके विस्तार में रुकावटें भी कम नहीं आयीं। क्योंकि अस्सी के दशक में जिस तरह से भारतीय अर्थव्यवस्था ने नई उड़ान भरनी शुरू की, राजनीति और समाज के स्तर पर बदलाव आने शुरू हुए, उसका सीधा असर हिन्दी की पाठकीयता पर पड़ा। जैसे-जैसे हिन्दी क्षेत्र में साक्षरता और शिक्षा का प्रसार होने लगा, अखबारों और पत्रिकाओं का प्रसार भी बढ़ने लगा। हिन्दी के नए पाठक जुड़ने लगे। जाहिर है ये पाठक अपनी अभिरुचि और अध्ययन के लिहाज से पहले के पाठकों की तुलना में अलग थे।
इसलिए पत्र-पत्रिकाओं से यह अपेक्षा होने लगी कि वे नयी तरह की सामग्री अपने पाठकों को दें। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाया। साहित्य के लिहाज से हिन्दी की श्रेष्ठ पत्रिकाओं का स्तर निस्संदेह बहुत ऊंचा था, लेकिन उनका प्रसार धीरे-धीरे घटने लगा। नब्बे के दशक तक आते-आते हिन्दी कि लगभग तमाम बड़ी पत्रिकाएं बंद होने की दिशा में बढने लगीं। धर्मयुग, दिनमान और सारिका जैसी टाइम्स समूह की पत्रिकाएं तो बंद हुई ही, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, रविवार, अवकाश जैसी पत्रिकाएं भी बंद हो गयीं। नब्बे के दौर में शुरू हुए संडे मेल, संडे ओब्जर्वर, चौथी दुनिया, दिनमान टाइम्स जैसे ब्रोडशीट साप्ताहिक भी जल्दी ही अपना बिस्तर समेट कर बैठ गए।
इसी बीच 1991 में शुरू हुए आर्थिक सुधारों ने साहित्य और मीडिया के रिश्तों को बुरी तरह से प्रभावित कर दिया। देश में सेटेलाईट के जरिये विदेशी धरती पर तैयार हुए टेलीविजन कार्यक्रम दिखाए जाने लगे। विदेशी चैनल भारत में प्रसारित होने लगे। अचानक न्यू मीडिया का उफान आया। जो विषय सामग्री अखबारों में सप्ताह भर के बाद छप कर आती थी, वह टीवी पर तत्काल दिखाई देने लगी। इसलिए साप्ताहिक परिशिष्टों में छपने वाली सामग्री दैनिक के पन्नों पर छपने लगी। देखते ही देखते साप्ताहिक पत्रिकाएं दम तोड़ने लगीं। उनके सामने यह संकट पैदा हो गया कि वे क्या छापें? दैनिक पन्नों में छपने वाली सामग्री भी उस स्तर की नहीं थी, जो स्तर साप्ताहिकों का होता था। इसलिए समस्या काफी गहरी हो गयी।
सबसे बड़ी समस्या हिन्दी साहित्य की उन विधाओं के साथ हुई, जो स्तरीय पत्रिकाओं में छापा करती थीं। रिपोर्ताज, संस्मरण, रेखाचित्र, ललित निबंध, यात्रा वृत्तान्त, भेंटवार्ता, समीक्षा जैसी अनेक विधाएं, जो साप्ताहिक पत्रिकाओं की शान हुआ करती थीं, धीरे-धीरे दम तोड़ने लगीं। जब छपनी ही बंद हो गयीं, तो लिखी भी नहीं जाने लगीं। यानी आर्थिक सुधारों के बाद पत्रकारिता का जो नया रूप आया, उसने पत्रकारिता का विस्तार तो बहुत किया, लेकिन स्तर में गिरावट आ गयी। इस तरह पत्रिकाओं के बंद होने से हिन्दी साहित्य को प्रत्यक्ष नुक्सान उठाना पड़ा।
हाँ, कुछ लघु पत्रिकाओं ने साहित्य की मशाल जरूर जलाए राखी, लेकिन चूंकि उनका प्रसार बहुत कम होता है, इसलिए उसे हम हिन्दी समाज की मुख्य धारा पत्रकारिता की प्रवृत्ति के रूप में नहीं देख सकते। इंडिया टुडे, आउटलुक साप्ताहिक, आजकल, समयांतर, प्रथम प्रवक्ता, पब्लिक एजेंडा जैसी कुछ पत्रिकाएं अपने कलेवर और विषयवस्तु में कुछ भिन्न होते हुए भी कुछ हद तक साहित्य की परम्परा को बचाए हुए हैं, लेकिन मुख्यधारा की हवा एकदम विपरीत है।
यह हमारे वक्त की एक कडुवी हकीकत है कि आज का मीडिया साहित्य को भी एक उपभोग सामग्री की तरह देखता है। ऐसा नहीं है कि उसने साहित्य को पूरी तरह से नज़रअंदाज कर दिया है। सचाई यह है कि वह साहित्य को भी उसी नज़रुये से देखता है, जैसे किसी और उपभोग-सामग्री को। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि कोई सामग्री कितनी उम्दा या श्रेष्ठ है, महत्वपूर्ण यह है कि उसे कैसे भुनाया जा सकता है। मसलन, कविवर हरिवंश राय बच्चन के बारे में उनकी मृत्यु के बाद प्रसारित कार्यक्रमों को ही ले लीजिए। ज़रा सोचिए कि यदि वह अमिताभ बच्चन के पिता न होते तो क्या उनके बारे में उतने ही बढ़-चढ कर कार्यक्रम दिखाए जाते? उसी के आसपास अन्य कवि-साहित्यकार भी दिवंगत हुए होंगे, लेकिन उनके बारे में मीडिया ने नोटिस तक नहीं लिया।
हमारा यह आशय नहीं है कि बच्चन जी बड़े कवि नहीं थे। उन्हें जो प्रचार मिला, वह तो मिलना ही चाहिए, लेकिन और लोगों कि उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। मीडिया, खासकर टीवी यह देखता है कि जिस लेखक को दिखाया जा रहा है, उसकी मार्केट वैल्यू क्या है, तभी वह खबर का विषय बनता है। वह यह नहीं जांचता कि उस लेखक के साहित्य में कोई दम है या नहीं। टीवी के साथ ही अब पत्र-पत्रिकाओं में भी साहित्य की कवरेज के यही मानदंड बन गए हैं। बाजार जिसे उछाल दे, वही साहित्य, बाक़ी ईश्वर के भरोसे। यह स्थिति ठीक नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य से आज यही हो रहा है। पता नहीं भविष्य में कोई नया मानक उभरता है या नहीं, जिस से साहित्य को उचित न्याय मिल सके।
प्रोफेसर गोविंद सिंह उत्तराखंड ओपन यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता विभाग के निदेशक हैं। वे हिंदुस्तान, अमर उजाला, स्पेन मैगज़ीन , ज़ी न्यूज़ और आजतक में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुकें हों।
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