Monday, May 9, 2016

“जब भूख लगती है तो सब कुछ करना पड़ता है और कुछ दर्द नहीं होता है”

चौराहे पर भूख से भटकती जिंदगी क्या कुछ करने को मजबूर नहीं हो जाती हैं. यूंही नहीं कोई अपनी जिंदगी को दाव पर लगा देता है, क्योंकि जिंदगी से ज्यादा प्यारी कोई भी चीज नहीं है इस धरा पर और क्या चिटीं और क्या इंसान, हर किसी को अपने जान की परवाह होती हैं. लेकिन यदि वह अपनी जिंदगी को दाव पर लगा दिया तो जरा सोचिए, कि रोटी की क्या किमत है. सिर्फ एक निवाले के लिए, बस एक जोड़ी कपड़ा दुनिया के नजर से छुपाने के लिए और एक छत धूप – बारिश से सर को छुपाने के लिए भले ही वह घास-फूस या खपङैल ही क्यों ना हो. क्योंकि यही तो है हमारी प्राथमिक आवश्यकताएं जिनके लिए हर इंसान संघर्ष करता है. लेकिन हमारे पास तो आधार है खङा होने का और कुछ करने का. लेकिन मैं जिनकी बात करने जा रहा हूँ, उनके पास तो कुछ भी नहीं सिवाए भूखे शरीर के, तो फिर उसको किस हद तक फिकर होगी रोजमर्रा की जिंदगी को लेकर! हम तालियां बटोरने के लिए पैसे लूटा देते हैं और एक यह लोग हैं जो कि बस भूख मिटाने के लिए, जान तक को दाव पर लगा देते हैं.
कौन हैं यह लोग –
यह लोग हमारे ही आसपास के क्षेत्रों के हैं, जिनका कोई स्थाई ठिकाना नहीं है लेकिन ऐसे लोग हमें हमारे हर चौक – चौराहे व गली खुचे में मिल ही जाते हैं. कभी ढोलक बजाते, कभी गाते, मदारी दिखाते इत्यादि. बहुतायत तो ऐसे भी मिलते हैं जिनको दुनिया की कोई खबर नहीं है. भूख इनकी मानसिकता को इस कदर बदल दिया है कि इन्हें बस रोटी दिखाई देता है, चाहे वह कचङे के डिब्बे में हो या फिर रोड पर. ठंडी हो या गर्मी क्या फर्क पड़ता है, क्योंकि इनके बदन हालातों के चपेट में आ कर सुन्न हो गए हैं और जिसको थोड़ी सी परवाह हैं, उनके लिए तो अखबार व बोरी ही काफी है ताउम्र बदन ढँकने के लिए. आप चाहें सफर में हो या कहीं भी, मिल ही जाते हैं ऐसे लोग. यह लोग पहचान के मोहताज नहीं है लेकिन विडम्बना तो यह है कि इनकी गिनती होती ही नहीं है वास्तविक रूप से.
आँकङो पर उठते सवाल –
हालांकि आप अगर रिपोर्ट ढूंढने के लिए बैठेंगे तो हजारों तरह के शोधकर्ताओं का आंकड़ा मिल जाएगा लेकिन परिवर्तन तो आपको एक प्रतिशत भी नहीं मिल सकता है. किस आधार पर इनका आँकङा बनाया जाता है क्योंकि यह तो कहीं भी स्थाई रूप से नही रहते हैं.  365 दिन में से पूरा 365 दिन भटकते रहते हैं, गुजारा करने के लिए. आज दिल्ली तो कल कलकत्ता यह है इनकी जिंदगी. यह भी हुआ होगा कि कितने लोगों का दो – तीन बार तो किसी का एक बार भी गिनती नहीं हुआ होगा सुधार हेतु. जब प्रारंभिक कार्य ही व्यवस्थित रूप से नहीं हुआ है तो फिर आगे की रणनीति या प्रक्रिया का विफल होना तय है. तो अगर ऐसा किया जाए कि पूरे भारत में एक साथ एक समय में सर्वे कराया जाये और साथ ही साथ उन्हें पहचान के साथ रहने के लिए जगह भी उपलब्ध कराया जाये तो काफी हद तक हम इस समाजिक विफलता को दूर कर सकते हैं. यह इतना आसान नहीं है लेकिन धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ रही है और पीढी दर यह पनपता जा रहा है, जो कि हमारे समाजिक विकास के लिए अवरोधक बनते जा रहा है. क्योंकि आर्थिक समाजिक विकास के आंदोलनकारी अम्बेडकर के अनुसार “समाज के चौतरफा विकास के लिए जरूरी है कि सबसे पहले कार्य की शुरुआत निचले स्तर के लोगों के साथ किया जाये”.
क्या है इनका पेशा ? –
जिस तरह से इनके घर का ठिकाना नहीं है, ठीक उसी तरह इनका कोई एक मूल रूप से कार्य नहीं है. लेकिन मुख्य रूप से हमने इनको जानलेवा करतब दिखाते हुए देखा हैं. जैसे कि पलकों से सुई उठाना, लोहा के सरिया को गर्दन व कमर के बल से मरोड़ना, बोतल के ऊपर खङा हो कर नाचना और बदन को तोड़ मोङ कर गोल कर लेना. यह सारे करतब दिखाने वाले वैसे मासूम बच्चे हैं जिनको विद्यालय में होना चाहिए. यही बच्चे आगे चलकर शराबी बन जाते हैं या फिर बहुत बार देखने को मिलता है कि अन्य बुरी लत के से भी ग्रसित हैं या किसी असमाजिक गतिविधियों में शामिल हो जाते हैं और जो इन सब से बचते हैं वह इस पेशे को जिंदा रखते हैं. बाकी तो आपने सपेरा व मदारी वालों को भी देखा ही हैं. सर्कस भी इन्हीं कि खोज हैं लेकिन आज के दौर में वह अंतरराष्ट्रीय व्यवसाय बन गया है और यह लोग आज भी जागरूकता के अभाव में भटकते फिर रहे हैं. इन लोगों की बहुत सारी कलाअों का प्रयोग हम व्यापक रूप से कर इनकी आर्थिक वृद्धि बढा सकते हैं और एक ढंग की जिंदगी दे सकते हैं लेकिन अफसोस कि हमारा ध्यान इन पर जाता नहीं है. जाता भी है तो बस दो चार छुट्टे पैसे डाल कर निकल लेते हैं. बच्चों से खतरनाक करतब दिखाना, सांप पकड़ना, भालू का नाच दिखाना सब अमानवीय हैं और यह कानूनन जुर्म भी है लेकिन इन सब तमाशा को नजर बंद कर के देखना क्या समाज के हित में हैं! यह खेल ‘नजरबंद’ का नहीं है बल्कि जरूरत है हमें जागरूक व क्रियाशील नागरिक बनने का ताकि हमारे समाज की छवि और ज्यादा से ज्यादा बेहतर बने.
बातें जो मन को झकझोर दी –
ऐसे तमाशे मैंने कई बार देखा था. परंतु इस बार मैं अपने इंटर्नशिप के दौरान पटना गांधी मैदान से रिपोर्टिंग कर के प्रभात खबर कार्यालय जाने के लिए निकला तो देखा कि बाँस घाट के पास काफी भीड़ लगी हुई हैं. मैंने आॅटोरिक्शा को रुकवाया और चल पङा भीङ की ओर. जब मैं बच्चों के जानलेवा करतब देखा तो वाकई में मेरे होश उड़ गए क्योंकि ऐसे करतब मैं पहली बार देख रहा था और उससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह थी कि उनके टीम में 4 नन्हीं लङकीयां, 3 नन्हे लङके व पति-पत्नी यानि कि सबसे ज्यादा महिलाएं थी. मुझे याद आया कि हाल ही में हम मनाये अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस और दुसरे तरफ देखा महिला कितनी है विवश. बङी मार्मिकता व करूणा भरा पल था जो कि मन मस्तिष्क पर चोट करने लगा. मैं जब करतब दिखाने वाली एक लङकी से बात किया तो वह बोली की “हां मैं पढूंगी लेकिन खाना फिर कहां से आएगा” तो यह सवाल मुझे खामोश कर दिया फिर वह लङकी चली गई अपने मां के पास. फिर जब मैं उसकी माँ (रेशमी) से बात किया तो वह बताती हैं कि “जब मैं छोटी थी तो उसके माता-पिता उससे यह काम करवाये. फिर 14 साल की उम्र में शादी-ब्याह हो गया फिर बच्चे हुए. अब यह पेशा मैं अपने बच्चों से करा रही हूँ. मैंने पढ़ाई तो नहीं किया है लेकिन इतना हैं कि हम लोगों को भूखे नहीं सोना पङता है और ना ही भीख मांगने की जरूरत पड़ती है”.  मैंने फिर जब सवाल किया तो बोली की” साहब जाइये मुझे मेरा काम करने दीजिए क्योंकि बहुत बार बहुत साहब हमारे बात को लिखे हैं लेकिन हुआ कुछ नहीं”. मैं जाते-जाते उस अबोध बच्ची से पूछा कि तुमको दर्द नहीं होता है तो वह बच्ची बोली की “जब भूख लगती है तो सब कुछ करना पड़ता है और कुछ दर्द नहीं होता है”. और वो लोग अपनी पोटली समेट कर कर चल पङे. मैं बिल्कुल हक्का-बक्का खङा रहा बच्ची के जवाब को सुनकर. अब मेरे सामने सवाल आ खङा हुआ कि क्या मुझे लिखना चाहिए! फिर मैं सोचा कि मैं तो लिख कर ही कुछ कर सकता हूं तो फिर वहां के लोगों से बातचीत कर के प्रतिक्रियाएं लेने लगा तो मुझे राजेश कुमार ( 07 Day’s Restaurant) के मालिक ने कहा कि “मैं ना सरकार को दोषी मानता हूँ और ना ही उनके समुदाय को, लेकीन हम लोग जिस स्तर पर भी है. हमें उसी स्तर से इनकी मदद करनी चाहिए तभी समाज में सकारात्मक बदलाव होगा” और वह हर महीने अनाथ बच्चों को आर्थिक रूप से सहायता भी करते हैं. हालांकि यह बात तो बिल्कुल सही है क्योंकि उन बच्चों से जानलेवा काम करवाना व सरकार तथा मिडिया का विफल होना, सब तो जुर्म है लेकिन दोषारोपण से हासिल क्या होगा? मैं भी मन ही मन निश्चय किया कि जितना हो सकता है अपने क्षमता के अनुरूप सहायता करूंगा और चल पङा कार्यालय की ओर. जैसे ही कार्यालय के समीप चौराहे पर आया तो देख रहा हूँ कि कुछ बच्चें यहाँ पर भी वही कर रहे हैं, भीङ लगी है, तालियाँ बज रही हैं, पैसा भी लोग दे रहे हैं लेकिन बस बदला है तो इतना ही भर की, जोखिम भरे करतब दिखाने वाले बच्चों के चेहरे अलग है.

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