हम जिस घर में रहते हैं, वहां बिजली भी नहीं है। मैं खूब मेहनत से पढ़ता हूँ और अच्छे नंबरों से परीक्षाएं पास भी करता हूँ। मुझे सफल होने के लिए और क्या करना चाहिए?
सप्रेम, अशोक
सप्रेम, अशोक
प्रिय अशोक,
सबसे पहले मैं तुम्हें यह बताना चाहता हूँ कि मेरा जन्म एक समृद्ध परिवार में हुआ था परन्तु जब मैं आठ साल का था, तब मेरे पिताजी की मृत्यु हो गयी। मेरी माँ को हम बच्चों का पालन-पोषण करने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा, विशेषकर इसलिए क्योंकि उनकी कोशिश रहती थी कि वे हमारे लिए बेहतर से बेहतर करें। मैंने अपनी स्कूल की और कॉलेज के पहले साल की पढ़ाई मोमबत्ती की रोशनी में की। इसके बाद पेट्रोमैक्स आ गया और फिर मैं उसके सहारे पढ़ने लगा। इसलिए मेरे जीवन का अनुभव तुमसे बहुत मिलता जुलता है।
सबसे पहले मैं तुम्हें यह बताना चाहता हूँ कि मेरा जन्म एक समृद्ध परिवार में हुआ था परन्तु जब मैं आठ साल का था, तब मेरे पिताजी की मृत्यु हो गयी। मेरी माँ को हम बच्चों का पालन-पोषण करने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा, विशेषकर इसलिए क्योंकि उनकी कोशिश रहती थी कि वे हमारे लिए बेहतर से बेहतर करें। मैंने अपनी स्कूल की और कॉलेज के पहले साल की पढ़ाई मोमबत्ती की रोशनी में की। इसके बाद पेट्रोमैक्स आ गया और फिर मैं उसके सहारे पढ़ने लगा। इसलिए मेरे जीवन का अनुभव तुमसे बहुत मिलता जुलता है।
तुम्हारे प्रश्न ने मुझे अपनी गुजरी जिंदगी पर निगाह डालने के लिए मजबूर कर दिया है। आखिर वे क्या चीजे थीं, जिन्होंने मुझे सफलता दिलाने में भूमिका निभायी।
आओ, हम शुरुआत बाहरी चीज़ों से करें। यह दुखद परंतु सच है कि लोग हमारे बारे में अपनी राय इससे बनाते हैं कि हम कैसे दिखते हैं। इसलिए यह जरूरी है कि भले ही तुम फैशनेबल या महंगें कपड़े न खरीद सको परन्तु यह जरूरी है कि तुम कोशिश करो कि तुम हमेशा साफ-सुथरे दिखो।
![10358865_10152748338071554_3249698535568117718_n copy](https://i2.wp.com/www.forwardpress.in/wp-content/uploads/2015/11/10358865_10152748338071554_3249698535568117718_n-copy1.jpg?resize=500%2C331)
मोटे तौर पर, तुम्हें नीची आवाज़ में और धीरे-धीरे बोलना चाहिए। और हमेशा बोलने से पहले यह सोच लो कि तुम क्या बोलने वाले हो: फिर चाहे वह दोस्तों की महफिल हो, जन्मदिन की पार्टी या कोई कार्यालयीन बैठक।
अगर संभव हो तो तुम वादविवाद और भाषण प्रतियोगिताओं में हिस्सा लो – या कम से कम इस तरह की प्रतियोगिताओं को ध्यान से देखो और सुनो, चाहे इन्टरनेट पर, रेडियो पर, टीवी पर या किसी सभागार में। इससे तुम्हें यह समझ में आएगा कि लोग उनके पास उपलब्ध सामग्री को किस तरह जमाते हैं और किस प्रकार उसे प्रस्तुत करते हैं। इससे तुम्हें चेहरे के उतार-चढ़ाव, हावभाव और वाकपटुता से अपनी बात को बेहतर ढंग से प्रस्तुत करने की कला भी सीखने को मिलेगी। तुम यह जान पाओगे कि क्या कहना प्रभावी होता है और क्या, निष्प्रभावी। इससे तुम संप्रेषण कला में निष्णात बन सकोगे।
रईसाना जिंदगी का स्वाद लो
शनैः शनैः उच्च स्तर की चर्चाओं में भाग लेने की तुम्हारी क्षमता बढ़ती जाएगी। परंतु याद रखो कि इनमें से बहुत सी बैठकें और चर्चाएं बड़ी होटलों और प्रतिष्ठित कन्वेंशन सेंटरों में होती हैं। अगर तुम्हें ऐसी जगह आने का निमंत्रण मिले तो तुम्हें वहां अजीब-सा नहीं लगना चाहिए। इसलिए अच्छे से तैयार हो, अपने पास की किसी बड़ी होटल में जाओ, थोड़ी देर घूमों और फिर वापिस आ जाओ। यद्यपि मैं लोगों को हमेशा यह सलाह देता हूं कि वह दिखने की कोशिश न करें जो वे नहीं हैं परंतु किसी होटल में जाने और वहां से निकल आने में तुम कुछ भी गलत नहीं कर रहे हो। होटलें आदि ग्राहकों की सेवा के लिए होती हैं और तुम भले ही आज उनके ग्राहक न हो परंतु तुम उस समय के लिए तैयारी कर रहे हो, जब तुम इस तरह के स्थानों पर ग्राहक बतौर जाओगे।
शनैः शनैः उच्च स्तर की चर्चाओं में भाग लेने की तुम्हारी क्षमता बढ़ती जाएगी। परंतु याद रखो कि इनमें से बहुत सी बैठकें और चर्चाएं बड़ी होटलों और प्रतिष्ठित कन्वेंशन सेंटरों में होती हैं। अगर तुम्हें ऐसी जगह आने का निमंत्रण मिले तो तुम्हें वहां अजीब-सा नहीं लगना चाहिए। इसलिए अच्छे से तैयार हो, अपने पास की किसी बड़ी होटल में जाओ, थोड़ी देर घूमों और फिर वापिस आ जाओ। यद्यपि मैं लोगों को हमेशा यह सलाह देता हूं कि वह दिखने की कोशिश न करें जो वे नहीं हैं परंतु किसी होटल में जाने और वहां से निकल आने में तुम कुछ भी गलत नहीं कर रहे हो। होटलें आदि ग्राहकों की सेवा के लिए होती हैं और तुम भले ही आज उनके ग्राहक न हो परंतु तुम उस समय के लिए तैयारी कर रहे हो, जब तुम इस तरह के स्थानों पर ग्राहक बतौर जाओगे।
दो अंतिम बातें: अपने दोस्तों का चुनाव सावधानी से करो। किसी ऐसे समूह से मत जुड़ो जो तुम पर इस तरह का व्यवहार करने का दबाव डाले, जो तुम्हें तुम्हारे लक्ष्यों तक पहुंचने में बाधक हो। अगर इस तरह के समूह का हिस्सा बनने के दबाव से बचना संभव ही न हो तो किसी दूसरे स्थान पर रहने चले जाओ, चाहे वह नई जगह उतनी ही खराब क्यों न हो, जितना कि वह स्थान जहां तुम पहले रहते थे।
आखिरी बात यह कि कभी कर्ज के दुष्चक्र में मत फंसो क्योंकि उससे तुम साहूकार या बैंक के गुलाम बन जाओगे। चाहे तुम्हारी कमाई कितनी ही कम क्यों न हो उसी में अपना खर्चा चलाने की कोशिश करो और यह भी कोशिश करो कि हर महीने तुम कुछ पैसा बचाओ। इससे तुम्हारे पास एक छोटा-सा कोष इकट्ठा हो जाएगा जो किसी मुसीबत में तुम्हारे काम आ सकेगा। इसके अलावा, तुम इस पैसे का इस्तेमाल, अपने लक्ष्य को पाने के लिए जरूरी चीजें खरीदने के लिए कर सकते हो। उदाहरणार्थ, किसी कोचिंग क्लास की फीस देने में, कम्प्यूटर खरीदने में या कोई छोटा-मोटा व्यवसाय शुरू करने में।
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मेरे पिछले पत्र के आपके उत्तर को पढ़कर मुझे बहुत शांति मिली परंतु मेरे समक्ष एक चुनौती भी उपस्थित हो गई। मैं चाहती हूं कि मेरे मन में सभी के प्रति-चाहे फिर वे अजनबी ही क्यों न हों-संवेदना हो। मैं नहीं चाहती कि दूसरों की आवश्यकताओं के प्रति मैं उदासीन या तटस्थ रहूं। परंतु व्यावहारिक दृष्टि से ऐसा करना कैसे संभव है, जब मेरे आसपास के लोगों की आवश्यकताएं मेरे संसाधनों से सैंकड़ों गुना बड़ी हैं।
सप्रेम,
शांति
शांति
प्रिय शांति,
तुम्हारा प्रश्न बहुत चुभने वाला है। मैं इसका उत्तर दो तरीकों से दे सकता हूं।
पहली बात तो यह है कि हम उतना ही कर सकते हैं, जितनी हमारी क्षमता है। ईश्वर भी यह देख-समझ सकता है। वह यह नहीं चाहता कि हम अपनी क्षमता से ज्यादा करें। समस्या यह नहीं है कि हमारे संसाधन, दूसरों की मदद करने की हमारी क्षमता को सीमित करते हैं। समस्या यह है कि हम उतना भी नहीं करते, जितना हम कर सकते हैं। कल ही मैंने देखा कि सड़क पर एक युवती फूट-फूट कर रो रही है। मैं उस दृश्य को अब तक भुला नहीं पाया हूं। मैं घर पहुंचने की जल्दी में था क्योंकि मुझे टैक्सी पकड़कर हवाईअड्डे जाना था। मेरी उड़ान का वक्त हो गया था। अगर उस युवती के स्थान पर कोई युवक होता तो क्या मैं कुछ करता, यह कहना मुश्किल है। और मैं निश्चित ही नहीं जानता कि मेरे जैसा उम्रदराज़ व्यक्ति यदि रूककर उस युवती से बात करता तो वह युवती या आसपास के लोग इसे किस रूप में लेते। इसलिए मैं वहां रूका नहीं। मैं केवल यह प्रार्थना कर सकता था कि कोई उसे दिलासा दिलाए और उसकी जरूरी मदद करे। कई मौकों पर हम ईश्वर से प्रार्थना करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकते। परंतु मैं हमेशा स्काउट्स के उस कार्यक्रम को याद रखता हूं, जिसमें हर स्काउट से अपेक्षा की जाती थी कि वह हर दिन कम से कम एक अच्छा काम करेगा। हर दिन एक अच्छा काम करना असंभव नहीं है। उससे हममें दूसरों के प्रति सेवाभाव उपजता है और हम कम स्वार्थी बनते हैं।
तुम्हारा प्रश्न बहुत चुभने वाला है। मैं इसका उत्तर दो तरीकों से दे सकता हूं।
पहली बात तो यह है कि हम उतना ही कर सकते हैं, जितनी हमारी क्षमता है। ईश्वर भी यह देख-समझ सकता है। वह यह नहीं चाहता कि हम अपनी क्षमता से ज्यादा करें। समस्या यह नहीं है कि हमारे संसाधन, दूसरों की मदद करने की हमारी क्षमता को सीमित करते हैं। समस्या यह है कि हम उतना भी नहीं करते, जितना हम कर सकते हैं। कल ही मैंने देखा कि सड़क पर एक युवती फूट-फूट कर रो रही है। मैं उस दृश्य को अब तक भुला नहीं पाया हूं। मैं घर पहुंचने की जल्दी में था क्योंकि मुझे टैक्सी पकड़कर हवाईअड्डे जाना था। मेरी उड़ान का वक्त हो गया था। अगर उस युवती के स्थान पर कोई युवक होता तो क्या मैं कुछ करता, यह कहना मुश्किल है। और मैं निश्चित ही नहीं जानता कि मेरे जैसा उम्रदराज़ व्यक्ति यदि रूककर उस युवती से बात करता तो वह युवती या आसपास के लोग इसे किस रूप में लेते। इसलिए मैं वहां रूका नहीं। मैं केवल यह प्रार्थना कर सकता था कि कोई उसे दिलासा दिलाए और उसकी जरूरी मदद करे। कई मौकों पर हम ईश्वर से प्रार्थना करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकते। परंतु मैं हमेशा स्काउट्स के उस कार्यक्रम को याद रखता हूं, जिसमें हर स्काउट से अपेक्षा की जाती थी कि वह हर दिन कम से कम एक अच्छा काम करेगा। हर दिन एक अच्छा काम करना असंभव नहीं है। उससे हममें दूसरों के प्रति सेवाभाव उपजता है और हम कम स्वार्थी बनते हैं।
अब दूसरा प्रश्न। अगर मैं रोज एक अच्छा काम करूं, तब भी मैं इस दुनिया के करोड़ों इंसानों की आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकता। इसलिए, मैं समय निकालकर इस विषय पर विचार करने की कोशिश करता हूं कि हमारी दुनिया ऐसी क्यों है, जैसी वह है। महात्मा गांधी ने कहा था कि ईश्वर ने सबकी आवश्यकताओं को पूरा करने का इंतजाम किया है परंतु हम मानवों ने ऐसी व्यवस्था बना ली है जो हमें हमारे व्यक्तिगत स्वार्थ पूरा करने की ओर प्रवृत्त करती है। यही कारण है कि दुनिया में ढेर सारे लोगों की आवश्यकताएं पूरी नहीं हो पा रही हैं।
किसी आंदोलन का हिस्सा बनो
काफी अध्ययन के बाद मैंने यह तय किया कि मैं विश्वस्तर पर चल रहे ‘‘रिलेशनल थिकिंग मूवमेंट’’ का समर्थन करूंगा। मेरा कई आंदोलनों से साबका पड़ा है और मुझे ऐसा लगता है कि वर्तमान स्थिति का उनमें से किसी का विश्लेषण उतना पैना नहीं हैं, जितना कि इस आंदोलन का। इस आंदोलन की एक समग्र कार्ययोजना है और मुझे लगता है कि इसमें दुनिया को बेहतर बनाने की क्षमता है। मुझे यह भी अच्छा लगा कि इस आंदोलन में शामिल होने का कोई निर्धारित शुल्क नहीं है। इसमें शामिल होने के लिए हमें केवल अपने दो घंटे की आय देनी होती है, चाहे वह कितनी ही ज्यादा या कम हो। और जो लोग यह भी देने में सक्षम नहीं हैं या बेरोजगार हैं, वे आंदोलन की ‘मेलिंग लिस्ट’ में शामिल होकर उसकी गतिविधियों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। कोई भी व्यक्ति अपने समय, ऊर्जा, विचारों और कौशल से इस आंदोलन की मदद कर सकता है।
राष्ट्रीय स्तर पर मैं फारवर्ड प्रेस पत्रिका का समर्थन करता हूं क्योंकि मुझे ऐसा लगता है कि यह उन चंद मंचों में से एक है, जो लोगों को संगठित कर हमारे देश में सकारात्मक परिवर्तन लाने का प्रयास कर रही है। यद्यपि पत्रिका का एक निश्चित सदस्यता शुल्क है तथापि वह पत्रिका के प्रकाशन पर होने वाले खर्च से बहुत कम है। इसलिए हम सब को इस पत्रिका का प्रचार करने का प्रयास करना चाहिए, विशेषकर उन लोगों के बीच जो उसे विज्ञापन या अन्य आर्थिक सहयोग दे सकें।
पत्रिका की मदद करने का एक दूसरा अच्छा तरीका है ‘‘फारवर्ड रीडर्स क्लब’’ की स्थापना या उनकी गतिविधियों में भाग लेना। इस तरह के क्लब नियमित रूप से बैठकें आयोजित कर पत्रिका में प्रकाशित लेखों पर चर्चा कर सकते हैं। संबंधित व्यक्ति या क्लब यह भी तय कर सकते हैं कि क्या वे किसी लेख के आधार पर कोई व्यावहारिक कदम उठाना चाहते हैं।
हम में से हर एक अपने जीवन में क्या करता है या क्या नहीं, उसके लिए वह केवल ईश्वर के प्रति उत्तरदायी है और हमारा मूल्यांकन केवल दुनियावी मानकों से नहीं होता बल्कि वह इस पर भी निर्भर करता है कि हम ईश्वर द्वारा दिखलाए गए रास्ते पर चल रहे हैं या नहीं।
अंत में, जो कुछ मैं कर सकता हूं वह करते हुए भी मुझे ईसा मसीह के इन अटपटे-से शब्दों को याद रखना चाहिए, ‘‘जब तुम वह सब कर चुके हो जो तुम कर सकते हो, तो स्वयं को एक निष्फल सेवक रूप में देखो’’। ये शब्द हमें विनम्रता का संदेश देते हैं। हम जो करते हैं या नहीं करते, वही हमारे चरित्र को गढ़ता है। इन शब्दों से स्पष्ट है कि ईश्वर के लिए हम क्या हासिल करते हैं या नहीं, उससे अधिक महत्वपूर्ण हमारा चरित्र है।
सप्रेम,
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कहने की आवश्यकता नहीं कि अगर ऐसा करना संभव हो तो हमें दु:ख, रोग और अज्ञानता को नहीं सहना चाहिए-न तो अपनी जिंदगी में और न दूसरों की जिंदगियों में। परंतु तथ्य यह है कि हमारे देश में जिन विचारधाराओं का प्राधान्य है, वे हमें यह सिखाती हैं कि दु:ख, रोग और अज्ञानता को, कम से कम नीची जातियों के मामले में, न केवल सहन किया जाना चाहिए बल्कि उन्हें किसी कथित पूर्व जन्म के पापों का उचित और न्यायपूर्ण दंड माना जाना चाहिए।
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आप जो कहना चाह रहे हैं वह मैं समझ सकती हूं। अधिकांश मामलों में असहिष्णुता की जड़ें अहंकार, मूर्खता और लिप्सा में रहती हैं।तो फिर ऐसी कौन सी चीजें हो सकती हैं, जिनके प्रति हमें अहंकारी, मूर्ख और लोभी न होते हुए भी असहिष्णु होना चाहिए।
सप्रेम,
शांति
प्रिय शांति,
![1339770118-children-hold-a-protest-rally-against-child-labor_1277886](https://i1.wp.com/www.forwardpress.in/wp-content/uploads/2016/04/1339770118-children-hold-a-protest-rally-against-child-labor_1277886.jpg?resize=500%2C325&ssl=1)
सच तो यह है कि हमारे देश में व्याप्त सभी गलत और झूठे विचारों को सहन नहीं किया जाना चाहिए। कब जब यह पता लगाना मुश्किल होता है कि कौन से विचार सही हैं और कौन से गलत। और ऐसी स्थिति में हमें तब तक धैर्य रखना चाहिए जब तक यह स्पष्ट न हो जाए कि कोई विशेष विचार सही है या गलत।
परंतु यह स्वीकार करते हुए भी कि पूर्ण सत्य से हमारा साक्षात्कार अभी नहीं हुआ है, हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे कुछ विचार हैं, जिनके बारे में हम निश्चित तौर पर जानते हैं कि वे सत्य हैं और कुछ ऐसे विचार भी हैं, जिनके बारे में हमें पता है कि वे असत्य हैं। अगर हमें किसी विचार की सत्यता का ज्ञान है तो हमारा यह कर्तव्य है कि हम उसकी रक्षा और संरक्षण करें। इसके विपरीत, अगर हमें यह पता है कि कोई विचार असत्य है तो हमारा यह कर्तव्य है कि हम उसके खिलाफ लड़ें या कम से कम उसका प्रतिरोध करें। चाहे ईश्वर हो या हमारी दुनिया, चाहे अंतरराष्ट्रीय राजनीति हो या हमारा समाज, चाहे हमारे आसपास की दुनिया या हमारे पड़ोसी व परिवार हों या हम स्वयं – असत्य का विरोध, सत्यान्वेषण का अविभाज्य हिस्सा है।
निश्चित तौर पर हमें ऐसी सरकारी नीतियों को सहन नहीं करना चाहिए जो हमारे देश को बर्बादी की ओर धकेल रही हैं। जैसे वे नीतियां जो देश के हर नागरिक को अच्छी शिक्षा और अच्छे स्वास्थ्य की गारंटी नहीं देतीं। इस तरह के मामलों में कौन सी नीति सही है और कौन सी गलत, यह समझना आसान है। परंतु ऐसी बहुत सी गलत नीतियां हंै, जिनको समझने में हमें देर लगती है – जैसे उद्योगों को अनुदान दिया जाना, धनिकों पर अपेक्षाकृत अधिक कराधान नहीं किया जाना और ढेर सारा मुनाफा कमाने वाली बड़ी कंपनियों से ज्यादा टैक्स न वसूलना।
फिर, एक समाज और एक राष्ट्र बतौर हमें भ्रष्टाचार को सहन नहीं करना चाहिए क्योंकि वह हमारे देश की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा है। इसी तरह, जो भी चीजें राष्ट्र के बतौर हमें नुकसान पहुंचाती हैं, वे हमारी प्रगति को बाधित करती हैं। उदाहरणार्थ, जातिवाद और खाप पंचायतों व आरएसएस सहित वह ढांचा जो उसे मजबूती देता है।
आत्मपरीक्षण
हमें अपने आलस्य को भी सहन नहीं करना चाहिए और यहां मैं केवल शारीरिक आलस्य की बात नहीं कर रहा हूं अर्थात खाली बैठे रहना और दिन भर कुछ नहीं करना। मैं भावनात्मक आलस्य की बात भी कर रहा हूं, जब मैं यह कोशिश नहीं करता कि मैं दूसरों के दर्द को समझूं और उनके दृष्टिकोण से चीजों को देखने का प्रयास करूं। आलस्य आध्यात्मिक भी हो सकता है जैसे मैं यह जानने का प्रयास न करूं कि क्या सत्य, अच्छा और सुंदर है या मैं ईश्वर को ढूंढने की कोशिश न करूं या उसके साथ न चलूं। अंत मे आलस्य मानसिक भी हो सकता है जैसे मुझमें जिज्ञासा का पूर्णत: अभाव हो और मैं अपनी दुनिया के बारे में कुछ भी जानने का कोई प्रयास न करूं। न मेरी रूचि प्रकृति में हो, न कला में, न साहित्य में, न इतिहास में, न सामाजिक परंपराओं और न राजनैतिक व्यवस्था में।
मुझे मेरी आरामतलबी को भी नहीं सहना करना चाहिए। स्पष्ट शब्दों में कहूं तो ऐसा नहीं है कि हमें सुविधाओं से पूरी तरह मुंह मोड़ लेना चाहिए। अकारण असुविधा में रहने का कोई अर्थ नहीं है परंतु कब-जब सुविधा और आराम की तलाश, हमें आलसी बना देती है और हमें हमारी राजनीति या समाज या परिवार या हमारे व्यक्तिगत जीवन में भी जो परिवर्तन होने चाहिए, उन्हें लाने का प्रयास करने से रोकती है।
तथ्य यह भी है कि जैसा कि कवि टीएस इलियट ने कहा था, मानव बहुत ज्यादा यथार्थ सहन नहीं कर सकता। यही कारण है कि अयथार्थवादी फिल्में हमारे देश में ही नहीं पूरी दुनिया में बहुत लोकप्रिय हैं। जिन देशों में बालीवुड नहीं है वहां हालीवुड और ओपेरा हैं। और यही कारण है कि हमारे अखबार, पत्रिकाएं और टीवी चैनल कई ऐसे कार्यक्रम दिखाते हैं, जो हमें यथार्थ से दूर ले जाते हैं जैसे सनसनी फैलाने वाले और खेल व ज्योतिष पर आधारित कार्यक्रम। दूसरे शब्दों में, ऐसी चीजें जो पलायनवादी हैं या कुछ हद तक अच्छी भी हैं, जैसे मनोरंजन (जो कि काम के बीच हमें आराम देने और तरोताजा करने के लिए उपयोगी है) हमारे जीवन में इतना महत्वपूर्ण स्थान ले लेती हैं कि जो चीजें असल में महत्वपूर्ण हैं, उन्हें हम देख ही नहीं पाते और ना ही उनकी ओर ध्यान दे पाते हैं।
प्रिय शांति, मुझे आशा है कि तुम्हें यह समझ में आ गया होगा कि कई ऐसी चीजें हैं जिनके प्रति हमें असहिष्णु होना चाहिए और इसके साथ ही कई ऐसी चीजें भी हैं जिनके प्रति हमें सहिष्णु होना चाहिए। यह विडंबना है कि हमारे देश और हमारी संस्कृति में हम अक्सर गलत चीजों को सहते हैं और सही चीजों के प्रति असहिष्णु होते हैं।
सप्रेम,
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