दुनिया भर में बड़े पैमाने पर एक ऐसे मध्यवर्ग का विस्तार हुआ है जो अपनी दैनंदिन जरूरतों से लेकर निजी और राजनीतिक हर तरह की समझ, दृष्टि और महत्वाकांक्षाओं तक के लिए मीडिया पर निर्भर हो गया है। यह निष्क्रिय और तटस्थ नागरिक बढ़ते उपभोक्तावाद का सबसे अच्छा ग्राहक है और आज मीडिया के नियन्त्रण के लिए चल रही होड़ का सबसे बड़ा कारण भी है। यही बाजार है, और यह कहना गैर-जरूरी है कि यह स्वयं मीडिया की ही उपज है
अगर लोकतन्त्र को बचाना है और मीडिया को समाज में सकारात्मक भूमिका निभानी है तो उसका लोकतान्त्रीकरण होना चाहिए। यानी उस पर एकाधिकार को रोका जाना जरूरी है। सम्भवत: दुनिया की सारी लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में आज यह सबसे बड़ी चुनौतियों में से है। बीसवीं सदी के मध्य से मीडिया में एकाधिकार की प्रवृत्ति में जबर्दस्त उभार देखा जा सकता है। पर अजीब बात यह है कि उस पर रोक की कोई भी प्रभावशाली कोशिश दुनिया में कहीं भी देखने में नहीं आती है। उल्टा हुआ यह है कि पूँजी निवेश की स्वतन्त्रता को मीडिया या अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से जोड़ा गया और इस तरह मीडिया में पूँजी निवेश की मनचाही छूट ली गई।
यह भी एक बड़ा तथ्य है कि इस बीच दुनिया में उद्योगों के हर क्षेत्र में एकाधिकार की प्रवृत्ति और पूँजी का वर्चस्व बढ़ा है और यह सब स्वतन्त्रता के नाम पर हुआ है। जैसे-जैसे आधुनिक प्रौद्योगिकी ने संचार को आसान बनाया है और दुनिया को एक गांव में बदल दिया है, जनमत को नियंत्रित करने और उसे मनचाही दिखा में मोड़ने की होड़ तेज होती गई है। दर्शक मूलत: एक सजग नागरिक या रसिक की जगह देखते ही देखते विवेकहीन उपभोक्ता में बदल गया है और उसे नियंत्रित करने की ताकत के कारण मीडिया पूँजीवाद के सबसे प्रभावशाली साथी के अलावा स्वयं में शुद्ध उद्योग बन गया है। इसके साथ ही दुनिया भर में बड़े पैमाने पर एक ऐसे मध्यवर्ग का विस्तार हुआ है जो अपनी दैनंदिन जरूरतों से लेकर निजी और राजनीतिक हर तरह की समझ, दृष्टि और महत्वाकांक्षाओं तक के लिए मीडिया पर निर्भर हो गया है। यह निष्क्रिय और तटस्थ नागरिक बढ़ते उपभोक्तावाद का सबसे अच्छा ग्राहक है और आज मीडिया के नियन्त्रण के लिए चल रही होड़ का सबसे बड़ा कारण भी है। यही बाजार है, और यह कहना गैर-जरूरी है कि यह स्वयं मीडिया की ही उपज है।
इसलिए आज मीडिया का हर उत्पाद ऐसी सामग्री है जो एक ओर स्वयं में उपभोग्य वस्तु है और दूसरा संभावित उपभोक्ता को पैदा करने के लिए उसी रूप में सप्रयास ढाली जाती है। ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ मीडिया के साथ ही हुआ हो, बल्कि यह प्रवृत्ति पूँजीवादी समाजों में मानव जीवन के लगभग हर क्षेत्र में देखने को मिलती है- शिक्षा और स्वास्थ्य इसके दो बड़े उदाहरण हैं जिन्हें उपभोक्ता सामग्री में बदलने के नकारात्मक परिणाम हमारे सामने आने शुरू ही हुए हैं। पर जहां तक मीडिया का सवाल है इसकी मार दुतरफी है- यानी यह स्वयं में भी उपभोग वस्तु है और उपभोक्ता बनाता भी है। निजी लाभ की आकांक्षा उद्यम को गति प्रदान करती है, जो कि पूँजीवाद का आधारभूत सिद्धांत है। पर इसी के साथ यह भी सही है कि निजी लाभ की यह इच्छा कभी न थमने वाली और बेलगाम महत्वाकांक्षा को जन्म देती है और समाज में बड़े पैमाने पर असमानता, असंतोष, असंतुलन तथा शोषण पैदा करती है। पर यह अलग मुददा है।
अगर भारत का ही उदाहरण लें और मीडिया तक ही सीमित रहें तो हम देख सकते हैं कि आजादी तक देश में कई ऐसे प्रादेशिक और स्थानीय अखबार थे जो स्थानीय सांस्कृतिक जीवन, राजनीति और महत्वाकांक्षाओं को स्वर देते थे। ये अखबार छोटी पूँजी और निजी उद्यम का प्रतिफलन थे न कि बड़े पूँजीगत निवेश के। इस पर भी बड़ी पूँजी के जो महानगरीय अखबार थे उनके प्रभाव को नियंत्रित करने और छोटे अखबारों के अस्तित्व को बचाने के लिए सरकारी स्तर पर नियम बनाए गए थे। इस बीच दो प्रेस कमीशन बैठाए गए जिन्होंने पूरे अखबारी उद्योग को जांचने और भारतीय आवश्यकताओं के अनुरूप उन्हें बेलगाम होने से रोकने के सुझाव दिए। जैसे कि पृष्ठ संख्या के अनुसार अखबार की कीमत तय करना, पठनीय सामग्री और विज्ञापन के बीच 60 और 40 प्रतिशत का संतुलन बनाना। विदेशी निवेश और प्रकाशनों पर पूरी तरह पाबन्दी। छोटे और स्थानीय अखबारों को संरक्षण प्रदान करना व उन्हें विशेष तौर पर विज्ञापन देकर बचाए रखने की कोशिश करना। प्रेस कर्मचारियों और पत्रकारों को नौकरी की सुरक्षा प्रदान करना आदि। यह बात और है कि उस तथाकथित नेहरूई समाजवादी दौर में भी सरकार बैनेट कोलमैन, हिन्दुस्तान टाइम्स समूह, इंडियन एक्सप्रेस समूह, स्टेट्समैन आदि बड़े अखबार मालिकों, जिन्हें तब जूट प्रेस के नाम से जाना जाता था, को पूरी तरह नियंत्रित करने में सफल नहीं हो पाई थी और न तो पृष्ठ संख्या के अनुसार अखबार की कीमत तय करने का नियम लागू हो पाया और न ही पठनीय सामग्री और विज्ञापन के बीच 60 और 40 प्रतिशत के संतुलन का नियम।
इससे भी ज्यादा खतरनाक बात यह हुई कि कोई भी प्रेस आयोग बहुसंस्करणों के खतरे का अन्दाजा नहीं लगा पाया और उन्होंने इससे बचने या कम से कम नियंत्रित करने का कोई सुझाव नहीं रखा। इस ओर एक अर्से तक किसी का ध्यान ही नहीं गया। बहुसंस्करण के तौर पर सबसे प्रभावशाली शुरूआत इंडियन एक्सप्रेस की ओर से हुई जो किसी भी शहर- मुबंई, चेन्नई, दिल्ली- में नंबर एक नहीं हो पाया न आज है। पर तब इसने जगह-जगह प्रेस के नाम पर केन्द्र और राज्य सरकारों के द्वारा दी जाने वाली सस्ती जमीन ली और उस पर बड़े-बड़े भवन बनवा कर किराया खाया, जो यह आज भी कर रहा है। यही काम कुछ हद तक दिल्ली में हिन्दुस्तान टाइम्स, नेशनल हेराल्ड, पैट्रीऑट और अब औपनिवेशिक दौर का अखबार स्टेट्समैन कर रहा है। पर यह पूरी सूची नहीं है। हां, अखबारों के नाम पर उठाए जाने वाले लाभों के दुरूपयोग का उदाहरण जरूर है।
सातवें और आठवें दशक में प्रौद्योगिकी के विकास के साथ ही साथ बहुसंस्करणों का विस्तार होना शुरू हुआ और नवें दशक तक तो यह पूरी तरह बाढ़ में बदल गया। जहां अंग्रेजी के अखबारों का विस्तार बड़े शहरों और राज्य की राजधानियों में हुआ वहां भाषायी अखबारों ने छोटे-छोटे शहरों तक में अपने संस्करण निकाल दिए। पिछले कुछ वर्षों में, पहले इलैक्ट्रानिक मीडिया में विदेशी निवेश को खोला गया और फिर उसके बाद समाचारपत्र उद्योग में भी विदेशी निवेश की इजाजत मिल गई। फिलहाल 26 प्रतिशत होने के बावजूद इसने भी स्थापित अखबारों के संस्करणों के विस्तार में मदद की है।
वेसे यह कहना मुश्किल है कि यह 26 प्रतिशत वास्तव में कितना है, क्योंकि अखबारों द्वारा इस बीच अपने निवेश को कई तरीकों से बढ़ा-चढ़ाकर बताने के कई किससे सामने आए हैं। वैसे विदेशी निवेश के नियमों को अपने हिसाब से चलाने का एक उदाहरण टाटा स्काई नाम की डीटीएच सेवा है जो वास्तव में मुर्डाख की कम्पनी है पर इसे आड़ टाटा का प्राप्त है। इसका परिणाम सीधा-सीधा यह हुआ कि सारे के सारे छोटे और निजी उद्यम से निकाले जाने वाले अखबार या तो बन्द हो गए या फिर उन्हें बड़े अखबारों ने खरीद लिया। आठवें दशक तक जहां बैनेट कोलमैन और इंडियन एक्सप्रेस समूह जैसी केवल दो-चार समाचारपत्र कम्पनियां ही बहुभाषायी पत्रों की प्रकाशक थीं, वहां आज विभिन्न भाषाई अखबारी समूहों तक ने एक से अधिक भाषाओं में अखबारों का प्रकाशन शुरू कर दिया है। दैनिक भास्कर इसका उदाहरण है जो अंग्रेजी के अलावा गुजराती अखबारों का भी प्रकाशक है।
यहां यह नहीं भूला जाना चाहिए कि आज भारत में अखबारों की जो स्थिति है- एकाधिकार, पत्रकारीय स्तर में गिरावट और सम्पादकीय संस्था का पतन, बहुसंस्करणों की भरमार, क्रॉस मीडिया निवेश, पत्रकारों और कर्मचारियों का शोषण व असुरक्षा, सब सरकारी नीतियों के कारण हुआ। दूसरे शब्दों में मीडिया उद्योग के आन्तरिक और बाह्य दबावों के कारण। यहां यह याद किया जा सकता है कि किस तरह से अनथक दबाव के तहत सरकार ने पहले मुर्डाख की कम्पनी स्टार न्यूज को भारत में आने दिया और फिर आई पूँजी। मुर्डाख ने इसके लिए स्वयं भारत के कई चक्कर लगाए। इधर अमेरिकी वाणिज्यिक दैनिक वॉल स्ट्रीट जर्नल का भारतीय संस्करण हैदराबाद से निकल ही रहा है तथा साथ में कई विदेशी नामी-गिरामी अखबारों ने अपने भारतीय फेसिमिली संस्करण निकाने शुरू कर दिए हैं। वह समय दूर नहीं है जबकि अन्य बड़े विदेशी अखबार भी भारत से प्रकाशन शुरू कर देंगे। या कहना चाहिए कि उन्हें ऐसा करने की इजाजत मिल जाएगी। अगर यह अभी नहीं हो पा रहा है तो इसका कारण यह है कि देसी अखबारों के मालिक अपने एकाधिकार को बचाने के लिए इसका विरोध कर रहे हैं।
आज लगभग हर बड़े मीडिया समूह का विदेशी मीडिया समूह से गठबन्धन है। हिन्दुस्तान टाइम्स समूह का मिंट नाम का दैनिक और इंडिया टुडे समूह का टेबलॉयड मेंल टुडे इसी तरह के गठबन्धन से निकलते हैं। यह कई तरह का है- कहीं अखबारों को सम्पादकीय सामग्री उपलब्ध करवाने का तो कहीं उन्हें आधुनिकतम प्रेस लगाने के लिए पूँजी उपलब्ध कराने का। हिन्दुस्तान टाइम्स समूह और दैनिक जागरण समूह ने अपने आधुनिक प्रेस इसी तरह लगाए हैं। पर विदेशी मीडिया संस्थानों से होने वाले गठबन्धन का असर दूसरी तरह से हो रहा है। इससे स्थानीय एकाधिकार का विस्तार तो हो रहा है साथ में पश्चिमी सांस्कृतिक साम्राज्यवाद भी बढ़ रहा है। फिलहाल शायद ही कोई बड़ा अंग्रेजी का अखबार ऐसा हो जो विदेशी सम्पादकीय सामग्री का बड़े पैमाने पर उपयोग न करता हो। यह सामग्री विदेशी समाचार एजेंसियों से आने वाली सामग्री से भिन्न है। एक ओर बहुसंस्करणों के कारण स्थानीय अखबारों की अकाल मौत हो रही है तो दूसरी ओर छोटे और प्रभावशाली स्थानीय अखबारों का बड़े मीडिया संगठनों द्वारा अधिग्रहण करने में मदद मिल रही है। उदाहरण के लिए दैनिक भास्कर समूह द्वारा सौराष्ट्र समाचार नामक स्थानीय दैनिक का और बैनेट कोलमैन द्वारा कन्नड़ दैनिक का अधिग्रहण।
असल में बड़ी पूँजी की प्रवृत्ति या दबाव यह होता है कि उसे लाभ भी ज्यादा चाहिए। अगर यह नहीं होगा तो बड़ा निवेश भी नहीं हो सकता। दूसरा जब पूँजी विशाल आकार धारण कर लेती है तो वह अपने आप में एक संस्थान और सत्ता केन्द्र में तब्दील हो जाती है। तब वह उद्योग विशेष के नियमों और उसके सामाजिक उत्तरदायित्व को भुलाकर अपने हितों के लिए सबकुछ को भुला देती है। इसका सबसे खौफनाक उदाहरण स्वयं पेड न्यूज है। 2009 महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में पेड न्यूज को लेकर हुए हल्ले के बावजूद 2010 में बिहार में हुए विधानसभा चुनावों में पेड न्यूज का सिलसिला जारी रहा। यह बात और किसी ने नहीं बल्कि स्वयं निर्वाचन आयोग के आयुक्त ने गणतन्त्र दिवस से सिर्फ एक दिन पहले दिल्ली में कही। साफ है कि अखबार मालिकों को न तो सरकार का डर है और न ही किसी तरह की शर्म या लिहाज।
अपने आप में यह देखना ज्ञानवर्द्धक साबित हो सकता है कि अक्सर बड़ी पूँजी नये प्रौद्योगिकी आविष्कारों में निवेश नहीं करती और तब तक देखती रहती है जब तक कि निजी उद्यमी या सार्वजनिक क्षेत्र इसकी सारी सम्भावनाओं को उजागर नहीं कर देते। उदाहरण के लिये 19वीं और 20वीं सदी में अखबारों और सिनेमा तथा बाद में रेडिया और टीवी और आज इंटरनेट से इस बात को समझा जा सकता है। बड़ी पूँजी बाद में छोटी पूँजी और निजी उद्यमों को अक्सर खरीद जरूर लेती है या फिर वे निजी उद्यम ही बड़ी पूँजी में बदल जाते हैं। जैसा कि इंटरनेट के सन्दर्भ से समझा जा सकता है। प्रौद्योगिकी मूल रूप में मनुष्य को मुक्त करने वाली होती है। वह मनुष्य को स्वतन्त्रता प्रदान करती है पर जैसे-जैसे उस पर बड़ी पूँजी का कब्जा होता जाता है उसे एक खास ढाँचे में ढाल कर निहित स्वार्थों की सेवा में लगा दिया जाता है। वह दिन दूर नहीं है जब कि गूगल, याहू, फेसबुक आदि का निजी स्वामित्व कॉरपोरेट कम्पनियों के हाथ में चला जाएगा और तब ब्लॉंगिंग तथा अन्य वेबसाइटों का किस तरह से नियन्त्रण होगा, इसका उदाहरण विकीलीक्स के अनुभव से समझा जा सकता है।
इंटरनेट पर पोर्नोग्राफी इस बात का एक उदाहरण है कि किस तरह से लाभ की इच्छा एक अच्छे-खासे माध्यम को विकृत कर सकती है। वैसे आप कह सकते हैं कि पोर्नोग्राफी के माध्यम से भी सकारात्मक काम किया जा सकता है क्योंकि पिछले दिनों फ्रांस के सबसे प्रतिष्ठित अखबार ला मांद को इंटरनेट पर पोर्नोग्राफी का धन्धा करने वाले व्यक्ति ने खरीद लिया है। हम किस दौर में हैं? यह समझा जा सकता है। पैसा सिर्फ उन चीजों से कमाया जा सकता है जो अगम्भीर और अक्सर ही समाज विरोधी होती हैं। या आप इसे यों भी कह सकते हैं, पहले आप सारे समाज की रूचि का अवमूल्यन करें और फिर उस कमाए पैसे से, समाज ने जो सदियों की मेहनत से बनाया है, उस पर कब्जा कर लें। क्या ला मांद का नया मालिक इस अखबार को अगर यह भविष्य में और घाटे में जाएगा तो भी चलाएगा? और अगर चलाएगा तो वह पैसा कहाँ से आ रहा होगा? फिर सवाल यह भी है कि क्या ऐसे अनाचार के पैसे से चलाए गए अखबार का कोई नैतिक औचित्य होगा? क्या यह अखबार किसी भी रूप में पोर्नोग्राफी या वेश्यावृत्ति जैसी प्रवृत्ति के खिलाफ कुछ कहने की स्थिति में होगा?
इसलिए यहां समस्या यह नहीं है कि प्रौद्योगिकी अनुसंधान और विकास कैसे हो बल्कि यह है कि जो विकास हो रहा है, उसका लाभ सामान्य नागरिक को कैसे मिले? यहीं आकर सामाजिक हस्तक्षेप की, वह भी प्रभावशाली और सक्रिय – (वर्तमान प्रेस कादंसिल जैसी नहीं)- की जरूरत समझ में आने लगती है। इसलिए उद्योगों- विेशेष कर मीडिया- का यह तर्क बेमानी है कि उसे अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर स्व-नियमन (सेल्फ रेग्यूलेशन) की छूट मिले। अगर इस सन्दर्भ में समय पर कदम नहीं उठाए गए तो आज जो हालात हमारे देश में समाचारपत्रों को लेकर हो चुके हैं वही इंटरनेट या आनेवाली हर प्रौद्योगिकी के भी होने अनिवार्य हैं।
यह तो ठीक है कि मीडिया का लोकतान्त्रीकरण हो पर समस्या यह है कि यह आखिर हो कैसे? या उसे एकाधिकार से कैसे बचाया जाए? यह बात अब किसी से छिपी नहीं है कि अखबारों के बहुसंस्करणों और क्रॉस मीडिया निवेश यानी मीडिया की एक इकाई द्वारा दूसरी में निवेश जैसे कि समाचारपत्र समूहों द्वारा टीवी चैनलों का चलाया जाना या फिर इंटरनेट कम्पनियों की शुरूआत, ने स्वयं लोकतन्त्र के लिए खतरा पैदा कर दिया है। पेड न्यूज के अलावा, जिसमें देश के बड़े-बड़े मीडिया घरानों जैसे कि बैनेट कोलमैन, हिन्दुस्तान टाइम्स से लेकर दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, लोकमत आदि हर तरह के और हर भाषा के अखबार शामिल हैं, बहुसंस्करणों का सबसे बड़ा खतरा देश की बहुलता और वैचारिक विविधता को खत्म करने के साथ ही साथ भाषा के स्तर पर सपाटता पैदा कर उसकी स्वयंस्फूर्तता को तो खत्म कर ही रहे हैं, हिन्दी जैसी भाषा को लोक और स्थानीय भाषाओं की शब्द सम्पदा से भी वंचित कर रहे हैं। यह एक मायने में पेड न्यूज से भी ज्यादा घातक है क्योंकि ये अखबार अपने एकीकृत सम्पादकीय और न्यूजरूमों व मुख्य समाचारों या सम्पादकीय नीतियों के कारण, एक ऐसे समाज का निर्माण कर रहे हैं जहां दूसरे किसी मत को अभिव्यक्त करने को कोई मंच ही नहीं रहेगा। इसी के साथ ये अखबार लगातार पाठकीय सरोकारों को इस तरह घटा रहे हैं कि वे स्थानीयता से आगे देख ही नहीं पाएँगे और अपनी समस्याओं को बाकी समाज की समस्याओं से जोड़कर देख पाने में पूरी तरह अक्षम हो जाएँगे। कहने का तात्पर्य यह है कि इन अखबारों के सभी संस्करणों में सिर्फ वही समाचार जगह पाते हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण हों या सनसनीखेज हों अन्यथा ऐसा कोई समाचार जो स्थानीय स्तर पर पूरे प्रदेश या पूरे समाज के लिए महत्व का हो, एक संस्करण के अलावा दूसरे में जगह ही नहीं पाता है।
यही नहीं बहुसंस्करणों ने पत्रकारिता में पत्रकारों के लिए जो जगह हो सकती थी उसे भी कम किया है। यानी प्रादेशिक या स्थानीय अखबारों में सम्पादक, सहायक सम्पादक तथा उनके प्रादेशिक या राष्ट्रीय स्तर के संवाददाता आदि की अब कोई गुंजाईश नहीं रही है। असल में बहुसंस्करणों के प्रभावों को विस्तार से समझने और विश्लेषित करने का समय आ गया है।
इस दिशा में आगे बढ़ने से पहले यह जान लेना लाभप्रद होगा कि पिछली सदी में उदार पश्चिमी लोकतन्त्रों में भी अखबारों को चलाने के नियम थे। स्वयं अमेरिका में यह नियम था कि कोई भी विदेशी नागरिक उस देश में कोई अखबार नहीं खरीद सकता। इसी के चलते मुर्डाख को अमेरिकी नागरिकता लेनी पड़ी। दूसरा नियम यह था कि क्रॉस मीडिया निवेश नहीं होगा और तीसरा यह कि बहुसंस्करण नहीं होंगे। जहाँ तक दूसरे नियम का सवाल है, इसमें अमेरिका में अक कुछ हद तक छूट दे दी गई लगती है पर बहुसंस्करण वहाँ अब भी नहीं निकाले जा सकते। स्वयं ब्रिटेन में आज भी व्यवसायिक टीवी चैनलों के बरक्स बीबीसी को चलाए रखा गया है जिससे संतुलन बना रहे और दर्शकों के लिए एक विकल्प भी उपलब्ध हो। बीबीसी कोई सामान्य चैनल नहीं है। उसकी सफलता और प्रभाव के बारे में बतलाने की जरूरत नहीं है। पर सबसे बड़ी बात यह है कि यह सार्वजनिक क्षेत्र का होने के बावजूद सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं है। इसका एक उदाहरण नब्बे के दशक का है जबकि बीबीसी के महानिदेशक ने अपने विदेश मन्त्री से कह दिया था कि हमें सरकार से देशभक्ति सीखने की जरूरत नहीं है। गोकि इराक युद्ध में बीबीसी की भूमिका कोई बहुत सकारात्मक और स्वतन्त्र नहीं रही पर इसके बावजूद उसकी भूमिका वॉयर ऑफ अमेरिका या फिर निजी क्षेत्र के फॉक्स न्यूज जैसे चैनलों से बेहतर ही रही। यहाँ यह याद करना जरूरी है कि फॉक्स न्यूज के मालिक मुर्डाख, जो अब इग्लैंड के द टाइम्स और अमेरिका के वॉल स्ट्रीट जर्नल जैसे जाने-माने अखबारों के भी मालिक हैं, सदा खुले तौर पर राजनीति का पक्ष लेते हैं और उनके अखबार दुनिया भर में दक्षिणपंथी राजनीतिक विचारधारा का समर्थन करते हैं।
इसलिए लोकतान्त्रीकरण की दिशा में सबसे पहला कदम यही है कि एकाधिकार को तोड़ने की तकल शुरूआत की जाए। सबसे पहले नये प्रेस आयोग की स्थापना की जानी चाहिए। दूसरा, तत्काल एक नियामक संस्था बनाई जानी चाहिए। निश्चय ही आज हम जहाँ हैं, वहां बहुसंस्करणों को खत्म करने की नहीं सोची जा सकती। पर से नियंत्रित तो किया ही जा सकता है। इस तरह की अंधेर तो नहीं होनी चाहिए कि एक-एक अखबार के 35 से 40 तक संस्करण हो जाएँ। अगर इस पर रोक नहीं लगी तो वह दिन दूर नहीं जब यह संख्या हजार-पाँच सौ तक पहुँच जाएगी।
इस सन्दर्भ में जो तरीके अपनाए जा सकते हैं और जिन पर जनता व राजनीतिक दलों को दबाव देना चाहिए वे कुछ ये हो सकते हैं:
हर संस्करण का एक सम्पादक होना जरूरी हो। समाचारों के लिए एक व्यक्ति का जिम्मेदार होना सही तरीका नहीं है। सम्पादक मात्र समाचारों के लिए ही जिम्मेदार नहीं होता बल्कि वह अखबार की नीतियों और उसके सम्पादकीयों के लिए भी जिम्मेदार होता है। इसलिए सम्पादक के पद को कानूनी रूप से अनिवार्य बनाया जाए। एक आदमी के कई संस्करणों का सम्पादक होने पर रोक लगे।
दूसरा हर संस्करण में अन्य संस्करणों से सामग्री लेने की सीमा तय होनी चाहिए और साथ में हर संस्करण का एक अपना सम्पादकीय लिखा जाना अनिवार्य होना चाहिए।
हर राज्य में किसी भी अखबार के संस्करणों की सीमा होनी चाहिए। यह सीमा राज्य की जनसंख्या या उसके आकार से भी निर्धारित हो सकती है।
हर संस्करण अपने आप में एक अलग कम्पनी होना चाहिए। विज्ञापनों के लिए सम्मिलित दरों की इजाजत नहीं होनी चाहिए। आज विज्ञापनों की हालत यह है कि देश के कुल विज्ञापन का तीन चौथाई बड़े मीडिया समूह हड़प जाते हैं। और इसके तीन-चौथाई का भी तीन चौथाई दो-तीन मीडिया समूहों के पास चला जाता है।
हर संस्करण अपने आप में एक अलग कम्पनी होना चाहिए। विज्ञापनों के लिए सम्मिलित दरों की इजाजत नहीं होनी चाहिए। आज विज्ञापनों की हालत यह है कि देश के कुल विज्ञापन का तीन चौथाई बड़े मीडिया समूह हड़प जाते हैं। और इसके तीन-चौथाई का भी तीन चौथाई दो-तीन मीडिया समूहों के पास चला जाता है।
अन्त में यह बात दोहराने की जरूरत है कि अखबारों के दामों का कोई तो तर्क होना चाहिए। उनके पृष्ठों की संख्या और कीमत के बीच सम्बन्ध होना चाहिए। यानी यह बात निश्चित होनी चाहिए कि कितने पृष्ठ के अखबार की कीमत कम-से-कम कितनी होनी चाहिए।
बड़े अखबारों को सब्सिडाइज्ड दरों पर अखबारी कागज नहीं मिलना चाहिए। आयात किए जाने वाले कागज पर पूरा तटकर वसूला जाना चाहिए और इससे निजी प्रयासों से निकाले जा रहे अखबारों और पत्रिकाओं को मदद दी जानी चाहिए। दूसरे शब्दों में छोटे और मंझोले अखबारों को बढ़ावा देने के लिए स्पष्ट नीति होनी चाहिए। (साभार: मीडिया का वर्तमान -संपादक अकबर रिज़वी, अनन्य प्रकशन)
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