Tuesday, May 10, 2016

आज तक किसी ने इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया है ।

खबरों के जंगल में एक महत्वपूर्ण खबर मानों खो सी गई । हर साल गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति देशवासियों को देश की समस्याओं के बारे में संबोधित  करते हैं। टेलीविजन के आज के जमाने में यह संबोधन विदेशों में रहने वाले भारतीय भी सुनते हैं । विदेशों में जो भारत के दूतावास हैं वहां राष्ट्रपति के संबोधन को सुनने के लिये विशेष प्रबंध किये जाते हैं । परम्परा यह है कि राष्ट्रपति गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट् के नाम जो संबोधन करते हैं वह नौकरशाहों द्वारा तैयार किया गया घिसा पिटा भाषण होता है जिसे अधिकतर मामलों में कैबिनेट यों का त्यों पास कर देता है और राष्ट्रपति इस भाषण में महज एक औपचारिकता निभाते हैं। 
परन्तु इस वर्ष राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का भाषण पूर्व राष्ट्रपतियों के भाषण से एकदम अलग था । प्रणब मुखर्जी जब राष्ट्रपति बनने के पहले कैबिनेट में प्रधानमंत्री के बाद वरिष्ठतम सदस्य थे उस समय भी उनकी गणना उन लोगों में होती थी जिन्हें भारत के इतिहास का, भारत के आर्थिक विकास का और  भारत की समस्याओं का गहरा ज्ञान था । अपने इस ज्ञान को राष्ट्रपति मुखर्जी ने अपने भाषण में दर्शाया है । लीक से हट कर उन्होंने दो टूक बातें कही हैं । उनका कहना है कि हम चाहे अपनी उपलब्धियों का लाख ढोल पीटें सच यह है देश की जनता आज जितनी बेचैन और निराश है उतनी पहले कभी नहीं थी । उन्होंने ठीक कहा है कि हम लम्बे चौड़े आंकड़े देकर लोगों को भ्रमित  नहीं कर  सकते हैं । आम जनता जो महंगाई और भूख से ग्रसित है, क्या उसका पेट आंकड़ों से भरेगा? भूखी जनता का जि करते हुए उन्होंने ठीक कहा है कि खाली पेट से सपने नहीं देखे जाते । 
भारत के गणतंत्र की चाहे  जितनी आलोचना हो, एक बात की तो प्रशंसा करनी ही होगी कि अपने देश में विचाराभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता है । गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में निर्भीक होकर अनेक टीवी चैनलों ने यह दिखाया कि अपना देश किस प्रकार 'भारत' और 'इंडिया' में बंटा हुआ है । 'भारत' देश का वह भाग है जहां गरीब लोग दाने दाने के लिये तड़पते हैं । जहां कड़कड़ाती ठंड में सर्द रातों में दिल्ली और लखनउ जैसे शहरों मे लोग ठिठुर कर मर जाते हैं, उन्हें देखने वाला कोई नहीं है। अकेले उत्तर प्रदेश में 200 से अधिक लोग भयानक सर्दी में रैन बसेरों के अभाव में और किसी कम्बल या गर्म कपड़े के अभाव मे इस वर्ष ठिठुर कर मर गये । यही हालत कमोबेस दिल्ली में भी थी जहां भयानक सर्दी में सर्द रातों में लोग ठिठुरते रहे और उन्हें सिर ढकने के लिये कहीं कोई छत नहीं मिली। रैन बसेरों का तो घोर अभाव था । अभावग्रस्त लोग यदि सड़कों पर ठिठुर कर नहीं सोते तो आखिर कहां जाते? सबसे बुरी हालत तो उन मरीजों की थी जो देश के भिन्न भिन्न भागों से  'एम्स' और 'सफदरजंग' आदि अस्पतालों में चिकित्सा के लिये आते हैं । सर्द रातों में वे ठिठुरते हुए फु टपाथों पर समय बिताते हैं । उनमें से अनेक लोग ठंड लगने के कारण अकाल मृत्यु के शिकार हो  जाते हैं । देश के विभिन्न समाचारपत्रों ने कई बार इस गंभीर मामले पर सांसदों का  ध्यान आकर्षित किया और उनसे अपील की कि उन्हें जो  सांसद निधि मिलती है उसका एक भाग खर्च कर वे दिल्ली में गरीब मरीजों के लिये धर्मशाला बनवा दें । यह एक अत्यन्त ही पुण्य का काम होगा और समाज में शांति बनाये रखने में इसका बहुत बड़ा योगदान होगा । परन्तु आज तक किसी भी सांसद ने इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया है ।  राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने ठीक कहा है कि जिस तरह समाज में अमीर और गरीब के बीच खाई बढ़ती जा  रही है । वह  एक अत्यन्त ही खतरनाक स्थिति है । इन्हीं परिस्थितियों के कारण नक्सलवाल जैसी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं जो अत्यन्त ही चिन्ता का विषय है । कोई कुछ कहे और बन्दूक तथा  गोली के बल पर नक्सलवाद को नियंत्रित करने का चाहे जितना प्रयास किया जाए, जब तक पढे लिखे युवा बेकार होंगे और उन्हें जीविका का कोई साधन नही मिलेगा और दूसरी तरफ  वे देखेंगे कि समाज के मुट्ठीभर लोग तिकड़म से करोड़पति औैर अरबपति बन गये हैं तो उनके मन में बेचैनी पैदा होगी ही और जाने अनजाने वे हथियार उठा लेंगे । यह एक अत्यन्त ही गंभीर समस्या है जिस पर सरकार को अविलम्ब ध्यान देने की आवश्यकता है ।  आज भी दिल्ली जैसे शहर में शादी ब्याह पर पानी की तरह काला धन बहाया जाता है । एक तरफ पांच सितारा होटलों में महंगे व्यंजन थोड़े बहुत चख कर फेंक दिये जाते हैं । दूसरी तरफ पास की झुग्गी झोपड़ियों में बच्चे खाने के लिये तड़पते रहते हैं। यह स्थिति लोेग बहुत दिनों तक बर्दाश्त  नहीं करेंगे । खतरे की घंटी बज चुकी है । यदि समय रहते हम सचेत नहीं होते हैं तो इसके बुरे परिणाम हमें और आने वाली पीढ़ियों को भुगतने होंगे । हम लाख कहें कि भारत ने सन्तोषजनक आर्थिक विकास किया है । परन्तु समाज में फैली हुई असमानता को देखकर ऐसा लगता है कि इस तरह का दावा बेमानी है ।  राष्ट्रपति मुखर्जी ने दामिनी के समर्थन में  हुए प्रदर्शन का जि किया और कहा कि यह घिनौना कृत्य हमारे चेहरे पर एक काला धब्बा है । उन्होंने परोक्ष  रूप से कहा कि पीड़िता के समर्थन में जो युवाओं का विजय चौक और राजपथ पर प्रदर्शन हुआ उसकी गंभीरता को हम नजरन्दाज नहीं कर सकते हैं । हम अपने कलेजे पर हाथ रखकर कहें कि आजादी के छ: दशकों के बाद हमने अपनी महिलाओं को क्या सुरक्षा प्रदान की है? इस सिलसिले में भारत के प्रधान न्यायाधीश कबीर ने कहा कि युवाओं का प्रदर्शन शत-प्रतिशत सही था और उनके  मन में भी यह इच्छा हो रही थी कि काश इस प्रदर्शन में वे भी भाग लेते । 
इस प्रदर्शन में युवाओं पर  पुलिस द्वारा जो  बर्बर अत्याचार किया गया उसकी सारे देश में निन्दा हुई है ।  संक्षेप में 'सोशल मीडिया' ने देश को जगा दिया है और यदि हम समय रहते युवकों की बेचैनी को नहीं समझ सके तो दुर्भाग्यवश हम अराजकता की ओर बढ़ रहे हैं।  यह तो मानकर चलना चाहिये कि देश करवट बदल रहा है और आम जनता आर्थिक असमानता को बहुत दिनों तक बर्दाश्त नहीं कर सकेगी । 
(लेखक पूर्व सांसद एवं पूर्व राजदूत हैं)

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