Sunday, May 8, 2016

आलोचना-पाठ

दुनिया में कोई आदमी ऐसा नहीं है, जो अपने को देख सकता है. हां, दूसरों को देखना सबको आता है. हमको मालूम है कि तुम्हारा चेहरा कैसा है, तुम्हारे बाल कैसे हैं, तुम्हारी नाक कैसी है, तुम कैसा बोलते हो, हमको यह सब मालूम पड़ जायेगा, मगर तुमको खुद कभी मालूम नहीं पड़ेगा, सबका यही हाल है. 
दुनिया में जितने जीव हैं, इस मामले में सब अज्ञान में हैं. मनुष्य स्वयं कैसा है, इसकी जानकारी दूसरे से होती है. जैसे चेहरे की जानकारी दर्पण से होती है, वैसे ही तुम्हारे स्वभाव की जानकारी निंदा करनेवाले से होती है. जो तुम्हारी आलोचना करता है, निंदा करता है, वही तुम्हारे चेहरे का, स्वभाव का सही रंग बतलाता है. 
इसलिए कभी कोई कहे कि तुम ऐसा क्यों करते हो, तो उस समय प्रतिकार नहीं करना चाहिए, न ही अपनी सफाई देनी चाहिए. कहना कि हां, ऐसा है, फिर उस पर आत्म-निरीक्षण करना चाहिए. आत्म-निरीक्षण के वक्त आदमी को अपने विवेक को जज बनाना पड़ता है, जो तुम्हारी तरफदारी न करे. वकील तरफदारी करता है, मगर जज तरफदारी नहीं करता. अपनी तरफदारी नहीं करनी चाहिए. 
इसको कहते हैं- स्व-आलोचना. ईसाई धर्म कहता है, ‘अपनी आलोचना किया करो.’ तुलसीदास जी ने भी कहा है- ‘मो सम कौन कुटिल खल कामी।’ मतलब उन्होंने स्व-आलोचना को स्वीकार किया है. बहुत मुश्किल है अपने चेहरे को देख पाना.
बंदों पाँचों परम-गुरु, चौबीसों जिनराज।
करूँ शुद्ध आलोचना, शुद्धिकरन के काज ॥
सुनिए, जिन अरज हमारी, हम दोष किए अति भारी।
तिनकी अब निवृत्ति काज, तुम सरन लही जिनराज ॥
इक बे ते चउ इंद्री वा, मनरहित सहित जे जीवा।
तिनकी नहिं करुणा धारी, निरदई ह्वै घात विचारी ॥
समारंभ समारंभ आरंभ, मन वच तन कीने प्रारंभ।
कृत कारित मोदन करिकै, क्रोधादि चतुष्ट्‌य धरिकै॥
शत आठ जु इमि भेदन तै, अघ कीने परिछेदन तै।
तिनकी कहुँ कोलौं कहानी, तुम जानत केवलज्ञानी॥
विपरीत एकांत विनय के, संशय अज्ञान कुनयके।
वश होय घोर अघ कीने, वचतै नहिं जात कहीने॥
कुगुरुनकी सेवा कीनी, केवल अदयाकरि भीनी।
याविधि मिथ्यात भ्रमायो, चहुँगति मधि दोष उपायो॥
हिंसा पुनि झूठ जु चोरी, पर-वनितासों दृग जोरी।
आरंभ परिग्रह भीनो, पन पाप जु या विधि कीनो॥
सपरस रसना घ्राननको, चखु कान विषय-सेवनको।
बहु करम किए मनमाने, कछु न्याय-अन्याय न जाने॥
फल पंच उदंबर खाये, मधु मांस मद्य चित्त चाये।
नहिं अष्ट मूलगुण धारे, विषयन सेये दुखकारे॥
दुइवीस अभख जिन गाये, सो भी निस दिन भुँजाये।
कछु भेदाभेद न पायो, ज्यों त्यों करि उदर भरायौ॥
अनंतानु जु बंधी जानो, प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानो।
संज्वलन चौकड़ी गुनिये, सब भेद जु षोडश मुनिये॥
परिहास अरति रति शोग, भय ग्लानि तिवेद संजोग।
पनवीस जु भेद भये इम, इनके वश पाप किये हम॥
निद्रावश शयन कराई, सुपने मधि दोष लगाई।
फिर जागि विषय-वन भायो, नानाविध विष-फल खायो॥
आहार विहार निहारा, इनमें नहिं जतन विचारा।
बिन देखी धरी उठाई, बिन सोधी बसत जु खाई॥
तब ही परमाद सतायो, बहुविधि विकल्प उपजायो।
कुछ सुधि बुधि नाहिं रही है, मिथ्या मति छाय गई है॥
मरजादा तुम ढिंग लीनी, ताहूँमें दोष जु कीनी।
भिन-भिन अब कैसे कहिये, तुम खानविषै सब पइये॥
हा हा! मैं दुठ अपराधी, त्रस-जीवन-राशि विराधी।
थावर की जतन ना कीनी, उरमें करुना नहिं लीनी॥
पृथ्वी बहु खोद कराई, महलादिक जागाँ चिनाई।
पुनि बिन गाल्यो जल ढोल्यो, पंखातै पवन बिलोल्यो॥
हा हा! मैं अदयाचारी, बहु हरितकाय जु विदारी।
तामधि जीवन के खंदा, हम खाये धरि आनंदा॥
हा हा! मैं परमाद बसाई, बिन देखे अगनि जलाई।
ता मधि जे जीव जु आये, ते हूँ परलोक सिधाये॥
बींध्यो अन राति पिसायो, ईंधन बिन सोधि जलायो।
झाडू ले जागाँ बुहारी, चिवंटा आदिक जीव बिदारी॥
जल छानी जिवानी कीनी, सो हू पुनि डार जु दीनी।
नहिं जल-थानक पहुँचाई, किरिया विन पाप उपाई॥
जल मल मोरिन गिरवायौ, कृमि-कुल बहु घात करायौ।
नदियन बिच चीर धुवाये, कोसन के जीव मराये॥
अन्नादिक शोध कराई, तामे जु जीव निसराई।
तिनका नहिं जतन कराया, गलियारे धूप डराया॥
पुनि द्रव्य कमावन काजै, बहु आरंभ हिंसा साजै।
किये तिसनावश अघ भारी, करुना नहिं रंच विचारी॥
इत्यादिक पाप अनंता, हम कीने भगवंता।
संतति चिरकाल उपाई, बानी तैं कहिय न जाई॥
ताको जु उदय अब आयो, नानाविधि मोहि सतायो।
फल भुँजत जिय दु:ख पावै, वचतै कैसे करि गावै॥
तुम जानत केवलज्ञानी, दु:ख दूर करो शिवथानी।
हम तो तुम शरण लही है, जिन तारन विरद सही है॥
जो गाँवपति इक होवै, सो भी दुखिया दु:ख खोवै।
तुम तीन भुवन के स्वामी, दु:ख मेटहु अंतरजामी॥
द्रोपदि को चीर बढ़ायो, सीताप्रति कमल रचायो।
अंजन से किये अकामी, दु:ख मेटहु अंतरजामी।
मेरे अवगुन न चितारो, प्रभु अपनो विरद निम्हारो।
सब दोषरहित करि स्वामी, दु:ख मेटहु अंतरजामी॥
इंद्रादिक पद नहिं चाहूँ, विषयनि में नाहिं लुभाऊँ।
रागादिक दोष हरीजै, परमातम निज-पद दीजै॥
दोषरहित जिन देवजी, निजपद दीज्यो मोय।
सब जीवन को सुख बढ़ै, आनंद मंगल होय॥
अनुभव मानिक पारखी, ‘जौहरि’ आप जिनंद।
यही वर मोहि दीजिए, चरण-सरण आनंद ॥
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कैसा लगता है जब कोई तुम पर दोषारोपण करता है? सामान्यत: जब कोई तुमको दोष देता है तुम बोझिल और खिन्न महसूस करते हो या दुखी हो जाते हो।तुम आहत होते हो क्योंकि तुम आरोपों का प्रतिरोध करते हो।बाहरी तौर पर तुम विरोध न भी करो परंतु अन्दर कहीं जब तुम प्रतिरोध करते हो तो तुम्हे पीड़ा होती है।जब तुम्हे कोई दोष देता है तो साधरणतया तुम उलटकर उनको दोष देते हो या अपने भीतर एक दीवार खड़ी कर लेते हो।

एक आरोप तुमसे तुम्हारे  कुछ बुरे कर्म ले लेता है।यदि तुम इसको समझो और कोई प्रतिरोध न खड़ा करते हुए इस बारे में खुशी महसूस करो तो तुम्हारा कर्म तिरोहित हो जायेगा।बाहरी तौर पर तुम विरोध कर सकते हो पर भीतर ही भीतर प्रतिरोध मत करो बल्कि खुश हो जाओ,"आहा, बहुत खूब, कोई है जो  मुझ पर आरोप लगाकर मेरे कुछ बुरे कर्म ले रहा है।" और इस तरह तुरंत ही तुम हल्का महसूस करने लगोगे।
धैर्य और विश्वास ही आरोपों से निबटने का रास्ता है।यह विश्वास कि सत्य की हमेशा विजय होगी और स्थिति बेहतर हो जायेगी।
तुम चाहे कोई भी काम करो, कोई न कोई  ऐसा होगा जो तुम्हारी गलती निकालेगा। जोश और उत्साह खोये बिना अपना काम करते रहो।एक प्रबुद्ध व्यक्ति अपने स्वभाव के अनुसार अच्छा कर्म करता रहेगा। उसका रवैया किसी की प्रशंसा अथवा आलोचना से प्रभावित नही होगा।
  अपनी आत्मा के उत्थान के लिये और मन को आलोचना की प्रवृत्ति से बचाने के लिये आवश्यकता है कि तुम अपनी संगति को आँको।सोहबत का असर तुम्हे उपर उठा सकता है या नीचे गिरा सकता है।वह संगत जो तुम्हे शक,आरोपों, शिकायतों,क्रोध व लालसाओं की तरफ घसीटे, कुसंगत है। और वह जो तुम्हे आनंद,उत्साह,सेवा, प्रेम,विश्वास और ज्ञान की दिशा में आकर्षित करे, सुसंगत है।
एक अज्ञानी कहता है,"मुझे दोष मत दो क्योंकि  इससे मुझे चोट पँहुचती है।"एक प्रबुद्ध व्यक्ति कहता है,"मुझे दोष मत दो क्योंकि इससे तुम्हे चोट पँहुचेगी।"यह बेहद खूबसूरत बात है।कोई तुम्हे दोषारोपण न करने की चेतावनी देता है क्योंकि इससे वे आहत होंगे और बदले की भावना से ग्रस्त होकर वह तुम्हे नुकसान पँहुचायेंगे।वहीं दूसरी तरफ,एक प्रबुद्ध व्यक्ति करूणा के कारण आलोचना न करने के लिये कहता है।
रौब जमाने और दोषारोपण करने की प्रवृत्ति सम्बन्धों को नष्ट करती है।अत:तुम्हे पता होना चाहिये कि दूसरों की गलतियाँ निकालने या उन पर आरोप लगाने की बजाय कैसे दूसरों की प्रश़ंसा करें और एक परिस्थिति को बेहतर बनायें।तुम्हारी प्रतिबद्धता दूसरों को उपर उठाने के प्रति होना चाहिये।तभी तुम किसी के लिये भी सही व्यक्ति हो। तुम्हे सभी का प्रेम मिलेगा जब तुम उन्हे जानबूझकर आहत नही करोगे।
तुम यहाँ दोषारोपण या आलोचना करने के लिए नहीं हो।आलोचना दो किस्म के लोगों की तरफ से आ सकती है। जब उनमें संकीर्णमनोवृत्ति होती है तो वे  अपने अज्ञानवश आलोचना करते हैं।या फिर वे सचमुच तुम्हारे अन्दर  कुछ अच्छा उभारना चाहते हैं।यदि आलोचना तुम्हारे अन्दर बदलाव  लाने के प्ररिप्रेक्ष्य से आ रही है,तो तुम उन्हे उनकी करूणा के लिए धन्यवाद दो।तुम अपने में सुधार ला सकते हो क्योंकि उनकी आलोचना तुम्हे अपनी भूल का अहसास दिलाती है।यदि आलोचना तुम्हे नीचा दिखाने के परिप्रेक्ष्य से आ रही है, करूणामय बनो और  उन्हे हँसी में टाल दो।दोनों स्थितियों में तुम्हे चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं।
"निदंक नियरे राखिये आँगन कुटि छबाय, बिनु पानी बिनु  साबुना निर्मल करे सुभाय।"भारत के महान स़ंत कबीरदास ने कहा है कि जो तुम्हारी आलोचना करते हैं उन्हे अपने निकट रखो यह तुम्हारे घर, तुम्हारे मन को स्वच्छ रखेगा -साबुन और पानी की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।यदि तुम्हारे आसपास सभी तुम्हारी प्रशंसा करते रहे तो वे तुन्हे तुम्हारी कमियाँ  नहीं दिखायेंगे।वे लोग जो आलोचना करते हैं, प्रामाणिक हैं क्योंकि वे अपना दिल खोल कर सामने रख रहें हैं।
आवश्यकता है कि तुम रचनात्मक समालोचना दे सको या स्वीकार कर सको।एक सुशिक्षित व्यक्ति न तो आलोचना से कतरायेगा न ही आलोचक से किनारा कर लेगा।तुम्हारी परिपक्वता का आकलन इस बात पर निर्भर   करता है कि तुम आलोचना को कैसे सँभालते हो।आलोचना को स्वीकार करने की क्षमता तुम्हारे आत्मिक बल का मापदंड है।

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