कहते हैं जब पिता अपने पुत्र से और गुरू अपने शिष्य से डरने लगे तो समझ जाईयेगा, परिवार और समाज का पतन सन्निकट है। सोचा था जे.एन.यू. प्रकरण पर जब इतना लिखा, कहा जा चुका है तो अब अपनी लेखनी से मामले को विस्तार नहीं दूंगा। कारण स्पष्ट है, गन्दगी बार बार कुरेदने से सड़ांध फैलती है, जो किसी भी संक्रामक बीमारी का कारण बन सकती है। लगता है कन्हैया मानसीक बीमार है। अगर ऐसा न होता तो वह कोर्ट की हिदायत के बावजूद भारतीय सेना पर टिप्पणी न करता। उसे उपचार की आवश्यकता है। इस भद्दी टिप्पणी के कारण इस लेख की आवश्यकता महसूस की इसीलिए लिख रहा हूँ........
कुछ बाते बहुत अजीब है। मुझे लगता है, मीडिया का फोकस जिन बातो पर ज्यादा होना चाहिये था वहाँ से मीडिया किनारा कर गया। क्या कारण हैं की जे.एन.यू. में देशद्रोह का नारा लगने के बावजूद–
* विश्वविद्यालय के छात्रों एवं प्रोफेसरो ने देशद्रोह के नारे लगाने वालो के खिलाफ ना तो मार्च निकाला और ना ही समवेत स्वर में इनका विरोध किया?
* कन्हैया ने कुलपति और रजिस्टार को इन देशद्रोहियों के खिलाफ न तो सूचित किया और ना ही कार्यवाही की संस्तुति या अनुरोध किया?
* आगे इस तरह की कार्यवाही न हो इसका कोई स्पष्ट रोड मैप विश्वविद्यालय की तरफ से जारी नहीं किया गया?
* प्रोफेसरो की भूमिका पर विश्वविद्यालय की चुप्पी उसकी असहायता को दर्शाता है।
अब वक्त आ गया है, कन्हैया और उसके साथियों को बताना पडेगा कि वह देश को तोडने का नारा लगाने वालो के साथ है या खिलाफ? क्या वह अदालत में उन लोगो के खिलाफ गवाही देने के लिये तैयार है? जो लोग इनका सर्मथन कर रहे है, उन्हे सोचना चाहिये कि आतंकवादियों और देश तोडने की बात करने वालो को नायक बनाने की कोशिश करके वे किसका भला कर रहे है?
कन्हैया ने अभी हाल में सेना के द्वारा बलत्कार की बात कहके इस बात को साबित किया कि उसके उपर कोर्ट की हिदायत का कोई असर नहीं है। साथ ही उसकी गिरी हुई मानसिकता का भी पता चलता है। कहीं वह सेना के मनोबल को गिराने के ऐजेन्ड पर तो काम नहीं कर रहा है? अगर ऐसा है तो, यह बहुत घातक है। इस कार्य में सिर्फ कन्हैया ही शामिल है, ऐसा नहीं है। अभी हाल में कश्मीर में जब सेना आतंकवादियों से जूझ रही थी उसी वक्त पाकिस्तान परस्त कुछ गुमराह कश्मीरी, सेना और भारत के खिलाफ नारे लगा रहे थे। आखिर कन्हैया इनसे कैसे अलग है? इसको समझने के लिये देश तोड़ने का प्रयास कर रहे लोगो की कार्य प्रणाली पर नजर डालनी होगी।
देश का बटवारा होने के बावजूद पाकिस्तान उस बटवारे से संतुष्ट नही था। कश्मीर का भारत में होना उसकी असंतुष्टी का सबसे बडा कारण था। इसको प्राप्त करने के लिये उसने कई प्रयास किये। हर बार उसे असफलता हाथ लगी। हर असफलता से उसकी यह बौखलाहट बढाता चली गयी।
1965 के युद्ध में पाकिस्तान को शर्मिन्दगी और अपमान के दौर से गुजरना पडा। यदि ताशकंद समझौता न होता तो लाहौर तक की कहानी खत्म थी। एक बार पुनः 1971 में पाकिस्तान को शिकस्त मिली। इस बार उसका एक हिस्सा टूटकर बगंलादेश बन गया। चले थे चोट देने, दाव उल्टा पड गया। 1971 के बाद पाकिस्तान ने आत्ममंथन किया। आमने सामने के युद्ध में भारत से निपटना मुश्किल है। अतः रणनीत बदलने की आवश्यकता है। रणनीत बदल भी गयी। पाकिस्तान गुरिल्ला वार पर उतर आया।
उनका एक ही वीचार था भारत में आतंकवादी कार्यवाहियां कराओ और मुकर जाओ। अब दुश्मन प्रत्यक्ष न होकर अप्रत्यक्ष हो गया। व्यक्ति से लड़ा जा सकता है पर उसकी छाया से कैसे? कुछ समय तक उसे सफलता मिली भी। पर मोदी सरकार ने आते ही उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर घेरना शुरू किया। सीमा पर इन्हे मुहतोड़ जबाव मिलने लगा। एक बार पुनः उसे लगा हम भारत का कुछ नहीं बिगाड सकते हैं, और पुनः एकबार उसने अपनी रणनीत बदली।
विश्वास मानिये इस बार उसने देश के विश्वविद्यालयों और छात्रों को टारगेट किया। देश के अन्दर विद्रोह की योजना बनी। इस रणनीत में कुछ राजनैतिक दल और मीडिया समूह बराबर के शरीक हैं। ये पूरी बेशर्मी के साथ देशद्रोह के नारे लगाने वालों के साथ खडे हो गये। इनका फोकस नारे लगाने वालों पर कार्यवाही कम और उन्हे हीरो बनाना ज्यादा है। विषय को इतना संशयपूर्ण बना देना है कि आम व्यक्ति दिग्भ्रमित हो जाये कि देशभक्ति क्या है और देशद्रोह क्या है? अब आप ही सोचिये याकूब मेमन के लिये प्रार्थना सभा आयोजित करना और रोहित वेमुल्ला का दलित होने का आपस में क्या सम्बंध है? यह कनेक्शन इस लिये जोड़ा गया उसके दलित होने से याकूब मेमन की प्रार्थना सभा छिप जाय। सहानभूति की लहर पैदा हो। काम तो हो ही गया। न पकडे गये तो ऐजेन्डा आगे बढा और पकड लिये गये तो राजनीति आगे बढी। दोनो हाथ में लड्डू और सिर कडाही में। बहुत गहरे ये साजिश चल रही है।
कन्हैया की बात देशद्रोह से शुरू हुयी और पश्चिमी बंगाल के चुनाव तक पहुँच गयी। आप को पता भी नहीं चला और कन्हैया हीरो हो गया। मेरी बात पर यदि आप को यकिन न हो तो जरा कुछ इलेक्ट्रानिक और अंग्रेजी प्रिंट मीडिया के मालिकाना हक के बारे में थोडी जानकारी प्राप्त करें। आपको स्वतः पता चल जायेगा कि उनकी प्रतिबद्धता कहाँ और क्यों है?
अगर ऐसा न होता तो क्या पूरा मीडिया चैनल और राजनैतिक पार्टिया एक स्वर में एक साथ खडे होकर देशद्रोह का नारा लगाने वालों को दौडा नहीं लेती? इनकी इतनी हिम्मत भारत में खड़े होकर भारत के ही खिलाफ नारे लगायेगें? क्या हम देश के नाम पर भी बंटे हुये है? आखिर इनको आक्सीजन कहाँ से मिल रहा है? इसकी पूरी पड़ताल होनी चाहिये।
राजनैतिक पार्टियों, मीडिया चैनलों एवं समाचार पत्रों के उन श्रोतो को खंगालने की जरूरत है, जिनके चलते वो देशद्रोहियो को बेनकाब करने के बजाय हीरो बनाने पर तूले हैं। सैनिक मरते है तो समाचार नहीं बनता और कन्हैया जे.एन.यू. में भाषण देता है तो उसे कवरेज मिलता है? किसी सैनिक परिवार का इन्टरव्यू चैनलों पर देखने को नहीं मिलेगा? पर कन्हैया का इन्टरव्यू आप चैनलों पर देख सकते है। जरा सोचिए इन पर आरोप क्या है – देशद्रोह का। यह कह क्या रहे है, जिसे मीडिया चैनल हाईलाईट कर रहे है – भारतीय सेना औरतों का बलात्कार करती है? यह सेना का मनोबल ध्वस्त करने की कार्यवाही नहीं तो और क्या है?
आज एक सोचे समझे साजिश के चलते शहीद गुमनाम हो रहे है और देशद्रोही मशहूर हो रहे है। बाहर से देश नहीं तोड़ पाये तो अब अन्दर से तैयारी है। कही इसी आजादी की बात तो नहीं कर रहे कन्हैया? कन्हैया मोहरे है, टारगेट विश्वविद्यालय और छात्र हैं, और कुनबा कुछ मुट्ठी भर प्रोफेसरों, राजनैतिक पार्टियाँ तथा मीडिया चैनलों का है।
आवश्यकता सर्तक होने की है। उन अध्यापकों, राजनैतिक पार्टियों तथा मीडिया चैनलों और समाचार पत्रों को खंगालने की आवश्यकता है, जो इस देश को बर्बाद करने की मुहिम में शामिल हैं। इनसे सख्ती से निपटने की आवश्यकता है। देश जिन्दा रहेगा तो ही हमारा वजूद जिन्दा रहेगा। और देश हर हाल में जिन्दा रहेगा। उसके लिये भले हमें प्राणों का उत्सर्ग करना पडे।
✍साभार : डा. अरविन्द कुमार सिंह
कुछ बाते बहुत अजीब है। मुझे लगता है, मीडिया का फोकस जिन बातो पर ज्यादा होना चाहिये था वहाँ से मीडिया किनारा कर गया। क्या कारण हैं की जे.एन.यू. में देशद्रोह का नारा लगने के बावजूद–
* विश्वविद्यालय के छात्रों एवं प्रोफेसरो ने देशद्रोह के नारे लगाने वालो के खिलाफ ना तो मार्च निकाला और ना ही समवेत स्वर में इनका विरोध किया?
* कन्हैया ने कुलपति और रजिस्टार को इन देशद्रोहियों के खिलाफ न तो सूचित किया और ना ही कार्यवाही की संस्तुति या अनुरोध किया?
* आगे इस तरह की कार्यवाही न हो इसका कोई स्पष्ट रोड मैप विश्वविद्यालय की तरफ से जारी नहीं किया गया?
* प्रोफेसरो की भूमिका पर विश्वविद्यालय की चुप्पी उसकी असहायता को दर्शाता है।
अब वक्त आ गया है, कन्हैया और उसके साथियों को बताना पडेगा कि वह देश को तोडने का नारा लगाने वालो के साथ है या खिलाफ? क्या वह अदालत में उन लोगो के खिलाफ गवाही देने के लिये तैयार है? जो लोग इनका सर्मथन कर रहे है, उन्हे सोचना चाहिये कि आतंकवादियों और देश तोडने की बात करने वालो को नायक बनाने की कोशिश करके वे किसका भला कर रहे है?
कन्हैया ने अभी हाल में सेना के द्वारा बलत्कार की बात कहके इस बात को साबित किया कि उसके उपर कोर्ट की हिदायत का कोई असर नहीं है। साथ ही उसकी गिरी हुई मानसिकता का भी पता चलता है। कहीं वह सेना के मनोबल को गिराने के ऐजेन्ड पर तो काम नहीं कर रहा है? अगर ऐसा है तो, यह बहुत घातक है। इस कार्य में सिर्फ कन्हैया ही शामिल है, ऐसा नहीं है। अभी हाल में कश्मीर में जब सेना आतंकवादियों से जूझ रही थी उसी वक्त पाकिस्तान परस्त कुछ गुमराह कश्मीरी, सेना और भारत के खिलाफ नारे लगा रहे थे। आखिर कन्हैया इनसे कैसे अलग है? इसको समझने के लिये देश तोड़ने का प्रयास कर रहे लोगो की कार्य प्रणाली पर नजर डालनी होगी।
देश का बटवारा होने के बावजूद पाकिस्तान उस बटवारे से संतुष्ट नही था। कश्मीर का भारत में होना उसकी असंतुष्टी का सबसे बडा कारण था। इसको प्राप्त करने के लिये उसने कई प्रयास किये। हर बार उसे असफलता हाथ लगी। हर असफलता से उसकी यह बौखलाहट बढाता चली गयी।
1965 के युद्ध में पाकिस्तान को शर्मिन्दगी और अपमान के दौर से गुजरना पडा। यदि ताशकंद समझौता न होता तो लाहौर तक की कहानी खत्म थी। एक बार पुनः 1971 में पाकिस्तान को शिकस्त मिली। इस बार उसका एक हिस्सा टूटकर बगंलादेश बन गया। चले थे चोट देने, दाव उल्टा पड गया। 1971 के बाद पाकिस्तान ने आत्ममंथन किया। आमने सामने के युद्ध में भारत से निपटना मुश्किल है। अतः रणनीत बदलने की आवश्यकता है। रणनीत बदल भी गयी। पाकिस्तान गुरिल्ला वार पर उतर आया।
उनका एक ही वीचार था भारत में आतंकवादी कार्यवाहियां कराओ और मुकर जाओ। अब दुश्मन प्रत्यक्ष न होकर अप्रत्यक्ष हो गया। व्यक्ति से लड़ा जा सकता है पर उसकी छाया से कैसे? कुछ समय तक उसे सफलता मिली भी। पर मोदी सरकार ने आते ही उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर घेरना शुरू किया। सीमा पर इन्हे मुहतोड़ जबाव मिलने लगा। एक बार पुनः उसे लगा हम भारत का कुछ नहीं बिगाड सकते हैं, और पुनः एकबार उसने अपनी रणनीत बदली।
विश्वास मानिये इस बार उसने देश के विश्वविद्यालयों और छात्रों को टारगेट किया। देश के अन्दर विद्रोह की योजना बनी। इस रणनीत में कुछ राजनैतिक दल और मीडिया समूह बराबर के शरीक हैं। ये पूरी बेशर्मी के साथ देशद्रोह के नारे लगाने वालों के साथ खडे हो गये। इनका फोकस नारे लगाने वालों पर कार्यवाही कम और उन्हे हीरो बनाना ज्यादा है। विषय को इतना संशयपूर्ण बना देना है कि आम व्यक्ति दिग्भ्रमित हो जाये कि देशभक्ति क्या है और देशद्रोह क्या है? अब आप ही सोचिये याकूब मेमन के लिये प्रार्थना सभा आयोजित करना और रोहित वेमुल्ला का दलित होने का आपस में क्या सम्बंध है? यह कनेक्शन इस लिये जोड़ा गया उसके दलित होने से याकूब मेमन की प्रार्थना सभा छिप जाय। सहानभूति की लहर पैदा हो। काम तो हो ही गया। न पकडे गये तो ऐजेन्डा आगे बढा और पकड लिये गये तो राजनीति आगे बढी। दोनो हाथ में लड्डू और सिर कडाही में। बहुत गहरे ये साजिश चल रही है।
कन्हैया की बात देशद्रोह से शुरू हुयी और पश्चिमी बंगाल के चुनाव तक पहुँच गयी। आप को पता भी नहीं चला और कन्हैया हीरो हो गया। मेरी बात पर यदि आप को यकिन न हो तो जरा कुछ इलेक्ट्रानिक और अंग्रेजी प्रिंट मीडिया के मालिकाना हक के बारे में थोडी जानकारी प्राप्त करें। आपको स्वतः पता चल जायेगा कि उनकी प्रतिबद्धता कहाँ और क्यों है?
अगर ऐसा न होता तो क्या पूरा मीडिया चैनल और राजनैतिक पार्टिया एक स्वर में एक साथ खडे होकर देशद्रोह का नारा लगाने वालों को दौडा नहीं लेती? इनकी इतनी हिम्मत भारत में खड़े होकर भारत के ही खिलाफ नारे लगायेगें? क्या हम देश के नाम पर भी बंटे हुये है? आखिर इनको आक्सीजन कहाँ से मिल रहा है? इसकी पूरी पड़ताल होनी चाहिये।
राजनैतिक पार्टियों, मीडिया चैनलों एवं समाचार पत्रों के उन श्रोतो को खंगालने की जरूरत है, जिनके चलते वो देशद्रोहियो को बेनकाब करने के बजाय हीरो बनाने पर तूले हैं। सैनिक मरते है तो समाचार नहीं बनता और कन्हैया जे.एन.यू. में भाषण देता है तो उसे कवरेज मिलता है? किसी सैनिक परिवार का इन्टरव्यू चैनलों पर देखने को नहीं मिलेगा? पर कन्हैया का इन्टरव्यू आप चैनलों पर देख सकते है। जरा सोचिए इन पर आरोप क्या है – देशद्रोह का। यह कह क्या रहे है, जिसे मीडिया चैनल हाईलाईट कर रहे है – भारतीय सेना औरतों का बलात्कार करती है? यह सेना का मनोबल ध्वस्त करने की कार्यवाही नहीं तो और क्या है?
आज एक सोचे समझे साजिश के चलते शहीद गुमनाम हो रहे है और देशद्रोही मशहूर हो रहे है। बाहर से देश नहीं तोड़ पाये तो अब अन्दर से तैयारी है। कही इसी आजादी की बात तो नहीं कर रहे कन्हैया? कन्हैया मोहरे है, टारगेट विश्वविद्यालय और छात्र हैं, और कुनबा कुछ मुट्ठी भर प्रोफेसरों, राजनैतिक पार्टियाँ तथा मीडिया चैनलों का है।
आवश्यकता सर्तक होने की है। उन अध्यापकों, राजनैतिक पार्टियों तथा मीडिया चैनलों और समाचार पत्रों को खंगालने की आवश्यकता है, जो इस देश को बर्बाद करने की मुहिम में शामिल हैं। इनसे सख्ती से निपटने की आवश्यकता है। देश जिन्दा रहेगा तो ही हमारा वजूद जिन्दा रहेगा। और देश हर हाल में जिन्दा रहेगा। उसके लिये भले हमें प्राणों का उत्सर्ग करना पडे।
✍साभार : डा. अरविन्द कुमार सिंह
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