Thursday, May 12, 2016

पत्रकारिता भूमिका

पत्रकारिता की तीन प्रमुख भूमिकाएं हैं- सूचना देना, शिक्षित करना और मनोरंजन करना। महात्मा गांधी ने हिन्द स्वराज में पत्रकारिता की इन तीनों भूमिकाओं को और अधिक विस्तार दिया है- लोगों की भावनाएं जानना और उन्हें जाहिर करना, लोगों में जरूरी भावनाएं पैदा करना, यदि लोगों में दोष है तो किसी भी कीमत पर बेधड़क होकर उनको दिखाना। भारतीय परम्पराओं में भरोसा करने वाले विद्वान मानते हैं कि देवर्षि नारद की पत्रकारिता ऐसी ही थी। देवर्षि नारद सम्पूर्ण और आदर्श पत्रकारिता के संवाहक थे। वे महज सूचनाएं देने का ही कार्य नहीं बल्कि सार्थक संवाद का सृजन करते थे। देवताओं, दानवों और मनुष्यों, सबकी भावनाएं जानने का उपक्रम किया करते थे। जिन भावनाओं से लोकमंगल होता हो, ऐसी ही भावनाओं को जगजाहिर किया करते थे। इससे भी आगे बढ़कर देवर्षि नारद घोर उदासीन वातावरण में भी लोगों को सद्कार्य के लिए उत्प्रेरित करने वाली भावनाएं जागृत करने का अनूठा कार्य किया करते थे। दादा माखनलाल चतुर्वेदी के उपन्यास 'कृष्णार्जुन युद्ध' को पढऩे पर ज्ञात होता है कि किसी निर्दोष के खिलाफ अन्याय हो रहा हो तो फिर वे अपने आराध्य भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण और उनके प्रिय अर्जुन के बीच भी युद्ध की स्थिति निर्मित कराने से नहीं चूकते। उनके इस प्रयास से एक निर्दोष यक्ष के प्राण बच गए। यानी पत्रकारिता के सबसे बड़े धर्म और साहसिक कार्य, किसी भी कीमत पर समाज को सच से रू-ब-रू कराने से वे भी पीछे नहीं हटते थे। सच का साथ उन्होंने अपने आराध्य के विरुद्ध जाकर भी दिया। यही तो है सच्ची पत्रकारिता, निष्पक्ष पत्रकारिता, किसी के दबाव या प्रभाव में न आकर अपनी बात कहना। मनोरंजन उद्योग ने भले ही फिल्मों और नाटकों के माध्यम से उन्हें विदूषक के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया हो लेकिन देवर्षि नारद के चरित्र का बारीकी से अध्ययन किया जाए तो ज्ञात होता है कि उनका प्रत्येक संवाद लोक कल्याण के लिए था। मूर्ख उन्हें कलहप्रिय कह सकते हैं। लेकिन, नारद तो धर्माचरण की स्थापना के लिए सभी लोकों में विचरण करते थे। उनसे जुड़े सभी प्रसंगों के अंत में शांति, सत्य और धर्म की स्थापना का जिक्र आता है। स्वयं के सुख और आनंद के लिए वे सूचनाओं का आदान-प्रदान नहीं करते थे, बल्कि वे तो प्राणी-मात्र के आनंद का ध्यान रखते थे।

भारतीय परम्पराओं में भरोसा नहीं करने वाले 'बुद्धिजीवी' भले ही देवर्षि नारद को प्रथम पत्रकार, संवाददाता या संचारक न मानें। लेकिन, पथ से भटक गई भारतीय पत्रकारिता के लिए आज नारद ही सही मायने में आदर्श हो सकते हैं। भारतीय पत्रकारिता और पत्रकारों को अपने आदर्श के रूप में नारद को देखना चाहिए, उनसे मार्गदर्शन लेना चाहिए। मिशन से प्रोफेशन बनने पर पत्रकारिता को इतना नुकसान नहीं हुआ था जितना कॉरपोरेट कल्चर के आने से हुआ है। पश्चिम की पत्रकारिता का असर भी भारतीय मीडिया पर चढऩे के कारण समस्याएं आई हैं। स्वतंत्रता आंदोलन में जिस पत्रकारिता ने 'एक स्वतंत्रता सेनानी' की भूमिका निभाई थी, वह पत्रकारिता अब धन्ना सेठों के कारोबारों की चौकीदार बनकर रह गई है। पत्रकार इन धन्ना सेठों के इशारे पर कलम घसीटने को मजबूर, महज मजदूर हैं। संपादक प्रबंधक हो गए हैं। उनसे लेखनी छीनकर, लॉबिंग की जिम्मेदारी पकड़ा दी गई है। आज कितने संपादक और प्रधान संपादक हैं जो नियमित लेखन कार्य कर रहे हैं? कितने संपादक हैं, जिनकी लेखनी की धमक है? कितने संपादक हैं, जिन्हें समाज में मान्यता है? 'जो हुक्म सरकारी, वही पकेगी तरकारी' की कहावत को पत्रकारों ने जीवन में उतार लिया है। मालिक जो हुक्म संपादकों को देता है, संपादक उसे अपनी टीम तक पहुंचा देता है। तयशुदा ढांचे में पत्रकार अपनी लेखनी चलाता है। अब तो किसी भी खबर को छापने से पहले संपादक ही मालिक से पूछ लेते हैं- 'ये खबर छापने से आपके व्यावसायिक हित प्रभावित तो नहीं होंगे।' खबरें, खबरें कम विज्ञापन अधिक हैं। 'लक्षित समूहों' को ध्यान में रखकर खबरें लिखी और रची जा रही हैं। मोटी पगार की खातिर संपादक सत्ता ने मालिकों के आगे घुटने टेक दिए हैं। आम आदमी के लिए अखबारों और टीवी चैनल्स पर कहीं जगह नहीं है। एक किसान की 'पॉलिटिकल आत्महत्या' होती है तो वह खबरों की सुर्खी बनती है। पहले पन्ने पर लगातार जगह पाती है। चैनल्स के प्राइम टाइम पर किसान की चर्चा होती है। लेकिन, इससे पहले बरसों से आत्महत्या कर रहे किसानों की सुध कभी मीडिया ने नहीं ली। जबकि भारतीय पत्रकारिता की चिंता होना चाहिए- अंतिम व्यक्ति। आखिरी आदमी की आवाज दूर तक नहीं जाती, उसकी आवाज को बुलंद करना पत्रकारिता का धर्म होना चाहिए, जो है तो, लेकिन व्यवहार में दिखता नहीं है। पत्रकारिता के आसपास अविश्वसनीयता का धुंध गहराता जा रहा है। पत्रकारिता की इस स्थिति के लिए कॉरपोरेट कल्चर ही एकमात्र दोषी नहीं है। बल्कि पत्रकार बंधु भी कहीं न कहीं दोषी हैं। जिस उमंग के साथ वे पत्रकारिता में आए थे, उसे उन्होंने खो दिया। 'समाज के लिए कुछ अलग' और 'कुछ अच्छा' करने की इच्छा के साथ पत्रकारिता में आए युवा ने भी कॉरपोरेट कल्चर के साथ सामंजस्य बिठा लिया है।

बहरहाल, भारतीय पत्रकारिता की स्थिति पूरी तरह खराब भी नहीं हैं। बहुत-से संपादक-पत्रकार आज भी उसूलों के पक्के हैं। उनकी पत्रकारिता खरी है। उनकी कलम बिकी नहीं है। उनकी कलम झुकी भी नहीं है। आज भी उनकी लेखनी आम आदमी के लिए है। लेकिन, यह भी कड़वा सच है कि ऐसे 'नारद पत्रकारों' की संख्या बेहद कम है। यह संख्या बढ़ सकती है। क्योंकि सब अपनी इच्छा से बेईमान नहीं हैं। सबने अपनी मर्जी से अपनी कलम की धार को कुंद नहीं किया है। सबके मन में अब भी 'कुछ' करने का माद्दा है। वे आम आदमी, समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिए लिखना चाहते हैं लेकिन राह नहीं मिल रही है। ऐसी स्थिति में देवर्षि नारद उनके आदर्श हो सकते हैं। आज की पत्रकारिता और पत्रकार नारद से सीख सकते हैं कि तमाम विपरीत परिस्थितियां होने के बाद भी कैसे प्रभावी ढंग से लोक कल्याण की बात कही जाए। पत्रकारिता का एक धर्म है-निष्पक्षता। आपकी लेखनी तब ही प्रभावी हो सकती है जब आप निष्पक्ष होकर पत्रकारिता करें। पत्रकारिता में आप पक्ष नहीं बन सकते। हां, पक्ष बन सकते हो लेकिन केवल सत्य का पक्ष। भले ही नारद देवर्षि थे लेकिन वे देवताओं के पक्ष में नहीं थे। वे प्राणी मात्र की चिंता करते थे। देवताओं की तरफ से भी कभी अन्याय होता दिखता तो राक्षसों को आगाह कर देते थे। देवता होने के बाद भी नारद बड़ी चतुराई से देवताओं की अधार्मिक गतिविधियों पर कटाक्ष करते थे, उन्हें धर्म के रास्ते पर वापस लाने के लिए प्रयत्न करते थे। नारद घटनाओं का सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं, प्रत्येक घटना को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखते हैं, इसके बाद निष्कर्ष निकाल कर सत्य की स्थापना के लिए संवाद सृजन करते हैं। आज की पत्रकारिता में इसकी बहुत आवश्यकता है। जल्दबाजी में घटना का सम्पूर्ण विश्लेषण न करने के कारण गलत समाचार जनता में चला जाता है। बाद में या तो खण्डन प्रकाशित करना पड़ता है या फिर जबरन गलत बात को सत्य सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। आज के पत्रकारों को इस जल्दबाजी से ऊपर उठना होगा। कॉपी-पेस्ट कर्म से बचना होगा। जब तक घटना की सत्यता और सम्पूर्ण सत्य प्राप्त न हो जाए, तब तक समाचार बहुत सावधानी से बनाया जाना चाहिए। कहते हैं कि देवर्षि नारद एक जगह टिकते नहीं थे। वे सब लोकों में निरंतर भ्रमण पर रहते थे। आज के पत्रकारों में एक बड़ा दुर्गुण आ गया है, वे अपनी 'बीट' में लगातार संपर्क नहीं करते हैं। आज पत्रकार ऑफिस में बैठकर, फोन पर ही खबर प्राप्त कर लेता है। इस तरह की टेबल न्यूज अकसर पत्रकार की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न खड़ा करवा देती हैं। नारद की तरह पत्रकार के पांव में भी चक्कर होना चाहिए। सकारात्मक और सृजनात्मक पत्रकारिता के पुरोधा देवर्षि नारद को आज की मीडिया अपना आदर्श मान ले और उनसे प्रेरणा ले तो अनेक विपरीत परिस्थितियों के बाद भी श्रेष्ठ पत्रकारिता संभव है। आदि पत्रकार देवर्षि नारद ऐसी पत्रकारिता की राह दिखाते हैं, जिसमें समाज के सभी वर्गों का कल्याण निहित है।

- लोकेन्द्र सिंह
ई-मेल: lokendra777@gmail.com
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लोकतंत्र क्या ऐसे ही चलेगा या कायम रहेगा, इस बेरीढ़ और बेजुबान प्रेस के भरोसे?  कार्ल मार्क्स ने बहुत पहले ही कहा था कि प्रेस की स्वतंत्रता का मतलब व्यवसाय की स्वतंत्रता है। और कार्ल मार्क्स ने यह बात कोई भारत के प्रसंग में नहीं, समूची दुनिया के मद्देनज़र कही थी। रही बात अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की तो यह सिर्फ़ एक झुनझुना भर है जिसे मित्र लोग अपनी सुविधा से बजाते रहते हैं। कभी तसलीमा नसरीन के लिए तो कभी सलमान रश्दी तो कभी हुसेन के लिए। कभी किसी फ़िल्म-विल्म के लिए। या ऐसे ही किसी खांसी-जुकाम के लिए। और प्रेस? अब तो प्रेस मतलब चारण और भाट ही है। कुत्ता आदि विशेषण भी बुरा नहीं है।
नरेंद्र मोदी की आज की चाय पार्टी में यह रंग और चटक हुआ है। सोचिए कि किसी एक पत्रकार ने कोई एक सवाल भी क्यों नहीं पूछा? सब के सब हिहियाते हुए सेल्फी लेते रहे, तमाम कैमरों और उन की रोशनी के बावजूद। मोदी ने सिर्फ़ इतना भर कह दिया कि कभी हम यहां आप लोगों के लिए कुर्सी लगाते थे! बस सब के सब झूम गए। गलगल हो गए। काला धन, मंहगाई, भ्रष्टाचार, महाराष्ट्र का मुख्य मंत्री, दिल्ली में चुनाव की जगह उपचुनाव क्यों, मुख्य सूचना आयुक्त और सतर्कता निदेशक की खाली कुर्सियां, लोकपाल, चीन, पाकिस्तान, अमरीका, जापान, भूटान, नेपाल की यात्रा आदि के तमाम मसले जैसे चाय की प्याली और सेल्फी में ऐसे गुम हो गए गोया ये लोग पत्रकार नहीं स्कूली बच्चे हों और स्कूल में कोई सिने कलाकार आ गया हो! मोदी की डिप्लोमेसी और प्रबंधन अपनी जगह था और इन पत्रकारों का बेरीढ़ और बेजुबान होना, अपनी जगह। लोकतंत्र क्या ऐसे ही चलेगा या कायम रहेगा, इस बेरीढ़ और बेजुबान प्रेस के भरोसे?
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हिंदी पत्रकारिता का वैचारिक बदलाव का दौर चल रहा है..यह बदलाव अंदर से है या सिर्फ दिखावे का..इसे तय पाठक ही करेंगे..हिंदी का एक बड़ा अखबार है..16 मई 2014 से पहले तक पूरे दस साल तक उसके बीजेपी बीट रिपोर्टर का एक ही काम होता था..बीजेपी की आलोचना करना..बीजेपी से जुड़ी रूटीन खबरें नहीं करना..
यह ऐसी सच्चाई है, जो अखबार के हालिया अतीत के पन्नों में दर्ज है..तब वहां के लेखों में चाहें वह लेख संपादक ने लिखे हों या किसी और ने..सिर्फ कांग्रेस की प्रशंसा ही होती थी..तब कुछ सुधीजनों को वह पत्र कांग्रेस का मुखपत्र जैसा लगता था..लेकिन 16 मई 2014 के बाद हालात बदल गए हैं..अब उस अखबार में मोदी जी का गुणगान हो रहा है..बीजेपी की सकारात्मक खबरें छप रही हैं..सवाल यह है कि पत्र का 16 मई के पहले का रूख सही था या अब का स्टैंड जेनुइन है..आप विचार करें.
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पत्रकारिता पर चर्चा शुरू हुई तो अशोक श्रीवास्‍तव ने बुरा-सा मुंह बना लिया। मानो किसी ने नीम को करेले के साथ किसी जहर से पीस कर गले में उड़ेल दिया हो। बोला:- नहीं सर, अब बिलकुल नहीं। बहुत हो गया। अशोक श्रीवास्‍तव, यानी 12 साल पहले की जान-पहचान। मैं पहली-पहली बार जौनपुर आया था। राजस्‍थान के जोधपुर के दैनिक भास्‍कर की नौकरी छोड़कर शशांक शेखर त्रिपाठी जी ने मुझे वाराणसी बुला लिया। दैनिक हिन्‍दुस्‍तान में। पहली पोस्टिंग दी जौनपुर।
अशोक श्रीवास्‍तव उसी एडीशन में शाहगंज तहसील का संवाददाता था। बेहद अकखड़। लगता था कि जैसे अगर वह न हुआ तो पूरी दुनिया-कायनात ही खत्‍म हो जाएगी। 17 अगस्‍त-03 को खेतासराय-सोंधी में वहां के सपाई सरकार के राज्‍य मंत्री ललई यादव ने सरेआम गुंडई की तो उस वक्‍त तक अशोक सहमा हुआ था, लेकिन जब मैंने इस हादसे का खुला विरोध किया तो अशोक पूरे जोश में आ गया। उसके बाद से वह वाकई बेधड़क पत्रकार बन गया। पहले की झुकी हुई सींगें अब तीखे खंजर की तरह धारदार हो गयीं। कुछ ही दिनों में उसके तेवर तीखे हो गये। मेरे ट्रांस्‍फर के बाद बाद भी कुछ ऐसे सहकर्मी ऐसे थे, जो अक्‍सर मुझे फोन करके खबर की धार-प्रवाह समझने की कोशिश करते थे। मसलन, रूद्र प्रताप सिंह, इंद्रजीत मौर्या, राममूर्ति यादव, आनंद यादव, अशोक श्रीवास्‍तव और अर्जुन शर्मा वगैरह। हालांकि बाद में रूद्रप्रताप और इंद्रजीत जैसे लोग चूंकि बड़े पत्रकार हो गये, इसलिए मुझे फोन करने की जरूरत भी नहीं पड़ी उन्‍हें, लेकिन बाकी लोग लगातार सम्‍पर्क में रहे। अशोक और राममूर्ति लगातार सम्‍पर्क में रहे।

करीब ड़ेढ महीना पहले मैं राममूर्ति यादव की बेटी की शादी में शाहगंज-खेतासराय से भी आगे 19 किलोमीटर दूर गया, तो अशोक मुझे देखते ही चहक उठा। बातचीत का दौर शुरू हुआ तो उसका दर्द बिखरने-जुटने लगा। बोला:- अरे सर, छोडि़ये पत्रकारिता की बात। क्‍या सोचा था, और क्‍या हो गया। पूरी इलाके से दुश्‍मनी हो गयी, बदनामी अलग हो गयी। साथ किसी ने भी नहीं दिया। उस हिन्‍दुस्‍तान अखबार संस्‍थान ने तो पहले ही पल्‍ला झड़क लिया जिसके लिए मैंने जान तक लड़ा दी थी। 22 साल तक इस अखबार के लिए बिना पैसा के काम करता रहा। सोचता रहा कि आज न कहीं कल, कुछ न कुछ तो हो ही जाएगा। अब निराश हो गया हूं। लेकिन सर, आपके लिए जान हाजिर है। आता हूं लखनऊ। शायद एक-डेढ महीने के भीतर ही। बस बच्‍चों में फंसा हूं। लेकिन आपके साथ अब लखनऊ में ही मुलाकात होगी। और आज, बिलकुल अभी-अभी, जौनपुर से राजेश श्रीवास्‍तव का फोन आया कि अशोक श्रीवास्‍तव की मौत हो गयी है। राजेश ने बताया कि उसे एक तगड़ा हार्ट-अटैक हुआ था। बस उसका सारा दुख-शोक अशोक में विलीन हो गया। छोड़ो यार अशोक। तुम से तो भगवान भी नहीं जीत सकता है। तुम मेरे जिगर के टुकड़े रहे हो और हमेशा रहोगे। तुम तो मेरी जान हो यार। क्‍या समझे बे लाला-लूली की जान!
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हरियाणा में भूमि घोटाला पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड्रा से पूछे गए सवाल पर तिलमिलाये वाड्रा ने पत्रकारों से जो बदसलूकी की उसकी गर्मी 24 घंटे तक कायम है और शायद आगे भी कायम रहेगी। प्रायः हर चैनल एएनआई का माईक झटकने का सीन हजार बार दिखा चुका है। एक पत्रकार के रूप में हम वाड्रा के कृत्य की कड़े से कड़े शब्दों में निन्दा करते हैं। पत्रकारों को स्वतंत्र रूप से कार्य करते रहने की आजादी की पुरजोर मांग करते हैं। शनिवार के प्रकरण में घटना से बड़ी राजनीति है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता।
सोनिया गांधी के दामाद को इच्छा को कोई कांग्रेस शासित प्रदेश का मुख्यमंत्री क्यों और कैसे इनकार करेगा। शायद इतनी कुव्वत किसी कांग्रेसी मुख्यमंत्री में नहीं हो सकती। इसलिए हरियाणा या किसी दूसरे राज्य में जहां भी राबर्ट वाड्रा की रुचि रही होगी, ना का सवाल ही नहीं हो सकता। यदि बिना सोचे-समझे हां है, तो घपले से भी इनकार नहीं हो सकता। वर्तमान में बदली राजनीतिक परिस्थितियों में कांग्रेस पार्टी के दामाद को घेरने का कोई मौका भाजपा की केंद्र और राज्य सरकारें नहीं छोड़ेगी. भारतीय मीडिया इस प्रकरण में सरकार के प्रति निष्ठावान होने का अवसर देखे तो आश्चर्य क्या है? क्या कथित राष्ट्रीय मीडिया ने छोटे शहरों, गांव-देहात, कस्बों में पत्रकारों पर आये  दिन होने वाली घटनाओं दुर्घटनाओं को कभी अपनी खबर बनाया भी है?

मीडिया संस्थानों और उसके बड़े पत्रकारों के लिए गांव देहात का पत्रकार किसी कीड़े मकोड़े से अधिक अहमियत नहीं रखता। पत्रकारों की किसी भी बड़ी यूनियन ने किसी संस्थान से नहीं पूछा कि वह कस्बों गांवों के पत्रकारों के लिए क्या नीति रखती है? उनके शोषण को तो मानों ईश्वरी देन मान लिया गया है। क्षेत्रीय अखबारों ने वर्षों से काम कर रहे पत्रकार से पत्रकार न होने और शैकिया तौर पर समाचार भेजने के अनुरोध का 10 रुपये के स्टाम्प पर अवैधानिक रुप से शपथपत्र भरवाया है। इसे संपादक जबरन भरवाता है। उनके वेतन का तो सवाल नहीं उठता। मानदेय, चिकित्सा, स्वास्थ्य और आर्थिकी सब भगवान भरोसे है।

छोटे शहरों, कस्बों और गांव देहात के पत्रकारों की समस्या का यहां उल्लेख करने का कतई मतलब नहीं है कि राबर्ट वाड्रा के मामले में कोई ढील बरती जाए। राबर्ट वाड्रा के खिलाफ जांच हो और उसे दंडित किया जाए। साथ ही हम वाड्रा मीडिया दुर्व्यवहार प्रकरण को दिखाने वाले संस्थानों, चैनलों और पत्रकारों से विनम्रता पूर्वक कहना चाहते हैं कि गांव कस्बों के पत्रकारों की सुध लें, भारत में सच्ची पत्रकारिता गांव-कस्बों से ही होती है। उस पत्रकारिता और पत्रकार के लिए आप कभी भी सहिष्णु नहीं रहे हैं बल्कि उसके शोषण में आप भी छोटे बड़े पुर्जे हैं। इसलिए पत्रकार और पत्रकारिता की दुहाई देने के बजाय अपने पाला बदलने की सहूलियत, जो आगे-पीछे आपको मिलनी थी, उसका उपयोग कर रहे हैं। इस तरह हम आपके अवसरवादी और सत्ता परस्त चेहरे को देख पा रहे हैं।
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ये अनुराधा दीदी के बारे में नहीं है। दिलीप सर के बारे में है।  आज वो मेरे बॉस नहीं हैं। निजी लेन-देन और ताकत का कोई रिश्‍ता हमारे बीच नहीं। इसलिए अब ये लिख सकती हूं। ये बातें पहले कभी कही नहीं। कभी लिखी नहीं। इसलिए नहीं कि इन बातों पर पहले मुझे विश्‍वास नहीं था, इसलिए क्‍योंकि जिस दुनिया में और जिन लोगों के बीच ये लिखा और पढ़ा जा रहा है, उस दुनिया पर, उन लोगों पर विश्‍वास नहीं था। आज भी नहीं है। मुझे बिलकुल यकीन नहीं कि ये दुनिया प्‍यार समझती है। मन समझती है। दुख समझती है। मुझे सचमुच यकीन नहीं कि बिना किसी निजी मतलब कि किसी के आगे आदर से नतमस्‍तक हो जाने का अर्थ ये दुनिया समझती है, कि लोगों का हृदय सबके लिए करुणा से भरा हुआ है। नहीं। ऐसा नहीं है। ऐसा नहीं था, इसलिए ये कभी कहा भी नहीं मैंने कि दिलीप सर मेरे जीवन के उन अपवाद लोगों में से हैं, जिन्‍हें देखकर, अनुराधा दीदी के साथ उनके रिश्‍ते को देखकर प्‍यार और रिश्‍तों पर यकीन करने को दिल चाहता है।
अनुराधा दीदी 17 सालों तक दवाइयों की खुराक पर नहीं, इसी प्‍यार की खुराक पर जिंदा रहीं। उनके होने की वजह सिर्फ और सिर्फ प्रेम ही थी। मुझे यकीन है कि जिस दुनिया में मैं रहती हूं, वहां लोग प्रेम करना नहीं जानते। इसलिए वो प्रेम को समझ भी नहीं पाते। समझ नहीं पाते क्‍योंकि प्रेम कोई कहने की बात नहीं। ये आपके अस्तित्‍व में घुली होती है। आपके होने में निहित। दिलीप सर जैसे रिजर्व और खुद को कभी भी एक्‍सप्रेस न करने वाले इंसान के भीतर की करुणा, हर बात को शब्‍दों में समझने वाले संसार को कभी समझ में नहीं आ सकती। दो साल उनके साथ काम करते हुए हमेशा ये महसूस हुाअ कि उनकी सारी ऊपरी कठोरता और आलोचना के भीतर कितनी करुणा छिपी है। ऑफिस में कोर्इ उनसे ज्‍यादा बात नहीं करता, वो भी नहीं करते। लेकिन उनकी मौजूदगी में ही प्‍यार था। बहुत सारा। सबके लिए।

जब उन्‍होंने इंडिया टुडे की नौकरी छोड़ी तो लोगों ने तरह-तरह की बातें कीं। कुछ मेरे कानों तक भी पहुंची। गलती उनकी भी नहीं है। वो समझ ही नहीं सकते कि कोई पुरुष एक स्‍त्री को इतना प्रेम कैसे कर सकता है कि आखिरी वक्‍त एक-एक पल उसके साथ बिताने के लिए सबकुछ छोड़ दे। दिल, दिमाग, देह से सिर्फ उसके साथ होना चाहे। कुछ और न सही तो बस उसका हाथ ही थामे बैठा रहे। मैं जिस दुनिया में रहती हूं, वहां लोग शादी करते हैं, सेक्‍स करते हैं, बच्‍चे पैदा करते हैं, पैसे कमाते हैं, साथ पहाड़ घूमने जाते हैं, लेकिन कभी हाथ नहीं थामते। किसी के दिल को सहेजकर नहीं रखते। मुझे यकीन है कि हर दुनियावी काम करने वाला इंसान भी हाथ थामना, दिल को सहेजकर रखना नहीं जानता। दिलीप सर जानते थे, जानते हैं।

संसार की क्रूरताओं का तो ये आलम है कि बाद में लोग कहने लगे कि दिलीप ने बड़ा त्‍याग किया। सचमुच? क्‍या ये त्‍याग है? इतनी निष्‍ठुरता के साथ कैसे जी लेते हो तुम सब? क्‍योंकि मेरा दिल कहता है कि ये त्‍याग नहीं है। त्‍याग कहकर उसकी गरिमा को धो डाला तुमने। त्‍याग होगा तुम्‍हारे लिए, क्‍योंकि तुम क्रूर हो। उनके लिए तो जीने का यही तरीका था। उन्‍होंने ये सोचकर नहीं किया कि कुछ बहुत बड़ा त्‍याग कर रहे हैं। उनके लिए ये फैसला वैसे ही था, जैसे पानी का बहना, जैसे हवा का चलना। बिलकुल सहज। जीने का सहज तरीका। बहुत साधारण, लेकिन उतना ही असाधारण। असाधारण लगता है, क्‍योंकि दुनिया साधारण सी भी नहीं है।  किसी को सचमुच प्रेम कर सकने की अपनी सारी ताकत के साथ दिलीप सर असाधारण लगते हैं, लेकिन सच तो ये है कि वो सबसे साधारण इंसान हैं। बिलकुल वैसे, जैसा इंसान को होना चाहिए था। जैसा संसार को होना चाहिए था।  लेकिन हुआ नहीं। अनुराधा दीदी की जिंदगी जितनी भी रही, हम सब स्त्रियों से बेहतर रही क्‍योंकि उनकी जिंदगी में प्रेम था। हम जिंदगी के 70-80 बरस भी, अगर जिए तो प्रेमविहीन संसार की प्रेमविहीन गलियों में बिता देंगे। प्रेम करने वाले बिरले ही होते हैं।
मैं जब अपने दुखों से हारने लगती तो अनुराधा दीदी के बारे में सोचती थी। उनकी किताब पढ़ती- एक कैंसर विजेता की डायरी। और सोचती, अगर कभी ऐसा हुआ कि उनकी जगह मैं हुई तो ऐसे ही लड़ पाऊंगी क्‍या। शायद नहीं। वो अनोखी ही थीं। जिंदगी से हर दिन लड़ती हुई और हर दिन जीतती हुई। कभी कहा नहीं उनसे कि दिल के किसी निजी कोने में कितना प्‍यार है उनके लिए। मन कैसे आदर से भर-भर आता है। कितनी अच्‍छी हैं आप, कितनी बहादुर, कितनी जीवट। कभी नहीं बताया और वो चली भी गईं।  ऐसा अकसर नहीं होता कि कुछ कहने के लिए दुनिया का हर शब्‍द नाकाफी लगने लगे। क्‍यों आज कुछ वैसा ही लग रहा है।

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