Wednesday, May 18, 2016
आपदा रिपोर्टिंगःचुनौती और सावधानी का क्षेत्र
प्रभात ओझा ….
प्रिन्ट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में काम करने वाले सामान्य रिपोर्टर्स ही आम तौर पर आपदा के समय भी ड्यूटी पर लगा दिये जाते हैं। हाल के वर्षों में इससे अजीबोगरीब स्थिति बनी है। बाढ़ के पानी में भुक्तभोगी के कंधे पर बैठकर टीवी रिपोर्टर का पीटूसी (पीज टू कैमरा) करना ऐसा ही मामला है। ऐसा उत्तराखंड में हुआ था और ऐसा करने वाले रिपोर्टर को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी थी। यह रिपोर्टर के मानवीय संवदेना से शून्य होने का एक बड़ा उदाहरण है। क्राइम रिपोर्टिंग के परम्परागत माध्यमों में घटना स्थल और शमशान जैसी जगहों पर जाने वाले रिपोर्टर के बारे में कहा जाता है कि वह निडर होता है और विचलित नहीं होता। ध्यान रखना होगा कि विचलित नहीं होने और मानवीय संवेदना खो देने में बहुत फर्क होता है। भुक्तभोगी के कंधे पर बैठकर अपना काम करना संवेदना-शून्य होने का गवाह था। अपने काम के दौरान वह जरूरत से ज्यादा अपने बचाव को लेकर चिंतित था। ब्रिटेन के पत्रकार मार्क ब्रेन, यूरोपियन सेंटर फॉर जर्नलिज्म एंड ट्रॉमा के संचालक भी हैं। वे एक मनःचिकित्सक के रूप में भी काम करते हैं। उनका मानना है कि पत्रकार होने का मतलब सुपरमैन होना नहीं है। बिना प्रभावित हुए आप रिपोर्ट कवर कर लें, यह जरूरी नहीं है। फिर भी आपको ध्यान रखना होगा कि जिस काम के लिए निकले हैं, ईमानदारी से करें। आपदा रिपोर्टिंग सामान्य क्राइम रिपोर्टिंग से भी बड़ा स्वरूप वाला है। ऐसे रिपोर्टर को बहुत अधिक सावधान रहने की जरूरत होती है। आपदा रिपोर्टिंग पर विचार करते समय संक्षेप में कुछ बिंदुओं पर ध्यान रखना आवश्यक है।
आपदा रिपोर्टर के सामने हालात
आपदा रिपोर्टर को अलग-अलग हालात में काम करना होता है। इन हालात को समझना जरूरी है और ये हालात आपदा की किस्म पर निर्भर है। प्राकृतिक आपदाएं मनुष्य और अन्य जीवों को बहुत प्रभावित करती हैं। प्राकृतिक आपदा को कई रूपों में देखा जाता है। हरिकेन,सुनामी,सूखा,बाढ़,टायफून,बवंडर,चक्रवात आदि मौसम से सम्बन्धित प्राकृतिक आपदा हैं। भूस्खलन और अवघाव या हिमघाव (बर्फ की सरकती हुई चट्टान) ऐसी प्राकृतिक आपदा हैं जिनके कारण प्रभावित स्थल का आकार बदल जाया करता है। भूकम्प और ज्वालामुखी भी कमोबेश इसी तरह की आपदा हैं। ज्वालामुखी के कारण अग्निकांड अथवा दावानल जैसे परिणाम आते हैं। ऐसा टेक्टोनिक प्लेट के कारण हुआ करता है। टिड्डी दल का हमला,कीटों के प्रकोप को भी प्राकृतिक आपदा में शामिल किया गया है। ज्वालामुखी, भूकम्प, सुनामी, बाढ़, दावानल, टायफून, बवंडर,चक्रवात,भूस्खलन तेज गति वाली आपदाएं हैं। दूसरी ओर सूखा, कीटों का प्रकोप और अग्निकांड धीमी गति वाली आपदाओं में शामिल की जाती हैं।
प्राकृतिक आपदाओं के अतिरिक्त मानवीय दखल ने भी एक नये प्रकार की आपदा को जन्म दिया है। यह पर्यावरणीय आपदाएं हैं। इस तरह की आपदाओं में वैश्विक ऊष्मन (Global Warming), ओद्योगिक क्रियाकलाप, जनसंख्या वृद्धि और प्रकृति के साथ खिलवाड़ शामिल हैं। तीसरे तरह की दुर्घटनाजनित आपदाओं से हम सभी वाकिफ ही हैं।
यह हो सकता है नजारा
आपदा के फलस्वरूप जो स्थितियां उत्पन्न हो जाती है, उन पर भी नजर डालना जरूरी है। भूकम्प जैसी आपदा के समय LPG रिसाव से आग लग सकती है। विद्युत आपूर्ति कट जाती है,जलापूर्ति भी बंद हो जाती है। जन सामान्य पर फिर से भूकम्प का डर व्याप्त रहता है। आपदा की दूसरी स्थितियों में भी कमोबेश इसी तरह के हालात बन जाते हैं। जलापूर्ति की पाइप टूट जाने से टैंक का पानी बह जाता है। पीने का स्वच्छ पानी नहीं मिलता। खाद्य पदार्थ नष्ट हो जाते हैं,लोगों को खाना नसीब नहीं होता है। लोग मलबे में दबे हो सकते हैं और सड़कें भी मलबे से अट जाती हैं। ऐसे में लोगों तक सहायता देर से पहुंचती है। इसी परिदृश्य में कुछ लोग मलबे में से माल तलाशने में लगे होते हैं। लूटपाट को बढ़ावा मिलता है। मृतक मनुष्य और अन्य जीवों की बदबू फैली होती है। महामारी की स्थिति भी हो सकती है। कहीं सुरक्षित आश्रय नहीं होता। स्थिति और भयावह हो सकती है जब लोग सहयता सामग्री भी लूटने की कोशिश करें। आपदा के इस सामान्य स्वरूप को ध्यान में रखते हुए रिपोर्टिंग पर विचार कर सकते हैं।
महत्व नहीं मिला इस रिपोर्टिंग को
प्राकृतिक आपदाओं के अतिरिक्त मानवीय दखल ने भी एक नये प्रकार की आपदा को जन्म दिया है। यह पर्यावरणीय आपदाएं हैं। इस तरह की आपदाओं में वैश्विक ऊष्मन (Global Warming), ओद्योगिक क्रियाकलाप, जनसंख्या वृद्धि और प्रकृति के साथ खिलवाड़ शामिल हैं। तीसरे तरह की दुर्घटनाजनित आपदाओं से हम सभी वाकिफ ही हैं।
यह हो सकता है नजारा
आपदा के फलस्वरूप जो स्थितियां उत्पन्न हो जाती है, उन पर भी नजर डालना जरूरी है। भूकम्प जैसी आपदा के समय LPG रिसाव से आग लग सकती है। विद्युत आपूर्ति कट जाती है,जलापूर्ति भी बंद हो जाती है। जन सामान्य पर फिर से भूकम्प का डर व्याप्त रहता है। आपदा की दूसरी स्थितियों में भी कमोबेश इसी तरह के हालात बन जाते हैं। जलापूर्ति की पाइप टूट जाने से टैंक का पानी बह जाता है। पीने का स्वच्छ पानी नहीं मिलता। खाद्य पदार्थ नष्ट हो जाते हैं,लोगों को खाना नसीब नहीं होता है। लोग मलबे में दबे हो सकते हैं और सड़कें भी मलबे से अट जाती हैं। ऐसे में लोगों तक सहायता देर से पहुंचती है। इसी परिदृश्य में कुछ लोग मलबे में से माल तलाशने में लगे होते हैं। लूटपाट को बढ़ावा मिलता है। मृतक मनुष्य और अन्य जीवों की बदबू फैली होती है। महामारी की स्थिति भी हो सकती है। कहीं सुरक्षित आश्रय नहीं होता। स्थिति और भयावह हो सकती है जब लोग सहयता सामग्री भी लूटने की कोशिश करें। आपदा के इस सामान्य स्वरूप को ध्यान में रखते हुए रिपोर्टिंग पर विचार कर सकते हैं।
महत्व नहीं मिला इस रिपोर्टिंग को
हमारे देश में आपदा रिर्पोटिंग को मीडिया केाई महत्व नहीं देता है। रिर्पोटिंग के इस रूप को संजीदगी से नहीं लिया जाता है। इक्का-दुक्का को छोड़ दें तो किसी भी मीडिया संस्थान में आपदा रिपोर्टिंग रूटीन बीट नहीं है। आपदा के वक्त किसी भी रिपोर्टर से खबर लिखवा ली जाती है। इसके विपरीत वास्तविकता यह है कि आपदा से पूर्व, आपदा के समय और उसके बाद भी मीडिया की अहम भूमिका होती है। उसे अपना यह उत्तरदायित्व पूरा करना होता है। पत्रकार आशीष वशिष्ठ कहते हैं- “आपदा के समय मीडिया बहुत अहम भूमिका निभा सकता है। इसके सहयोग के बिना लोगों को पूरी तरह जागरूक नहीं किया जा सकता। आपदा के समय मीडिया कर्मियों का सामाजिक व राष्ट्रीय दायित्व और भी बढ़ जाता है। संकटकाल, दैवीय आपदा व दुर्घटना के समय मीडिया की भूमिका और महत्वपूर्ण हो जाती है। संकटकालीन परिस्थिति में त्वरित गति से सही सूचनाओं के प्रवाह से जनता के बीच अफवाह को रोका जा सकता है”।
अफवाह रोकना जरूरी
अफवाह रोकना जरूरी
आम तौर पर आपदा के समय मीडिया अफवाहों को रोकने की जगह उसे बढ़ावा देते हुए दिखाई देता है। आपदा रिपोर्टिंग में लोगों की रुचि काफी अधिक हुआ करती है। ऐसा इसलिए कि लोग एक ‘अनहोनी’ के डर से परेशान रहते हैं। लोगों को लगता है कि अगले कुछ समय में उनके साथ भी कुछ गलत हो सकता है। ऐसे में पहले से ही बचाव के उपाय करने होते हैं। विडम्बना यह है कि मीडिया ताजा हालात बताने की जगह ‘मौके पर पहले पहुंचने’ की आपाधापी में रहता है। ध्यान रखना होगा कि लोग यह जानना चाहते हैं कि तात्कालिक आपदा और कितना कहर बरपा सकती है। इसका प्रभाव क्षेत्र और कहां तक बढ़ सकता है। अच्छी बात है कि अंतरिक्ष विज्ञान ने इस दिशा में बहुत काम किया है। उपग्रहों की मदद से जाना जा सकता है कि
हरिकेन,टायफून,बवंडर,चक्रवात की क्या स्थिति रहेगी। इन मामलों में ठीक-ठीक भविष्यवाणी के जरिए लाखों लोगो की जान बचाई जा सकी है। इन भविष्यवाणियों से बड़े पैमान पर सम्पत्ति को भी सुरक्षित किया जा सका है। यह कोशिश हो रही है कि भूकंप और सुनामी की भी भविष्यवाणी की जा सके। इसके लिए पालतू और अन्य जन्तुओं के व्यवहार से मदद मिलने की उम्मीद रहती है। आपदाओं के समय मीडिया से उम्मीद की जाती है कि इन सम्बंधित पक्षों के जरिए सही सूचना दे। इसके विपरीत मीडिया मौके की खबर के चक्कर में भय बढ़ाता हुआ गैरजिम्मेदार लगने लगता है। पिछले दिनों देश के पश्चिमी छोर पर सुनामी और उत्तराखंड में बाढ़ के दौरान इस तरह की गैरजिम्मेदारी दिखाई पड़ी। लोग सुनामी की लहरों के खौफ तले जी रहे थे। मीडिया खौफनाक सुनामी लहरों के बीच तबाही की फुटेज बार-बार दिखा रहा था। एक ही तरह के फुटेज सुबह से शाम तक रिपीट किये जाते रहे।
अफवाहों का आलम यह था कि उत्तराखंड आपदा के समय कई चैनल यह बताते रहे कि कुछ स्थानीय लोग विपदा में फंसे यात्रियों को लूट रहे हैं। इस तरह की घटना से इंकार नहीं किया जाता। फिर भी एक तथ्य यह है कि हर ओर ऐसा ही नजारा नहीं था। कुछ घटनाओं के आधार पर पूरा परिदृश्य रखना कहीं से भी तर्कसंगत नहीं हो सकता। कहा गया कि पानी के बोतल के 15 रुपये की जगह 100 रुपये लिये जा रहे हैं। यह भी कि बिस्किट के लिए बड़ी रकम वसूली जा रही है। चलिए कहीं ऐसा हुआ भी तो लोगों को डराने की जगह यह बताना भी जरूरी था कि किन लोगों ने परेशान यात्रियों की सेवा की। ऐसे उदाहरण भी तो थे, जिनमें स्थानीय लोगों ने परेशानी में होते हुए भी हजारों रुपये लगाकर पीड़ितों की मदद की।
स्पष्ट है कि आम तौर पर चैनलों की रिपोर्ट में लोगों में जागरूकता फैलाने, उन्हें आश्वस्त करने औरहौसला रखने का मकसद काफी कम देखा गया। इसकी जगह चैनल लोगों को डराने और बेबसी का अहसास कराने में लगे रहे। कहने का आशय यह है कि आपदा के समय भड़काने और डराने वाली सूचनाओं से परहेज करना चाहिए।
सच्चाई बताएं
अफवाहों का आलम यह था कि उत्तराखंड आपदा के समय कई चैनल यह बताते रहे कि कुछ स्थानीय लोग विपदा में फंसे यात्रियों को लूट रहे हैं। इस तरह की घटना से इंकार नहीं किया जाता। फिर भी एक तथ्य यह है कि हर ओर ऐसा ही नजारा नहीं था। कुछ घटनाओं के आधार पर पूरा परिदृश्य रखना कहीं से भी तर्कसंगत नहीं हो सकता। कहा गया कि पानी के बोतल के 15 रुपये की जगह 100 रुपये लिये जा रहे हैं। यह भी कि बिस्किट के लिए बड़ी रकम वसूली जा रही है। चलिए कहीं ऐसा हुआ भी तो लोगों को डराने की जगह यह बताना भी जरूरी था कि किन लोगों ने परेशान यात्रियों की सेवा की। ऐसे उदाहरण भी तो थे, जिनमें स्थानीय लोगों ने परेशानी में होते हुए भी हजारों रुपये लगाकर पीड़ितों की मदद की।
स्पष्ट है कि आम तौर पर चैनलों की रिपोर्ट में लोगों में जागरूकता फैलाने, उन्हें आश्वस्त करने औरहौसला रखने का मकसद काफी कम देखा गया। इसकी जगह चैनल लोगों को डराने और बेबसी का अहसास कराने में लगे रहे। कहने का आशय यह है कि आपदा के समय भड़काने और डराने वाली सूचनाओं से परहेज करना चाहिए।
सच्चाई बताएं
उत्तराखंड की त्रासदी का कारण बताने में भी कुछ ऐसा ही हुआ। टेलीविजन पर और अखबारों में नेता और विशेषज्ञ अपने-अपने ढंग से विश्लेषण करने में लगे रहे। यह समझने तक की कोशिश नहीं की गई कि सच्चाई क्या है। मीडिया ने आपदाओं की सच्चाई जानने की जगह उसे बार-बार तमाशा ही बनाया। सामान्य तौर पर भौगोलिक और पर्यावरणीय स्थितियों को बताने में स्थानीय लोग अधिक उपयोगी हो सकते हैं। उत्तराखंड के मामले में ऐसा ही था। कहा गया कि केदारनाथ की घटना बादल फटने से हुई। पर्यावरणविद चंडी प्रसाद भट्ट के मुताबिक “जैसा कहा गया कि बादल फटा। बादल फटने के लिए एक सौ मिलीलीटर बारिश एक घंटे तक एक जगह पर केन्द्रित होनी चाहिए। तो उसे बादल फटना कह सकते हैं। भारी बारीश कहना फिर भी ठीक है। लेकिन यदि पत्रकार और वैज्ञानिक दोनों बादल फटना शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं तो कैसे कह रहे हैं? आपको कैसे पता, कि कितनी बारिश हुई? इसका सीधा अर्थ है आप भय पैदा करना चाहते हैं। केदारनाथ और गंगोत्री में आपके पास आंकड़े नहीं हैं मौसम के, फिर आप कैसे कह रहे हैं बादल फटा?’ कहा जा सकता है कि चैनल आपदा का कारण बताने में भौगोलिक स्थितियों के जानकार की मदद लेते तो बेहतर होता।
कई बार लगता है कि चैनल लोगों के डर, लाचारी और बेचैनी को भुनाने की कोशिश कर रहे हैं। देखने में आया है कि कुछ अपवादों को छोड़ कर कई चैनल भूकंप और सुनामी से हुई तबाही के बारे में वस्तुनिष्ठ और तथ्यपूर्ण तरीके से खबरें नहीं देते। उनकी रिपोर्ट में वैज्ञानिक कारणों को स्पष्ट नहीं किया जाता। ऐसे चैनलों का जोर सनसनी, घबराहट और बेचैनी बढ़ाने पर ही रहता है।
रिपोर्टिंग के समय ध्यान रखें
धैर्य रखें/शांत चित्त रहें
कई बार लगता है कि चैनल लोगों के डर, लाचारी और बेचैनी को भुनाने की कोशिश कर रहे हैं। देखने में आया है कि कुछ अपवादों को छोड़ कर कई चैनल भूकंप और सुनामी से हुई तबाही के बारे में वस्तुनिष्ठ और तथ्यपूर्ण तरीके से खबरें नहीं देते। उनकी रिपोर्ट में वैज्ञानिक कारणों को स्पष्ट नहीं किया जाता। ऐसे चैनलों का जोर सनसनी, घबराहट और बेचैनी बढ़ाने पर ही रहता है।
रिपोर्टिंग के समय ध्यान रखें
धैर्य रखें/शांत चित्त रहें
आपदा अपने आप में एक ऐसी असामान्य स्थिति है, जहां किसी को तत्काल कुछ समझ में नहीं आता कि क्या करे। हर कोई अपने को बचाने की जुगत में होता है। यह असामान्य स्थिति बड़े पैमाने पर विस्तृत परिदृश्य में घटित होती है। जो इस तरह की आपदा से प्रभावित हैं, कभी-कभी उन्हें देखकर किसी का भी दिल दहल जाने की स्थिति हो सकती है। ऐसे में एक रिपोर्टर क्या करे,सबसे बड़ा सवाल तो यही है। रिपोर्टर होने के पहले वह मनुष्य भी है। स्वाभाविक है कि वह विपदाग्रस्त किसी इंसान अथवा जीव को बचाना चाहता है। फिर समय रहते उसे अपनी रिपोर्ट भी देनी होती है। उम्मीद की जाती है कि रिपोर्टर स्थिर चित्त होकर विचार करे। आस-पास के माहौल पर नजर डाले, समय रहते लोगों को बचाने की गारंटी भी करे,पर अपनी रिपोर्ट पर केंद्रित रहे। इस मायने में आपदा रिपोर्टिंग दूसरी किसी रिपोर्टिंग से भिन्न हो जाती है।
त्वरित अध्ययन आवश्यक
आपदा रिपोर्टर को किसी भी पल किसी भी तरह की रिपोर्टिंग के लिए भेजा जा सकता है। ऐसे में उसे ढेर सारी जानकारी यथा शीघ्र लेनी पड़ती है। सम्बंधित नये मामलों की जानकारी ग्रहण करना बहुत आसान नहीं होता। उदाहरण के तौर पर रिपोर्टर पहली बार किसी विमान दुर्घटना को कवर करने के लिए भेजा जाय,तो जरूरी नहीं कि उसे विमान सम्बंधी जानकारी हो। वह दुर्घटना के स्थान और उसके तात्कालिक असर के बारे में तो बता सकता है। इस बात का भरोसा नहीं कि वह दुर्घटना के कारण भी समझ सके। यदि तकनीकी जानकार उसे कुछ बताएं, तो प्रारम्भिक ज्ञान होने पर ही ग्रहण किया जा सकता है। स्वाभाविक तौर पर कम समय में तेजी से अध्ययन उसे मदद पहुंचा सकता है। विस्तृत तैयारी रहेगी तो आपदास्थल पर घबराहट से भी बचा जा सकता है।
रिपोर्टर के इस अध्ययन में दुर्घटना स्थल की परिस्थिति भी शामिल है। मान लें कि वहां के हाल रिपोर्टर को द्रवित कर रहे हैं। ऐसे हालात में वह धैर्य के साथ लोगों की मदद के लिए सम्बंधित एजेंसी से गारंटी कर सकता है। इसके बावजूद उसे अपनी रिपोर्ट पर काम करना पड़ता है।
सावधानी अपेक्षित
ध्यान रहे कि मदद की गारंटी करना और खुद बचाव अथवा राहतकर्मी बन जाने में फर्क है। आपदा स्थल पर गये रिपोर्टर को ध्यान रखना होगा कि उसे जो काम करना है, वह महत्वपूर्ण है। वह एक पत्रकार होता है, बचावकर्मी नहीं। मौके पर वह रिपोर्टिंग के लिए गया होता है। फिर भी कई बार यह तय करना कठिन हो जाता है। बार-बार इस बात पर जोर देते हुए इंसान का इंसान के प्रति सहयोग का भाव उभर आता है। मुश्किल फैसला होता है कि रिपोर्टर किसी को बचाये, या फिर इंटरव्यू करे, अपनी रिपोर्ट भेजे? इंसान कठोर भी होता है और रिपोर्टर भी वैसे ही कठोर बन जाते हैं। इसके बावजूद एक रिपोर्टर को अपने आप को उस स्थिति के लिए तैयार करना होता है, जो वह कवर करने जा रहा है।
विस्तृत जानकारी लें
मौके से अधिकाधिक जानकारी लेनी चाहिए। छोटी-बड़ी हर जानकारी काम आ सकती है। आपदा स्थल के दृश्य, उसके परिणाम, जनजीवन पर असर, लोगों के बीच चर्चा आदि पर नजर रखना जरूरी होता है। पता नहीं कौन सी बात रिपोर्ट देते समय काम आ जाय। उदाहरण के लिए किसी दुर्घटना के समय यदि कई यात्रियों को एक ही तरह के चोट हैं, तो विचार करना होगा कि ऐसा किन परिस्थितियों में हुआ होगा। अधिक से अधिक विवरण एकत्र करने से इस तरह के तथ्य जानने में आसानी होगी।
सजीव जानकारी
अखबार का पाठक अथवा टीवी का दर्शक आपदा स्थल की हर जानकारी चाहता है। ऐसे में रिपोर्टर को ध्यान में रखना पड़ेगा कि उसकी रिपोर्ट के लिए क्या-क्या उपयोगी हो सकता है। उदाहरण के लिए सामान्य स्थानों से अलग तरह के दृश्य, आवाज और गंध किसी रिपोर्ट के लिए उपयोगी हो सकते हैं। ऐसे में एक रिपोर्टर को खुद कैमरा और टेप रिकॉर्डर मान कर चलना चाहिए। अधिक से अधिक दृश्य और लोगों की आवाज रिपोर्ट को बेहतर बना सकती है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के रिपोर्टर के पास कैमरा हो सकता है। सम्भव है कि उसके साथ कैमरामैन भी हो। इसी तरह प्रिंट के रिपोर्टर भी छोटे कैमरे और टेप रिकॉर्डर रखने लगे हैं। यह उपयोगी भी हैं, पर यदि रिपोर्टर के दिमाग में घटनास्थल की यादें बनी हुई हैं, तो रिपोर्ट तैयार करने में समय की बचत होगी।
आधिकारिक व्यक्तियों से सम्पर्क
आपदा स्थल पर ढेर सारे ऐसे संगठन होते हैं, जो मौके पर लोगों की मदद और बचाव के लिए मौजूद होते हैं। उदाहरण के लिए फायर ब्रिगेड,पुलिस और चिकित्सकों के साथ अन्य दूसरे विभाग के लोग आपदा स्थल पर कार्य करते हैं। एक रिपोर्टर को ध्यान में रखना होगा कि वह उनके काम में व्यवधान भी नहीं डाले और सही स्थिति का पता कर ले। ऐसे में इन विभागों के प्रभारी की तलाश आवश्यक है। ऐसे प्रभारी के पास हर तरह की जानकारी हो सकती है। उससे मिलकर आधिकारिक बयान लिया जा सकता है।
प्रत्यक्षदर्शी से बातचीत
त्वरित अध्ययन आवश्यक
आपदा रिपोर्टर को किसी भी पल किसी भी तरह की रिपोर्टिंग के लिए भेजा जा सकता है। ऐसे में उसे ढेर सारी जानकारी यथा शीघ्र लेनी पड़ती है। सम्बंधित नये मामलों की जानकारी ग्रहण करना बहुत आसान नहीं होता। उदाहरण के तौर पर रिपोर्टर पहली बार किसी विमान दुर्घटना को कवर करने के लिए भेजा जाय,तो जरूरी नहीं कि उसे विमान सम्बंधी जानकारी हो। वह दुर्घटना के स्थान और उसके तात्कालिक असर के बारे में तो बता सकता है। इस बात का भरोसा नहीं कि वह दुर्घटना के कारण भी समझ सके। यदि तकनीकी जानकार उसे कुछ बताएं, तो प्रारम्भिक ज्ञान होने पर ही ग्रहण किया जा सकता है। स्वाभाविक तौर पर कम समय में तेजी से अध्ययन उसे मदद पहुंचा सकता है। विस्तृत तैयारी रहेगी तो आपदास्थल पर घबराहट से भी बचा जा सकता है।
रिपोर्टर के इस अध्ययन में दुर्घटना स्थल की परिस्थिति भी शामिल है। मान लें कि वहां के हाल रिपोर्टर को द्रवित कर रहे हैं। ऐसे हालात में वह धैर्य के साथ लोगों की मदद के लिए सम्बंधित एजेंसी से गारंटी कर सकता है। इसके बावजूद उसे अपनी रिपोर्ट पर काम करना पड़ता है।
सावधानी अपेक्षित
ध्यान रहे कि मदद की गारंटी करना और खुद बचाव अथवा राहतकर्मी बन जाने में फर्क है। आपदा स्थल पर गये रिपोर्टर को ध्यान रखना होगा कि उसे जो काम करना है, वह महत्वपूर्ण है। वह एक पत्रकार होता है, बचावकर्मी नहीं। मौके पर वह रिपोर्टिंग के लिए गया होता है। फिर भी कई बार यह तय करना कठिन हो जाता है। बार-बार इस बात पर जोर देते हुए इंसान का इंसान के प्रति सहयोग का भाव उभर आता है। मुश्किल फैसला होता है कि रिपोर्टर किसी को बचाये, या फिर इंटरव्यू करे, अपनी रिपोर्ट भेजे? इंसान कठोर भी होता है और रिपोर्टर भी वैसे ही कठोर बन जाते हैं। इसके बावजूद एक रिपोर्टर को अपने आप को उस स्थिति के लिए तैयार करना होता है, जो वह कवर करने जा रहा है।
विस्तृत जानकारी लें
मौके से अधिकाधिक जानकारी लेनी चाहिए। छोटी-बड़ी हर जानकारी काम आ सकती है। आपदा स्थल के दृश्य, उसके परिणाम, जनजीवन पर असर, लोगों के बीच चर्चा आदि पर नजर रखना जरूरी होता है। पता नहीं कौन सी बात रिपोर्ट देते समय काम आ जाय। उदाहरण के लिए किसी दुर्घटना के समय यदि कई यात्रियों को एक ही तरह के चोट हैं, तो विचार करना होगा कि ऐसा किन परिस्थितियों में हुआ होगा। अधिक से अधिक विवरण एकत्र करने से इस तरह के तथ्य जानने में आसानी होगी।
सजीव जानकारी
अखबार का पाठक अथवा टीवी का दर्शक आपदा स्थल की हर जानकारी चाहता है। ऐसे में रिपोर्टर को ध्यान में रखना पड़ेगा कि उसकी रिपोर्ट के लिए क्या-क्या उपयोगी हो सकता है। उदाहरण के लिए सामान्य स्थानों से अलग तरह के दृश्य, आवाज और गंध किसी रिपोर्ट के लिए उपयोगी हो सकते हैं। ऐसे में एक रिपोर्टर को खुद कैमरा और टेप रिकॉर्डर मान कर चलना चाहिए। अधिक से अधिक दृश्य और लोगों की आवाज रिपोर्ट को बेहतर बना सकती है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के रिपोर्टर के पास कैमरा हो सकता है। सम्भव है कि उसके साथ कैमरामैन भी हो। इसी तरह प्रिंट के रिपोर्टर भी छोटे कैमरे और टेप रिकॉर्डर रखने लगे हैं। यह उपयोगी भी हैं, पर यदि रिपोर्टर के दिमाग में घटनास्थल की यादें बनी हुई हैं, तो रिपोर्ट तैयार करने में समय की बचत होगी।
आधिकारिक व्यक्तियों से सम्पर्क
आपदा स्थल पर ढेर सारे ऐसे संगठन होते हैं, जो मौके पर लोगों की मदद और बचाव के लिए मौजूद होते हैं। उदाहरण के लिए फायर ब्रिगेड,पुलिस और चिकित्सकों के साथ अन्य दूसरे विभाग के लोग आपदा स्थल पर कार्य करते हैं। एक रिपोर्टर को ध्यान में रखना होगा कि वह उनके काम में व्यवधान भी नहीं डाले और सही स्थिति का पता कर ले। ऐसे में इन विभागों के प्रभारी की तलाश आवश्यक है। ऐसे प्रभारी के पास हर तरह की जानकारी हो सकती है। उससे मिलकर आधिकारिक बयान लिया जा सकता है।
प्रत्यक्षदर्शी से बातचीत
आपातकालीन अधिकारियों से सूचना ग्रहण करना उपयोगी हो सकता है। साथ ही यह ध्यान रहे कि आपदा के गवाह अधिक पुष्ट सूचना दे सकते हैं। ऐसे में उम्मीद की जाती है कि आपदा रिपोर्टर प्रत्यक्षदर्शियों से भी बात करे। ऐसे व्यक्ति सटीक जानकारी दे सकते हैं, जो आपदा के स्थल पर मौजूद रहे हों। आपदा रिपोर्टिंग में मौके का गवाह अधिक विश्वसनीय हो सकता है। यथासम्भव ऐसे प्रत्यक्षदर्शी की बातें टेप करने की कोशिश करें। उसकी स्टिल फोटो अथवा वीडियोज भी उपयोगी हो सकते हैं।
प्रभावितों से बातचीत की कोशिश
प्रभावितों से बातचीत की कोशिश
यह हमेशा जरूरी नहीं है कि आपदाग्रस्त लोगों से बातचीत हो जाय। ऐसे लोग आपातकालीन चिकित्सा स्थल पर इलाज करा रहे होते हैं अथवा उनसे पूछताछ जारी रहती है। अगर वे उपलब्ध हों तो रिपोर्टर को यथा सम्भव उनसे बातचीत की कोशिश करनी चाहिए। ध्यान रहे कि इस बिंदु पर बार-बार ‘सम्भव’ शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है। ऐसा इसलिए कि जिन पर आपदा होती है,जरूरी नहीं कि वे बातचीत के लिए तैयार हों। उनके प्रति संवेदनशील रहते हुए बातचीत का रास्ता निकालना पड़ता है। ध्यान रहे कि कोई बातचीत से इंकार करे, तो उसकी इच्छा का सम्मान भी जरूरी है।
‘नायकों’ से करें बात
‘नायकों’ से करें बात
आप जानते हैं कि कुछ लोग विपरीत परिस्थितियों में भी बेहतर काम के लिए याद किये जाते है। ये लोग नायक की तरह पहचान रखते हैं। हर आपदा में ऐसे लोग जरूर होते हैं, जिन्होंने खुद की परवाह छोड़कर दूसरों की मदद की हो। मदद के दौरान कई को तो अपनी जान भी जोखिम में डालनी पड़ती है। ऐसे लोगों के कारनामे स्वयं में एक रिपोर्ट होती है और लोग इसे चाव से पढ़ना-देखना चाहते हैं। ऐसे नायकों से भी बातचीत की कोशिश होनी चाहिए।
संख्या का ध्यान जरूरी
संख्या का ध्यान जरूरी
आपदा रिपोर्टिंग में संख्या का बहुत महत्व है। रिपोर्टर के लिए यह पता लगाना उपयोगी हो सकता है कि संबंधित आपदा में कितने लोग मारे गये अथवा घायल हुए हैं। कितना क्षेत्र आपदा की चपेट में है। आपदा से कितनी सम्पत्ति नष्ट हुई अथवा प्रभावित हुई है। ध्यान रहे कि यह जानकारी आवश्यक तो है पर यह सूचना गलत भी हो सकती है। ऐसे में सम्बंधित अधिकारी से ही जानकारी लेनी चाहिए और उसकी भी यथा सम्भव पुष्टि कर लेनी चाहिए।
पांच ‘क’ अथवा ‘w’
पांच ‘क’ अथवा ‘w’
आप जानते ही हैं कि एक रिपोर्ट में पांच ‘क’ अथवा w का ध्यान रखना बहुत उपयोगी हो सकता है। ये हैं कौन (who), क्या (what), कहां ( where), कब (when) और क्यों (why)। छठवां ‘क’ भी है जो ‘कैसे’ शब्द के लिए है, पर इसका अंग्रेजी शब्द w से नहीं h से शुरू होता है और वह how है। इस तरह पांच w और एक h मिलकर ये छह किसी रिपोर्टिंग के मुख्य बिंदु बन जाते हैं। इन छह शब्दों को ध्यान में रखने से आप निश्चिंत हो सकते हैं कि इनका जवाब आपकी रिपोर्ट को पूर्ण बना सकता है।
ढेर सारे खतरे भी
रिपोर्टर कभी-कभी एक ऐसी परिस्थिति में होता है, जहां उसके सामने मौत है। वहां नाटकीय घटनाएं होती रहती हैं और अत्यधिक मानसिक तनाव पैदा हो जाता है। रिपोर्टर अपने सामान्य जीवन से बाहर होता है। रिपोर्टर के तौर पर उसके सामने चुनौती होती है। एक इंसान के रूप में भी यही हालात होते हैं।
पत्रकार प्रायःऐसी घटनाओं के गवाह बनते हैं, जिनके प्रत्यक्ष अनुभव का अवसर दूसरे लोगों को शायद ही मिलता है। रिपोर्टर ही पाठकों और श्रोताओं की आँख और कान होते हैं। वे जो देखते और सुनते हैं वह श्रोताओं-पाठकों तक तो पहुंच जाते हैं, पर इस प्रक्रिया में रिपोर्टर्स को दहलाने और सदमा में डालने वाले अनुभव हो सकते हैं। आपदा रिपोर्टर को ध्यान रखना होगा कि वह एक इंसान भी है। सही मायनों में इंसान होना ही पत्रकारिता के केंद्र में होता है। अब आप इंसान हैं, तो जो घटना आप कवर कर रहे हैं, उससे प्रभावित भी हो सकते हैं। ब्रिटिश पत्रकार मार्क ब्रेन कहते हैं कि पत्रकार होने का यह मतलब नहीं है कि आपने किसी सुपरमैन की तरह कोई कवच पहना हुआ है। आप बिना किसी तरह से प्रभावित हुए रिपोर्ट कवर नहीं कर सकते। ऐसे में वह सुझाव देते हैं कि सबसे पहले, आप जिस काम को करने निकले हैं उसमें से इन बातों के बारे में अपने प्रति ईमानदार रहते हुए विचार करें –
(क) खतरे
(ख) चुनौतियां
(ग) अपनी सीमाएं
आपदा रिपोर्टर को सुझाव
आप अपनी चिन्ताओं और परेशानियों पर सही लोगों से बात करें। आपकी अपनी सुरक्षा, आपका परिवार और आपको अपने विश्वास पर खुलकर बातचीत करनी चाहिए। दरअसल, बातचीत से मदद मिलती है, फिर हम चुपचाप क्यों रहें। एक रिपोर्टर की चिंताओं पर पश्चिमी देशों में अधिक खुलकर बात होने लगी है। आपदा प्रबंधन की तरह आपदा रिपोर्टर की सुरक्षा पर भी बातचीत की जाती है। संतोष की बात है कि हमारे देश के मीडिया घराने भी इस मायने में पहले से कुछ बेहतर हुए हैं। हालांकि अभी भी ढेर सारे पड़ाव पार करने हैं।
आ सकती है ये मुश्किल!
ऐसा भी हो सकता है कि आप जिस घटना को कवर कर रहे हैं, वह आपके पड़ोस में हुई हो। यह घटना आपको प्रभावित कर सकती है। हो सकता है कि आपका परिवार भी आपकी उस रिपोर्ट का हिस्सा हो। मनोचिकित्सक कहते हैं कि इस तरह के हालात आपकी स्थिति बदल सकते हैं। इससे सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों तरह के प्रभाव पड़ सकते हैं। सकारात्मक असर यह हो सकता है कि आप ऐसी स्थिति में भी अपनी रिपोर्ट को महत्व देंगे। आपके दिमाग में बात बनी रह सकती है कि आपकी रिपोर्ट आपके लिए महत्वपूर्ण है। आपके भीतर का पत्रकार आपको प्रेरित करेगा कि आपको सही तथ्य देना है। निष्ठा के साथ काम करना है। अपने पाठकों अथवा श्रोताओं को रिपोर्ट के बारे में ठीक से समझाना है। यह काम सही तरीके से तभी हो सकेगा, जब आपको अपने काम की सार्थकता पर भरोसा हो। नकारात्मक तथ्य यह उभर सकता है कि आप सोचेंगे कि आपके अपने मसलों से निष्पक्ष और स्वतंत्र रहने पर निजी और पारिवारिक जीवन में कहां असर पड़ेगा। निश्चित ही एक रिपोर्टर से पहली स्थिति की ही उम्मीद की जाती है।
लग सकता है सदमा
आपदा रिपोर्टिंग आसान नहीं है। जैसा कि कहा गया है रिपोर्टर एक मनुष्य भी है और इस नाते वह घटनाओं से प्रभावित हो सकता है। यह असर उसे सदमे तक पहुंचा सकता है। मनोचिकित्सक सदमे को चोट लगने के जैसा मानते हैं। सदमा एक मानसिक चोट होता है और लक्षण के आधार पर इसे तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता –
1.मानसिक आघात
रिपोर्टर किसी बात को अपने दिमाग से निकाल नहीं पाता। उदाहरण के तौर पर उसे परेशान करनेवाले दृश्य आते हैं। स्मृतियां उभर आती हैं और डरावने सपने भी आते हैं।
2.स्थितियों को टालना
रिपोर्टर कुछ खास जगहों पर जाने से बचने लगता है। ऐसा रिपोर्टिंग के समय किसी बुरे हालात के दिमाग में जगह बना लेने के कारण होता है। उसे डर लगता है कि वहां जाने पर कुछ बुरा हो सकता है। ऐसा रिपोर्टर कभी-कभी संवेदनाहीन भी हो जाता है। उस पर किसी के दुःखों का असर नहीं पड़ता।
ढेर सारे खतरे भी
रिपोर्टर कभी-कभी एक ऐसी परिस्थिति में होता है, जहां उसके सामने मौत है। वहां नाटकीय घटनाएं होती रहती हैं और अत्यधिक मानसिक तनाव पैदा हो जाता है। रिपोर्टर अपने सामान्य जीवन से बाहर होता है। रिपोर्टर के तौर पर उसके सामने चुनौती होती है। एक इंसान के रूप में भी यही हालात होते हैं।
पत्रकार प्रायःऐसी घटनाओं के गवाह बनते हैं, जिनके प्रत्यक्ष अनुभव का अवसर दूसरे लोगों को शायद ही मिलता है। रिपोर्टर ही पाठकों और श्रोताओं की आँख और कान होते हैं। वे जो देखते और सुनते हैं वह श्रोताओं-पाठकों तक तो पहुंच जाते हैं, पर इस प्रक्रिया में रिपोर्टर्स को दहलाने और सदमा में डालने वाले अनुभव हो सकते हैं। आपदा रिपोर्टर को ध्यान रखना होगा कि वह एक इंसान भी है। सही मायनों में इंसान होना ही पत्रकारिता के केंद्र में होता है। अब आप इंसान हैं, तो जो घटना आप कवर कर रहे हैं, उससे प्रभावित भी हो सकते हैं। ब्रिटिश पत्रकार मार्क ब्रेन कहते हैं कि पत्रकार होने का यह मतलब नहीं है कि आपने किसी सुपरमैन की तरह कोई कवच पहना हुआ है। आप बिना किसी तरह से प्रभावित हुए रिपोर्ट कवर नहीं कर सकते। ऐसे में वह सुझाव देते हैं कि सबसे पहले, आप जिस काम को करने निकले हैं उसमें से इन बातों के बारे में अपने प्रति ईमानदार रहते हुए विचार करें –
(क) खतरे
(ख) चुनौतियां
(ग) अपनी सीमाएं
आपदा रिपोर्टर को सुझाव
आप अपनी चिन्ताओं और परेशानियों पर सही लोगों से बात करें। आपकी अपनी सुरक्षा, आपका परिवार और आपको अपने विश्वास पर खुलकर बातचीत करनी चाहिए। दरअसल, बातचीत से मदद मिलती है, फिर हम चुपचाप क्यों रहें। एक रिपोर्टर की चिंताओं पर पश्चिमी देशों में अधिक खुलकर बात होने लगी है। आपदा प्रबंधन की तरह आपदा रिपोर्टर की सुरक्षा पर भी बातचीत की जाती है। संतोष की बात है कि हमारे देश के मीडिया घराने भी इस मायने में पहले से कुछ बेहतर हुए हैं। हालांकि अभी भी ढेर सारे पड़ाव पार करने हैं।
आ सकती है ये मुश्किल!
ऐसा भी हो सकता है कि आप जिस घटना को कवर कर रहे हैं, वह आपके पड़ोस में हुई हो। यह घटना आपको प्रभावित कर सकती है। हो सकता है कि आपका परिवार भी आपकी उस रिपोर्ट का हिस्सा हो। मनोचिकित्सक कहते हैं कि इस तरह के हालात आपकी स्थिति बदल सकते हैं। इससे सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों तरह के प्रभाव पड़ सकते हैं। सकारात्मक असर यह हो सकता है कि आप ऐसी स्थिति में भी अपनी रिपोर्ट को महत्व देंगे। आपके दिमाग में बात बनी रह सकती है कि आपकी रिपोर्ट आपके लिए महत्वपूर्ण है। आपके भीतर का पत्रकार आपको प्रेरित करेगा कि आपको सही तथ्य देना है। निष्ठा के साथ काम करना है। अपने पाठकों अथवा श्रोताओं को रिपोर्ट के बारे में ठीक से समझाना है। यह काम सही तरीके से तभी हो सकेगा, जब आपको अपने काम की सार्थकता पर भरोसा हो। नकारात्मक तथ्य यह उभर सकता है कि आप सोचेंगे कि आपके अपने मसलों से निष्पक्ष और स्वतंत्र रहने पर निजी और पारिवारिक जीवन में कहां असर पड़ेगा। निश्चित ही एक रिपोर्टर से पहली स्थिति की ही उम्मीद की जाती है।
लग सकता है सदमा
आपदा रिपोर्टिंग आसान नहीं है। जैसा कि कहा गया है रिपोर्टर एक मनुष्य भी है और इस नाते वह घटनाओं से प्रभावित हो सकता है। यह असर उसे सदमे तक पहुंचा सकता है। मनोचिकित्सक सदमे को चोट लगने के जैसा मानते हैं। सदमा एक मानसिक चोट होता है और लक्षण के आधार पर इसे तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता –
1.मानसिक आघात
रिपोर्टर किसी बात को अपने दिमाग से निकाल नहीं पाता। उदाहरण के तौर पर उसे परेशान करनेवाले दृश्य आते हैं। स्मृतियां उभर आती हैं और डरावने सपने भी आते हैं।
2.स्थितियों को टालना
रिपोर्टर कुछ खास जगहों पर जाने से बचने लगता है। ऐसा रिपोर्टिंग के समय किसी बुरे हालात के दिमाग में जगह बना लेने के कारण होता है। उसे डर लगता है कि वहां जाने पर कुछ बुरा हो सकता है। ऐसा रिपोर्टर कभी-कभी संवेदनाहीन भी हो जाता है। उस पर किसी के दुःखों का असर नहीं पड़ता।
- अति तनाव
रिपोर्टर का दिल तेजी से धड़कने लगता है। वह बिना किसी बड़ी बात के पसीने-पसीने हो जाता है। ऐसे में वह अपने काम पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाता। पसीने-पसीने होने को इस अर्थ में खराब कह सकते हैं कि आखिर रिपोर्टर कहीं से भाग कर तो आया नहीं होता। अचानक रात को वह बिस्तर से उठे और उसकी चादर पसीने से भीगी हो, तो सावधान हो जाना चाहिए।
सदमा लगने के लक्षण
आपदा रिपोर्टर कई बार सदमे के हालात में पहुंच सकता है। ऐसे में उसे किसी मनोचिकित्सक की जरूरत पड़ सकती है। कोई व्यक्ति सदमा से प्रभावित है, इन लक्षणों से जान सकते है-
उसे डरावने सपने आ सकते हैं
स्मृति में भयावह दृश्य बने रहते हैं
अत्यधिक शराब पीता है
अकेले और चुप रहता है
क्या करें-
आप चिकित्सक और मनोचिकित्सक से सलाह अवश्य लें। सामान्य तौर पर ऐसा होने की स्थिति में निम्न सलाह दी जाती है-
नींद पूरी होनी चाहिए।
पौष्टिक और संतुलित आहार लें, नियमित रूप से खाना आवश्यक।
शराब और कैफीननयुक्त पदार्थों से बचना होगा।
नियमित व्यायाम लाभदायक हो सकता है।
सुबह का घूमना लाभदायक, ताजा हवा में सांस लेना फायदेमंद।
अपने अनुभवों के बारे में दूसरे से बात करना भी स्वास्थ्यप्रद होता है।
कठिन पर चुनौतीपूर्ण कार्य
कोई रिपोर्टर एस्बेस्टस,परमाणु प्लांट और कोयले की खदान जैसी जगह पर जाय तो उसे सावधानियों के बारे में पता होता है। ऐसी जगहों पर शरीर सुरक्षित रखने के उपाय बताये भी जाते हैं। रिपोर्टर को भी सुरक्षा के सामान दिए जाते हैं। इसके विपरीत मानसिक असर के मामले में परेशानी बनी रहती है। फिर कहा जाय कि पश्चिमी देशों ने डिजास्टर(आपदा) के प्रबंधन के साथ उसको रिपोर्ट करने वालों के बारे में भी सोचना शुरू कर दिया है। उन्हें पता है कि आपदा प्रबंधन भी एक लड़ाई है। लड़ाई वाले इलाकों में कभी-कभी पत्रकार भी मारे जाते हैं, उन्हें मानसिक चोट तो लगती ही है। सही मायनों में सदमा पत्रकारों के लिए पेशागत जोखिम है। सैनिकों, अग्निशमन दस्तों और पुलिस वालों की तरह आपदा रिपोर्टर के लिए भी सुरक्षा का सवाल बना हुआ है।
मदद मांगने में संकोच न करें
किसी देश की सरकारें और मीडिया संस्थान अपने रिपोर्टर्स के लिए क्या करते हैं, बहस का अलग मसला है। खुद रिपोर्टर इतना तो सकता है कि मदद मांगने में संकोच न करे। सबसे पहले मददगार सहकर्मी होते हैं। परिवार, दोस्तों और सहकर्मियों की मदद सदमे से उबरने में काफी कारगर होती है। आप परेशान हैं तो सहकर्मियों,दोस्तों और परिवार से बात जरूर करें। आपको दूसरे सहकर्मियों के बारे में भी यही धारणा रखनी चाहिए।
सदमा लगने के लक्षण
आपदा रिपोर्टर कई बार सदमे के हालात में पहुंच सकता है। ऐसे में उसे किसी मनोचिकित्सक की जरूरत पड़ सकती है। कोई व्यक्ति सदमा से प्रभावित है, इन लक्षणों से जान सकते है-
उसे डरावने सपने आ सकते हैं
स्मृति में भयावह दृश्य बने रहते हैं
अत्यधिक शराब पीता है
अकेले और चुप रहता है
क्या करें-
आप चिकित्सक और मनोचिकित्सक से सलाह अवश्य लें। सामान्य तौर पर ऐसा होने की स्थिति में निम्न सलाह दी जाती है-
नींद पूरी होनी चाहिए।
पौष्टिक और संतुलित आहार लें, नियमित रूप से खाना आवश्यक।
शराब और कैफीननयुक्त पदार्थों से बचना होगा।
नियमित व्यायाम लाभदायक हो सकता है।
सुबह का घूमना लाभदायक, ताजा हवा में सांस लेना फायदेमंद।
अपने अनुभवों के बारे में दूसरे से बात करना भी स्वास्थ्यप्रद होता है।
कठिन पर चुनौतीपूर्ण कार्य
कोई रिपोर्टर एस्बेस्टस,परमाणु प्लांट और कोयले की खदान जैसी जगह पर जाय तो उसे सावधानियों के बारे में पता होता है। ऐसी जगहों पर शरीर सुरक्षित रखने के उपाय बताये भी जाते हैं। रिपोर्टर को भी सुरक्षा के सामान दिए जाते हैं। इसके विपरीत मानसिक असर के मामले में परेशानी बनी रहती है। फिर कहा जाय कि पश्चिमी देशों ने डिजास्टर(आपदा) के प्रबंधन के साथ उसको रिपोर्ट करने वालों के बारे में भी सोचना शुरू कर दिया है। उन्हें पता है कि आपदा प्रबंधन भी एक लड़ाई है। लड़ाई वाले इलाकों में कभी-कभी पत्रकार भी मारे जाते हैं, उन्हें मानसिक चोट तो लगती ही है। सही मायनों में सदमा पत्रकारों के लिए पेशागत जोखिम है। सैनिकों, अग्निशमन दस्तों और पुलिस वालों की तरह आपदा रिपोर्टर के लिए भी सुरक्षा का सवाल बना हुआ है।
मदद मांगने में संकोच न करें
किसी देश की सरकारें और मीडिया संस्थान अपने रिपोर्टर्स के लिए क्या करते हैं, बहस का अलग मसला है। खुद रिपोर्टर इतना तो सकता है कि मदद मांगने में संकोच न करे। सबसे पहले मददगार सहकर्मी होते हैं। परिवार, दोस्तों और सहकर्मियों की मदद सदमे से उबरने में काफी कारगर होती है। आप परेशान हैं तो सहकर्मियों,दोस्तों और परिवार से बात जरूर करें। आपको दूसरे सहकर्मियों के बारे में भी यही धारणा रखनी चाहिए।
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