Tuesday, May 3, 2016

महंगाई पता नहीं हमें कहां ले जाएगी। आमदनी घट रही है। महंगी बढ़ रही है। सरकार कह रही है कि हर एक को आधार कार्ड जरूरी है। लेकिन हालात देखकर अपना मानना है कि आधार नहीं उधार कार्ड जरूरी है। आप जब तक यह पढ़ रहे होंगे, महंगाई और बढ़ चुकी होगी। सरकार ने अपने लुभावने लगनेवाले बजट के घाटे को कम करने का इंतजाम कर दिया है। पहले बजट से तेल निकाला। अब वह तेल से कमाई निकालेगी। दो दिन पहले बजट में जो महंगाई बढ़ाई गई थी, उससे भी ज्यादा महंगाई पेट्रोल के भाव बढ़ाकर बढ़ाई है। बढ़ गई।
हमारा इतिहास गवाह है कि निर्मम से निर्मम राजाओं ने भी अपने देश की प्रजा को इस तरह परेशान नहीं किया। जितना वर्तमान सरकार कर रही है। पता नहीं अपने सरदारजी क्या खाकर जन्मे थे कि इस आदमी को रहम ही नहीं आता। हर साल महंगाई और मुंह फाड़ती ही जा रही है। पेट्रोल के झटके के बाद डीजल का झटका भी लगने ही वाला है। तैयार रहिए। लोकतंत्र के डाकू लोग इसी तरह लूटा करते हैं। अपन ने तो पहले ही कहा था कि बजट आनेवाला है। जेब संभालो। और अब भी कह रहे हैं कि जेब संभालिए, क्योंकि डीजल तो अभी बाकी है मेरे दोस्त।

दिशाहीनता जब हद से गुजर जाए, तो उसे मूर्खता ही कहा जाता है. यूआईडी यानी आधार कार्ड के मामले में यूपीए सरकार ने दिशाहीनता की सारी सीमाएं अब लांघ दी हैं

किसी भी रंग को वैसे तो किसी धर्म या समाज विशेष की संपत्ति नहीं कहा जा सकता। परंतु उसके बावजूद तमाम रंग ऐसे हैं जिन्हें विभिन्न समाज के लोगों ने अपनी पहचान व अस्मिता के साथ जोड़ लिया है। इन्हीं रंगों में एक रंग है गेरुआ, केसरी अथवा भगवा रंग। इस रंग को भारतीय प्राचीन संस्कृति से जोड़कर देखा जाता है। और अब हमारे देश में एक विशेष विचारधारा रखने वालों पर यही भगवा रंग इस कद्र चढ़ गया है कि यदि कोई व्यक्ति भगवा रंग की आलोचना करता है तो इन भगवा को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रतीक बताने वालों की त्यौरी पर बल आ जाता है। परंतु आक्रामकता का प्रदर्शन कर या झूठी व बेबुनियाद दलीलें देकर वास्तविकता को कभी छुपाया या दबाया नहीं जा सकता।
एक साधारण व्यक्ति प्रत्येक जटाधारी व भगवाधारी को साधू या बाबा कह कर ही संबोधित करता है तथा उसके साथ श्रद्धा व स मान के साथ पेश आता है।
क्या देश की सरकार या देश का वास्तविक, मान्यता प्राप्त तथा सच्चा साधू समाज इस समस्या के निदान के लिए अपने पास कोई कार्यक्रम रखता है? क्या देश की सरकार व संत समाज के पास इन पाखंडी भगवाधारियों से निपटने की कोई योजना, स्कीम या फार्मूला है? मेरे याल से शायद सरकार या साधू-संतों के एजेंडे में इस प्रकार की कोई चीज़ शामिल नहीं है। लिहाज़ा आम लोगों को अपना व अपने परिवार का, अपने मान-स मान व अपनी बहु-बेटियों की रक्षा करने का प्रबंध स्वयं करना होगा। और इसका सबसे बड़ा तरीका यही है कि अपने घरों में बैठकर अपने ईश्वर या देवी-देवताओं का सिमरन करें, उनकी अराधना करें, भगवाधारियों से सचेत रहें, उन्हें संदेह की नज़रों से देखें, उन पर आंख मूंदकर विश्वास न करें। ऐसे ढोंगी भगवाधारियों पर संदेह होने पर पुलिस को इसकी सूचना दें। पुलिस व प्रशासन को भी चाहिए कि इन की पहचान व शिना त के विषय में जानकारी हासिल करे। अन्यथा भगवा चोले का यह आतंक दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जाएगा।

हमारे देश के लोकतंत्र में सत्ता की मंजि़ल को तय करने के लिए विकास कार्यों के बजाए अन्य जिन रास्तों से होकर गुज़रा जाता है उनमें सांप्रदायिकता, जातिवाद व क्षेत्रवाद जैसे कई मार्ग शामिल होते हैं। इन्हीं अफसोसनाक रास्तों में एक रास्ता है पहले अत्याचार और फिर माफी की राजनीति किए जाने का। 
आिखर कौन होते हैं यह लोग ऐसी अमानवीय व निर्दयतापूर्ण की जाने वाली हत्याओं व नरसंहारों के लिए माफी मांगने की बाते करने वाले लोग? दरअसल यह भी अत्याचार के बाद का एक और इमोशनल अत्याचार ही है। पहले ज़ुल्म करने व कराने के लिए प्रोत्साहित करना, फिर समय बीतने के बाद माफी मांगने की आवाज़ बुलंद करना यह सब लाशों पर की जाने वाली राजनीति का ही एक दूसरा पहलू है। आिखर माफी मांगने की आवाज़ उठाने वालों को यह क्यों समझ में नहीं आता कि साजि़श कर्ता कौन है,ज़ालिम कौन है और मज़लूम व अत्याचार से पीडि़त व प्रभावित कौन? और माफी मांगने की बात किसी राजनैतिक लाभ-हानि के समीकरण के मद्देनज़र करने का किसी तीसरे व्यक्ति को अधिकार कैसे?
क्या माफी की सियासत करने वालों के द्वारा सिख विरोधी दंगों व गुजरात नरसंहार से प्रभावित परिवार के लोगों अथवा ऐसे अन्य अत्याचारों से प्रभावित लोगों से पूछ कर माफी मांगने की आवाज़ उठाई जाती है? क्या माफी मांग लेने भर से ज़ालिम अपने किरदार व अपनी सोच में परिवर्तन ला सकेगा? क्या माफी मांगने से पीडि़त परिवार की भरपाई हो सकेगी? या यह भी अत्याचार की ही तरह महज़ सत्ता के करीब जाने का एक इमोशनल हथकंडा मात्र है?
दरअसल, अत्याचार,नरसंहार, सांप्रदायिक दंगे व नफरत का ज़हर फैलाने की तथा इन सब के बाद माफी मांगने की बात करने की राजनीति महज़ एक पाखंड के सिवा और कुछ भी नहीं। दंगाई देश के किसी भी राज्य के अथवा किसी भी धर्म व समुदाय के व कितनी ही ऊंची पहुंच रखने वाले क्यों न हों, इन दंगाईयों को हर हाल में कड़ी से कड़ी सज़ा दी जानी चाहिए। भले ही वे सत्ता के शिखर पर अथवा जि़ मेदार पदों पर क्यों न विराजमान हों। दंगे की साजि़श रचने वाला, दंगों के लिए उकसाने वाला, दंगाईयों से भी बड़ा अपराधी है।

माफी देना हालांकि सभी धर्मों के संतों व फकीरों ने अच्छाई के रूप में बताया है। परंतु जहां माफी की बात करने का मकसद भी राजनैतिक हो व माफी की बात भी ज़ालिम या मज़लूम के बजाए भावी राजनीति के दृष्टिगत् किसी तीसरे पक्ष या अन्य लोगों द्वारा उठाई जा रही हो तो ऐसी माफी का कोई औचित्य भी नहीं। हां यदि दंगों में संलिप्त अपराधियों व इनके जि़ मेदार लोगों को माफ करने या न करने के विषय पर निर्णय लेने का अधिकार किसी को है तो वह है केवल भुक्तभोगी परिवार के सदस्यों को जो दंगों की पीड़ा को तथा उसके दूरगामी प्रभावों को आज तक झेल रहे हैं तथा भविष्य में भी झेलते रहेंगे। बावजूद इसके कि अंतिम निर्णय तो देश की अदालतों को ही सुनाना है।

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