जापान के संविधान के अनुच्छेद 35 में आगे प्रावधान है कि समस्त लोगों का अपने घरों में, कागजात और सामान का प्रवेश, तलाशी और जब्ती के प्रति सुरक्षित रहने के अधिकार का पर्याप्त कारण और विशेष रूप से तलाशी के स्थान और तलाशी की वस्तुओं का उल्लेख सहित जारी वारंट या अनुच्छेद 33 में प्रावधान के अतिरिक्त अतिक्रमण नहीं किया जायेगा| प्रत्येक तलाशी या जब्ती सक्षम न्यायिक अधिकारी द्वारा अलग अलग जारी वारंट से की जायेगी| किसी भी लोक अधिकारी द्वारा यातना और निर्दयी दण्ड पूर्णतया मना है| [ भारत में पुलिस यातनाएं एक सामान्य बात है और यातनाओं से अपराधी से जुर्म आदि कबुलाना भारतीय आपराधिक न्यायतंत्र का अभिन्न अंग है|] प्रत्येक आपराधिक मामले में अभियुक्त को निष्पक्ष ट्राइब्यूनल द्वारा त्वरित व सार्वजानिक विचारण का अधिकार है| [भारत में तो ऐसे प्रावधान का नितांत अभाव है और अपराध के लिए निर्धारित दण्ड से अधिक अवधि तक कारागार में रहने के बावजूद विचारण पूर्ण नहीं होता|] उसे समस्त गवाहों की परीक्षा हेतु पूर्ण अवसर दिया जायेगा और उसे सार्वजनिक व्यय पर अनिवार्य प्रक्रिया से समस्त गवाहों को आहूत करने का अधिकार होगा| अभियुक्त हमेशा सक्षम परामर्शी की सहायता ले सकेगा , यदि अभियुक्त अपने प्रयासों से यह प्राप्त नहीं कर सके तो राज्य द्वारा उपलब्ध करवाया जायेगा|
किसी भी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध गवाही देने के लिए विवश नहीं किया जायेगा| यातना, धमकी, लंबी गिरफ़्तारी या बंदीकरण, विवशता से प्राप्त दोष संस्वीकृति साक्ष्य में ग्राह्य नहीं होगी| मात्र स्वयं की संस्वीकृति के प्रमाण के आधार पर किसी भी व्यक्ति को दोषसिद्ध या दण्डित नहीं किया जायेगा| अनुच्छेद 40 में आगे प्रावधान है कि कोई भी व्यक्ति जिसे गिरफ्तार करने या निरुद्ध करने के पश्चात दोषमुक्त कर दिया गया हो विधि के प्रावधानों के अनुसार प्रतितोष के लिए राज्य पर वाद ला सकेगा| [भारत में ऐसे प्रावधानों का नितांत अभाव है जिससे पुलिस का आचरण स्वछन्द है|]
अनुच्छेद 41 में आगे प्रावधान है कि डाईट (संसद) राज्य शक्ति का सर्वोच्च अंग होगी, और राज्य का विधि बनाने वाला एकमात्र अंग होगी| जब प्रतिनिधि (लोक) सभा भंग की जाये तो भंग किये जाने के 40 दिन के भीतर उसके सदस्यों के लिए आम चुनाव होंगे, और संसद की सभा चुनाव के 30 दिवस के भीतर संपन्न होगी| संसद, दोनों सदनों के सदस्यों में से, एक महाभियोग न्यायालय स्थापित करेगी जो उन न्यायाधीशों का विचारण करेगी जिन्हें हटाने के लिए प्रक्रिया प्रारंभ की गयी है| [भारत में न्यायपालिका नियंत्रणहीन घोड़े के समान कार्य करती है| स्वतंत्र भारत के 64 वर्ष के इतिहास में न्यायिक भ्रष्टाचार के कई मामले गुंजायमान होने पर भी आज तक एक न्यायाधीश पर भी महाभियोग की प्रक्रिया पूर्ण नहीं हो सकी है जबकि जापान में महाभियोग न्यायालय सदन का एक स्थायी अंग है|]
अनुच्छेद 76 में आगे कहा गया है कि समस्त न्यायिक शक्तियाँ एक सर्वोच्च न्यायालय और विधि द्वारा स्थापित अधीनस्थ न्यायालयों में निहित होंगी| न तो कोई विशेष ट्राइब्यूनल बनाया जायेगा और न ही किसी कार्यपालक एजेंसी या अंग को अंतिम न्यायिक शक्ति दी जायेगी| [भारत में न्यायिक न्यायालयों से ज्यादा संख्या में ट्राइब्यूनल्स कार्यरत हैं और इस प्रकार न्यायिक क्षेत्र में राज्य कार्यपालकों का हस्तक्षेप दिनों दिन बढ़ रहा है जिसे न्यायालयों का भी मूक समर्थन प्राप्त है|]
समस्त न्यायाधीश अपनी अंतरात्मा के प्रयोग में स्वतंत्र होंगे और मात्र इस संविधान व कानूनों से बाध्य होंगे| अनुच्छेद 79 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट (सर्वोच्च न्यायालय) में एक मुख्य न्यायाधीश और विधि द्वारा निर्धारित संख्या में न्यायाधीश होंगे, मुख्य न्यायाधीश को छोड़कर ऐसे समस्त न्यायाधीश मंत्रिमंडल द्वारा नियुक्त किये जायेंगे| सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों की नियुक्ति उनकी नियुक्ति के बाद प्रथम आम चुनाव में लोगों द्वरा समीक्षा की जायेगी, और दस वर्ष के बाद संपन्न प्रथम चुनाव में पुनः समीक्षा की जायेगी और इसी प्रकार उसके बाद भी| इस पुनरीक्षा में यदि मतदाताओं का बहुमत, पूर्वोक्त पैरा में उल्लेखित मामले में, यदि एक न्यायाधीश की बर्खास्तगी के पक्ष में है तो उसे बर्खास्त कर दिया जायेगा| [इतिहास साक्षी है कि भारत में सरकार को तो अपदस्थ किया जा सकता है किन्तु न्यायाधीश को नहीं|]
निचले न्यायालयों के न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट द्वारा नामित न्यायाधीशों की सूची में से मंत्री मंडल द्वरा नियुक्त किये जायेंगे| ऐसे समस्त न्यायाधीश पुनः नियुक्त के विशेषाधिकार सहित 10 वर्ष के लिए पद धारण करेंगे| [भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति में मुख्य न्यायाधीश की राय बाध्यकारी है| न्यायाधीश पद पर नियुक्ति होने बाद सेवानिवृति की आयु पूर्ण करने तक की लगभग गारंटी है| भारतीय लोक(?)तंत्र के पास अवांछनीय न्यायाधीशों को सहन करने अतिरिक्त व्यवहार में कोई विकल्प नहीं है|] सुप्रीम कोर्ट कानून, आदेश, विनियम या शासकीय कृत्य की संवैधानिकता के निर्धारण की अंतिम शक्ति रखेगा| अनुच्छेद 82 में यह विशेष प्रावधान है कि राजनैतिक अपराधों, प्रेस से सम्बंधित अपराधों या लोगों को गारंटीकृत अधिकारों से सम्बंधित मामलों की अन्वीक्षा हमेशा सार्वजानिक रूप में होगी|
उक्त विवरण से सपष्ट है कि जापानी लोगों का देश के प्रति समर्पण है और वे उच्च नैतिकता वाले हैं अतः वे शर्मनाक कार्य को सहन नहीं कर सकते| यही कारण है कि विश्व में जनसँख्या के अनुपात में सर्वाधिक आत्महत्याएं जापान में ही होती हैं| दूसरी और देखें तो यह भी सपष्ट है कि भारतीय एवं जापानी संविधान लगभग समकालीन ही हैं किन्तु हमारा संविधान तो एक स्थिर और जीवित मात्र दस्तावेज है और जापानी संविधान विकासशील राष्ट्र का दर्पण है| आज हमारी प्रतिव्यक्ति आय मात्र 35000 रुपये प्रतिवर्ष है जबकि हमारे पास विस्तृत कृषि योग्य भूभाग और समृद्ध वन, जल स्रोत व खनिज सम्पदा है किन्तु जापान में प्रति व्यक्ति आय रुपये 2200000 प्रतिवर्ष है| उनके पास मात्र 1/6 भाग ही कृषि योग्य है शेष भाग पठारी और पहाड़ी है जिसमें भी लगातार भूकंप एवं ज्वालमुखी जैसी प्राकृतिक आपदाओं का खतरा मंडराता रहता है| उचित नियोजन के अभाव में भारत आज बाढ़ व अकाल दोनों से एकसाथ पीड़ित है|
निचले न्यायालयों के न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट द्वारा नामित न्यायाधीशों की सूची में से मंत्री मंडल द्वरा नियुक्त किये जायेंगे| ऐसे समस्त न्यायाधीश पुनः नियुक्त के विशेषाधिकार सहित 10 वर्ष के लिए पद धारण करेंगे| [भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति में मुख्य न्यायाधीश की राय बाध्यकारी है| न्यायाधीश पद पर नियुक्ति होने बाद सेवानिवृति की आयु पूर्ण करने तक की लगभग गारंटी है| भारतीय लोक(?)तंत्र के पास अवांछनीय न्यायाधीशों को सहन करने अतिरिक्त व्यवहार में कोई विकल्प नहीं है|] सुप्रीम कोर्ट कानून, आदेश, विनियम या शासकीय कृत्य की संवैधानिकता के निर्धारण की अंतिम शक्ति रखेगा| अनुच्छेद 82 में यह विशेष प्रावधान है कि राजनैतिक अपराधों, प्रेस से सम्बंधित अपराधों या लोगों को गारंटीकृत अधिकारों से सम्बंधित मामलों की अन्वीक्षा हमेशा सार्वजानिक रूप में होगी|
उक्त विवरण से सपष्ट है कि जापानी लोगों का देश के प्रति समर्पण है और वे उच्च नैतिकता वाले हैं अतः वे शर्मनाक कार्य को सहन नहीं कर सकते| यही कारण है कि विश्व में जनसँख्या के अनुपात में सर्वाधिक आत्महत्याएं जापान में ही होती हैं| दूसरी और देखें तो यह भी सपष्ट है कि भारतीय एवं जापानी संविधान लगभग समकालीन ही हैं किन्तु हमारा संविधान तो एक स्थिर और जीवित मात्र दस्तावेज है और जापानी संविधान विकासशील राष्ट्र का दर्पण है| आज हमारी प्रतिव्यक्ति आय मात्र 35000 रुपये प्रतिवर्ष है जबकि हमारे पास विस्तृत कृषि योग्य भूभाग और समृद्ध वन, जल स्रोत व खनिज सम्पदा है किन्तु जापान में प्रति व्यक्ति आय रुपये 2200000 प्रतिवर्ष है| उनके पास मात्र 1/6 भाग ही कृषि योग्य है शेष भाग पठारी और पहाड़ी है जिसमें भी लगातार भूकंप एवं ज्वालमुखी जैसी प्राकृतिक आपदाओं का खतरा मंडराता रहता है| उचित नियोजन के अभाव में भारत आज बाढ़ व अकाल दोनों से एकसाथ पीड़ित है|
हमारे नेतृत्व द्वारा भारतीय संविधान की भूरी भूरी प्रशंसा की जाती है और कहा जाता है कि हमारा संविधान विश्व के श्रेष्ठ संविधानों में से एक है| वास्तविकता क्या है यह निर्णय विद्वान पाठकों के विवेक पर छोडते हुए लेख है कि मेरी सम्मति में तो हमारा संविधान कोई मौलिक कृति न होकर भारत सरकार अधिनयम,1935 का प्रतिरूप मात्र है| अब हमें जागना है, अन्य प्रगतशील राष्ट्रों के संविधानों से हमारे संविधान की तुलना करनी है और हमारे संविधान का सामन्तशाही कलेवर बदलकर इसे समसामयिक और जनतांत्रिक रूप देना है|
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तुर्की के संविधान के अनुच्छेद 40 के अनुसार लोक पद धारण करने वाले व्यक्ति के अवैध कृत्यों से होने वाली हानि के लिए राज्य द्वारा पूर्ति की जाएगी| राज्य ऐसे अधिकारी के विरुद्ध अपना अधिकार सुरक्षित रखता है| भारत में ऐसे प्रावधान का नितांत अभाव है| कानून में स्थापित व्यवस्था के अनुसार नागरिकों को मतदान और चुने जाने, व राजनैतिक गतिविधियों या राजनैतिक पार्टी में स्वतंत्रतापूर्वक संलग्न होने तथा रेफ्रेंडम में भाग लेने का अधिकार है| भारत में ऐसे प्रावधान का नितांत अभाव है तथा मतदान का अधिकार एक सामान्य अधिकार है जिसके लिए कोई प्रभावी उपचार कानून में उपलब्ध नहीं हैं | राजनैतिक वैमनस्य से या लापरवाही से मतदाताओं के नाम काटे जाना भारत में सामान्य सी घटना है |आस्ट्रेलिया जैसे देशों ने तो मताधिकार को मानवाधिकार के रूप में परिभाषित कर रखा है| तुर्की के संविधान के अनुसार राजनैतिक पार्टियों की गतिविधियां, आतंरिक विनियम और क्रियाकलाप लोकतान्त्रिक सिद्धांतों के अनुरूप होंगे| भारत में राजनैतिक पार्टियों के अपने विधान हैं जिनका देश के संविधान से कोई सरोकार नहीं है और उनमें अधिनायक वाद की बू आती है| यहाँ पार्टियां व्हिप जारी करके सदस्य को इच्छानुसार मतदान से रोक देती हैं | पार्टी सदस्य पार्टी के प्रतिनिधि अधिक व जनता के प्रतिनिधि कम होते हैं|
तुर्की के संविधान में नागरिकों और (पारस्परिकता के सिद्धांत पर) विदेशी निवासियों को सक्षम अधिकारी तथा टर्की की महाराष्ट्रीय सभा (संसद) को अपने या जनता से सम्बंधित प्रार्थना और शिकायतें लिखने का अधिकार है| स्वयं से संबंधित आवेदन का परिणाम बिना विलम्ब के लिखित में सूचित किया जायेगा| भारत में यद्यपि ऐसी प्रक्रिय औपचारिक रूप में तो विद्यमान है किन्तु सदनों के सचिवालयों ने इसे लगभग निष्क्रिय कर रखा है तथा व्यक्तिगत मामले इसके दायरे में नहीं आते हैं व उनके निपटान की कोई समय सीमा निर्धारित नहीं होने से मनमानापन के अवसर अनंत रूप से खुले हैं| तुर्की के संविधान में चुनाव न्यायिक अंगों के सामान्य प्रशासन व पर्यवेक्षण में संपन्न होंगे|भारत में चुनावों के पर्यवेक्षण के लिए चुनाव आयोग जैसी संस्था अलग से कार्यरत है|
तुर्की के संविधान के अनुच्छेद 84 के अनुसार जो संसद सदस्य बिना अनुमति या कारण के एक माह में पांच बैठकों में उपस्थित होने में विफल रहता है उस स्थिति पर सदन का ब्यूरो बहुमत से निर्णय कर सदस्यता निरस्त कर सकेगा| भारत में ऐसे आवश्यक प्रावधान का नितांत अभाव है| संसद सदस्यों के वेतन, भत्ते और सेवानिवृति व्यवस्थाएं कानून द्वारा विनियमित की जाएँगी | सदस्य का मासिक वेतन वरिष्ठतम सिविल सेवक के वेतन से अधिक नहीं होगा व यात्रा भत्ता उस वेतन के आधे से अधिक नहीं होगा| भारत में ऐसे स्पष्ट प्रावधान का नितांत अभाव है और जन प्रतिनिधियों के वेतन भत्ते बढ़ाने के प्रस्ताव निर्बाध रूप से सर्वसम्मति से ध्वनिमत से पारित किये जाते हैं| आगे अनुच्छेद 137 में कहा गया है कि लोक सेवा में रत कोई भी व्यक्ति, अपने पद और हैसियत पर बिना ध्यान दिए, यदि यह पाता है कि उसके वरिष्ठ द्वारा दिया गया कोई आदेश संविधान, या किन्ही उपनियमों, विनियमों, कानूनों के प्रावधानों के विपरीत है तो उनकी अनुपालना नहीं करेगा, और ऐसे आदेश देने वाले अधिकारी को विसंगति के विषय में सूचित करेगा| फिर भी यदि उसका वरिष्ठ यदि आदेश पर बल देता है व उसका लिखित में नवीनीकरण करता है तो उसके आदेश की पालना की जायेगी किन्तु ऐसी स्थिति में आदेश की अनुपालना करने वाला जिम्मेवार नहीं ठहराया जायेगा| भारत में ऐसे प्रावधान का नितांत अभाव है| एक आदेश यदि अपने आप में अपराध का गठन करता है तो किसी भी सूरत में उसकी अनुपालना नहीं की जायेगी, ऐसे आदेश की अनुपालना करने वाला अपने दायित्व से मुक्त नहीं होगा|
तुर्की के संविधान के अनुच्छेद 138 के अनुसार विधायी व कार्यपालक अंग तथा प्रशासन, न्यायालयों के निर्णयों का अनुपालन करेंगे; ये अंग और प्रशासन उनमें किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं करेंगे और न ही उनकी पालना में कोई विलम्ब करेंगे| भारत में ऐसे प्रावधान का नितांत अभाव है व स्वयं न्यायालय के कार्मिक भी किसी न किसी बहाने से पालना से परहेज करते रहते हैं और न्याय प्रशासन मूक दर्शक बना रहता है| आगे के अनुच्छेदों में कहा गया है कि समस्त न्यायलयों के निर्णय औचित्य के विवरण के साथ लिखित में होंगे| भारत में ऐसे आवश्यक प्रावधान का नितांत अभाव है| न्यायपालिका दायित्व है कि वह परीक्षण यथा संभव शीघ्र और न्यूनतम लगत पर पूर्ण करेंगे| भारत में ऐसे आवश्यक प्रावधान का नितांत अभाव है| न्यायाधीशों और लोक अभियोजकों के कानून के अनुसार कर्तव्य निष्पादन के सम्बन्ध में इस बात का अनुसन्धान कि क्या उन्होंने कर्तव्य निर्वहन में कोई अपरध किया है, या उनका व्यवहार और प्रवृति उनकी हैसियत और कर्तव्यों के अनुरूप है व यदि आवश्यक हो तो उनसे सम्बंधित जाँच और अनुसन्धान न्याय मंत्रालय की अनुमति से न्यायिक निरीक्षकों द्वारा की जायेगी| न्याय मंत्री किसी न्यायाधीश या लोक अभियोजक, जो जांच किये जाने वाले न्यायधीश या लोक अभियोजक से वरिष्ठ हो, से जांच की अपेक्षा कर सकेगा| भारत में ऐसे आवश्यक प्रावधान का नितांत अभाव है जिससे न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की अमरबेल फलफूल रही है|आगे के अनुच्छेदों में कहा गया है कि संवैधानिक न्यायालय के स्थानपन्न या नियमित न्यायाधीश के पद पर नियुक्त होने के लिए उच्च संस्थान में अध्यापक, वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी और वकील का चालीस वर्ष से अधिक उम्र का होना आवश्यक होगा और उच्च शिक्षा पूर्ण करना या उच्च शिक्षण संसथान में न्यूनतम पन्द्रह वर्ष का अध्यापन का अनुभव आवश्यक है या न्यूनतम पन्द्रह वर्ष वकील के रूप में प्रैक्टिस या लोक सेवा में होना आवश्यक है| भारत में ऐसे आवश्यक प्रावधान का नितांत अभाव है| इंग्लैंड में भी इसी प्रकार की योग्यताएं लोर्ड चांसलर के लिए बताई गयी हैं किन्तु भारत में तो न्यायिक पद मात्र वकीलों के लिए सुरक्षित करके भ्रष्टाचार के लिए मानो एक चरगाह ही सुरक्षित कर लिया गया है|
अब पाठकगण से मेरा सादर अनुरोध है कि वे निर्णय करें कि हमारा संविधान किस प्रकार बेहतर है या हमें अनावश्यक महिमा मंडन करने का उन्माद है| यदि देश की आतंरिक न्याय व्यवस्था शक्तिहीन और अलोकतांत्रिक रही तो जन विश्वास डगमगा सकता है व हमारा अस्तित्व ही संदिग्ध हो जायेगा| मेरा विचार है कि अब समय आ गया है कि हमें न्यायिक सुधारों के लिए मात्र देशीय चिंतन पर ही निर्भर नहीं रहना है अपितु सीमा पार के अनुभवों का भी लाभ उठाना है तभी विश्व व्यापार में शामिल भारत अपने सशक्त अस्तित्व को प्रमाणित कर सकेगा|
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