Tuesday, May 3, 2016

शादी आज सादी नहीं, बर्बादी बनती जा रही है

आडम्बर, प्रदर्शन एवं दिखावे की प्रवृत्ति से सामाजिक परम्पराएं एवं जीवन इतना बोझिल होता जा रहा है कि सामान्य व्यक्ति की आर्थिक रीढ ही टूटती जा रही है। शादियों एवं अन्य पारिवारिक आयोजनों में जिस तरह का बैभव प्रदर्शन हो रहा है, वह एक अघोषित आतंक एवं हिंसा का ही पर्याय कहा जा सकता है। इससे सामाजिक अन्याय बढ़ रहा है, शोषण की प्रवृत्ति पनप रही है, पारिवारिकता बिखर रही है, गलाकाट प्रतियोगिता को प्रश्रय मिल रहा है। एक तरह से सम्पूर्ण समाज व्यवस्था घायल होती जा रही है। आज शादी में करोड़ों-करोड़ों का उच्च वर्ग में एवं 50-60 लाख का सामान्य वर्ग में व्यय आम बात हो गई है। तथाकथित अन्य पारिवारिक उत्सवों में भी लाखों रुपये खर्च कर दिये जाते हैं और इस व्यवस्था में धार्मिक समारोह भी पीछे नहीं हैं। इस राशि से एक पूरा परिवार पीढ़ियों तक जीवनयापन कर सकता है। हजारों अभावग्रस्तों को सहारा मिल सकता है।

जन्म, विवाह एवं मृत्यु के अवसर पर लाखों-करोड़ों रुपयों को पानी की भांति बहाया जाना ऐसी क्रूर एवं वीभत्स स्थितियां है, जिन्होंने जीवन को दुभर एवं जटिल बना दिया है। इन झूठे मानदंडों को प्रतिष्ठित करने से समाज की गति अवरुद्ध होती जा रही है। मानव अपनी आंतरिक रिक्तता पर आवरण डालने के लिए प्रदर्शन का सहारा लेता है, लेकिन वह एक त्रासदी बनती जा रही है।

शादी आज सादी नहीं, बर्बादी बनती जा रही है। विवाह के अवसर पर होने वाले आडम्बरों एवं रीति-रिवाजों की एक लम्बी सूची है, जोे समाज को कुछ सोचने को मजबूर कर रहे हैं। तथाकथित दिखावे एवं प्रदर्शन की संस्कृति में शुमार हो रहे है- विवाह से पूर्व सगाई के अवसर पर बड़े-बड़े भोज, साते या बींटी में लेन-देन का असीमित व्यवहार, बारात ठहराने एवं प्रीतिभोजों के लिए फाइव स्टार (पंचसितारा) होटलों का उपयोग, हर मेहमान के लिये स्वतंत्र कार और ड्राइवर, कीमती तोहफे, हर मेहमान को व्यक्तिगत फोटो अलबम देना, घर पर और सड़क पर समूह नृत्य, मण्डप और पण्डाल की सजावट में लाखों का व्यय, कार से उतरने के स्थान से लेकर पण्डाल तक पूफलों की सघन सजावट, बिजली की अतिरिक्त जगमगाहट, कुछ मनचले लोगों द्वारा बारात में शराब का प्रयोग, एक-एक खाने में सैकड़ों किस्म के खाद्य, अनेक प्रकार के पेय, मिनट-दर-मिनट नए-नए खाद्य पेय की मनुहार क्या यह सब धार्मिक कहलाने वाले परिवारों में नहीं हो रहा है? समाज का नेतृत्व करने वाले लोगांे में नहीं हो रहा है? एक ओर करोड़ों लोगों को दो समय का पूरा भोजन मयस्सर नहीं होता, दूसरी ओर भोजन-व्यवस्था में लाखों-करोड़ों की बर्बादी। समझ में नहीं आता, यह सब क्या हो रहा है?

प्राचीनकाल में एक बार विवाह होता है और सदा के लिए छुट्टी हो जाती। पर अब तो विवाह होने के बाद भी बार-बार विवाह का रिहर्सल किया जाता है। हर वर्श विवाह की सालगिरह, विवाह की सिल्वर जुबली, गोल्डन जुबली, षष्टिपूर्ति आदि न जाने कितने अवसर आते हैं, जिन पर होने वाले समारोह प्रीतिभोज आदि देखकर ऐसा लगता है मानो नए सिरे से शादी हो रही है। आश्चर्य है कि जीवनकाल में दादा, पिता और माता को पानी पिलाने की फुरसत नहीं और मरने के बाद हलुआ, पूड़ी खिलाना चाहते हैं, उनके नाम पर करोडांे का खर्च कर झूठी शोहरत पाना चाहते है, यह कैसे विडम्बना और कितना अंधविश्वास है।


जो हम चाहते हैं और जो हैं उनके बीच एक बहुत बड़ी खाई है। बहुत बड़ा अन्तराल है। पीढ़ी का नहीं, नियति का। सम्पूर्ण व्यवस्था बदलाव चाहती है और बदलाव का प्रयास निरंतर चलता है। चलता रहेगा। यह भी नियति है।

समाज में जो व्यवस्था है और जो पनप रही है, वह न्याय के घेरे से बाहर है। सब चाहते हैं, उपदेश देते हैं कि सामाजिक अन्याय न हो, शोषण न हो। अगर सामाजिक अन्याय को बढ़ावा नहीं मिले और उसका प्रतिकार होता रहे तो निश्चित ही एक सुधार की प्रक्रिया प्रारम्भ होगी।

कई लोग सम्पन्नता के एक स्तर तक पहुंचते ही दिखावा करने लगते हैं और वहीं से शुरू होता है प्रदर्शन का ज़हर। समाज में जितना नुकसान परस्पर स्पर्धा से नहीं होता उतना प्रदर्शन से होता है। प्रदर्शन करने वाले के और जिनके लिए किया जाता है दोनों के मन में जो भाव उत्पन्न होते हैं वे निश्चित ही सौहार्दता से हमें बहुत दूर ले जाते हैं। अतिभाव और हीन-भाव पैदा करते हैं और बीज बो दिये जाते हैं शोषण और सामाजिक अन्याय के।

आज जब प्रदर्शन एक सीमा की मर्यादा लांघ गया है तो नतीजा भी परिलक्षित है। सामाजिक क्रांति के स्वर जगह जगह फूट रहे है- किसी प्रान्त में आज किसी बारात में 21 आदमी से ज्यादा नहीं जाने देते, दहेज नहीं लेने देते जबकि वहां मोटर, स्कूटर आदि की मांग आम बात थी। फैशन के कपड़े पहनने की, ब्यूटी पार्लर आदि पर रोक लगा दी है। किसी प्रान्त में शादी के हजारों-हजारों रुपये के शादी के कार्डों पर ही रोक लगा दी गयी है, किसी जगह 200-300 की संख्या को छूते खाद्य आइटमों पर नियंत्रण करते हुए कुल 21 खाद्य आइदम के नियम बन गये है। सामाजिक सुधार के लिए अपनाये जाने वाले इन तरीकों से विचार भिन्न हो सकते हैं परन्तु प्रदर्शन, फैशन, दहेज, बड़े भोज की सीमा कहीं न कहीं तो बांधनी ही होगी।

सामाजिक सुधार तब तक प्रभावी नहीं हांेगे, जब तक उपदेश देने वाले स्वयं व्यवहार में नहीं लायंेगे। सुधार के नाम पर जब तक लोग अपनी नेतागिरी, अपना वर्चस्व व जनाधार बनाने में लगे रहेंगे तब तक लक्ष्य की सफलता संदिग्ध है। भाषण और कलम घिसने से सुधार नहीं होता। सुधार भी दान की भांति घर से शुरू होता है, यह स्वीकृत सत्य है।

कुछ लोग समाज सुधारक के तमगों को अपने सीने पर टांगे हुए हैं तथा पंचाट में अग्रिम पंक्ति में बैठने के लिए स्थान आरक्षित किए हुए हैं। लेकिन जब स्वयं अपने परिवार स्तर पर सुधार की बात आती है तब पुत्रों पर डाल देते हैं कि वे जानें। या ‘मेरी तो चलती नहीं कह कर अपने सफेद चोले की रज को झाड़ देते हैं। कब तक चलेगा यह नाटक? और कब तक झेलता रहेगा समाज ये विसंगतियां और इन आडम्बरों का बोझ?

यह शोचनीय है। अत्यंत शोचनीय है। खतरे की स्थिति तक शोचनीय है कि आज तथाकथित नेतृत्व दोहरे चरित्र वाला, दोहरे मापदण्ड वाला होता जा रहा है। उसने कई मुखौटे एकत्रित कर रखे हैं और अपनी सुविधा के मुताबिक बदल लेता है। यह भयानक है।
समाज सुधार के नाम पर जब भी प्रस्ताव पारित किए जाते हैं तो स्याही सूखने भी नहीं पाती कि खरोंच दी जाती है। आवश्यकता है एक सशक्त मंच की। हम सबको एक बड़े संदर्भ में सोचने का प्रयास करना होगा।

जिस प्रकार युद्ध में सबसे पहले घायल होने वाला सैनिक नहीं, सत्य होता है, ठीक उसी प्रकार प्रदर्शन और नेतृत्व के दोहरे किरदार से जो सबसे ज्यादा घायल होता है, वह है आपसी भाईचारा, समाज की व्यवस्था और पारिवारिक सुख-शांति।

मेरा दृढ़ अभिमत है कि वक्त का आह्वान है कि समाज का वैशिष्ठ्य पुनः प्रकट किया जाये। हमें अब जागना होगा। यदि इन विसंगतियों से समाज को उबारना है, तो दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ समाज में एक ऐसे वर्ग का उदय करना होगा जो इसके कारणों की ईमानदारी के साथ मीमांसा करें और वातावरण बनाने का प्रयत्न करें। निजी स्वार्थ, अहं, भावुक मानसिकता, मान प्रतिष्ठा एवं प्रतिस्पर्धा के चलते होने वाले आडम्बर एवं दिखावे के प्रसंगों को तो निश्चित रूप से रोकना ही पड़ेगा। चाहे इसके लिए समाज को लम्बी लड़ाई लड़नी पड़े। जरूरत है कि समाज के कर्णधार समूहबद्ध होकर इस पर गंभीर मंत्रणा शुरू करें। कहीं ऐसा न हो कि सबकुछ ढह जाने के पश्चात हमारी कुम्भकर्णी नींद खुले। सामने एक चुनौती है और इस चुनौती के लिये संघर्ष हेतु हर व्यक्ति को संकल्पित होना होगा और इसके निश्चित ही सकारात्मक परिणाम आयेंगे और इससे समाज की सांस्कृतिक विरासत, एकता, अखण्डता और सामाजिक समरसता में बढ़ोतरी ही होगी।

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