Monday, May 2, 2016

मुनाफे और शोषण पर आधारित पूंजीवादी समाज में मजदूर और मालिक के बीच कभी दोस्ताना व्यवहार नहीं हो सकता.

‘भूतों का इलाज’ देवेन्द्र कुमार मिश्रा द्वारा लिखा गया एक रोचक एवं पठनीय कहानी संग्रह है. इस कहानी संग्रह में समाज के छुए-अनछुए पहलुओं पर बड़ी ही गहनता और मार्मिक रूप से लिखा गया है. संवाद शैली ऐसी है कि कहानी को एक बार पढना शुरू किया जाए तो पूरी पढ़े बिना नहीं रहा जाता. समाज के विभिन्न पहलुओं पर लिखी गयी कहानियां दिल को छू जाती हैं और यह सोचने को मजबूर कर देती हैं कि इतने समृद्ध कहे जाने वाले समाज में कुछ चीजें आज भी ज्यों की त्यों हैं.
मुनाफे और शोषण पर आधारित पूंजीवादी समाज में मजदूर और मालिक के बीच कभी दोस्ताना व्यवहार नहीं हो सकता. समाज में इन दो वर्गों के बीच हमेशा लड़ाई रही है और लड़ाई रहना लाज़मी है. व्यवस्था के पोषक “धर्म के लिए हजारों व्यर्थ उड़ा देंगे. खून-पसीने की कमाई खाने वालों का हक मरेंगे. भिखारियों को मुफ्त पैसा बाँटना धर्म है और मेहनत करने वाले को वाजिब दाम देना बेवकूफी समझते हैं. हमसे अच्छे तो ये भिखारी हैं. इनके लिए पेट्रोल-डीजल की कीमत है. खून-पसीने की कमाई की कोई कीमत नहीं.”
आज के वैज्ञानिक युग में लोग अवैज्ञानिक तत्वों पर ज्यादा यकीन रखते हैं. किसी भी बीमारी और समस्या का समाधान वे अंधविश्वास के रूप में खोजते है. पांडो-पुरोहित, मुल्ला-मौलवियों द्वारा तन्त्र-मन्त्र, भूत प्रेत जैसी चीजों का इलाज करवाते हैं. बजाय इसके वे समस्या के भौतिक कारणों को जाने, उल्टा वे इन आडम्बरों, अंधविश्वासों के चंगुल में जा फंसते हैं-
“पूर्णिमा, अमावस्या को मेरी बीवी अचानक जोर जोर से साँसे भरने लगती है. …वह थर-थर कांपने लगती है. वह जोर जोर से चीखने लगती है बचाओ-बचाओ. वो मुझे अपने साथ ले जायेगा. …जब तक माइके रहती है ठीक ही रहती है. ससुराल आते ही फिर वही सब शुरू हो जाता है.
“किसी मनोचिकित्सक को दिखाया.”
“भूत प्रेत का साया है और क्या? मैं डॉक्टर हूँ तो क्या मानता नहीं हूँ इन सब बातों को.”
देवेन्द्र कुमार मिश्रा ने महिलाओं या लड़कियों के प्रति समाज के रवैये को बहुत ही मार्मिक ढंग से पेश किया है जो यह दर्शाता है कि आज भी औरत को एक वस्तु के अलावा और कुछ नही समझा जाता है. लड़की की खूबसूरती! उसे तो अभिशाप समझा जाता है. इस खूबसूरती के कारण परिवार व समाज में उसका जीना मुश्किल कर दिया जाता है. समाज के पिछड़ी मानसिकता के लोग हर खूबसूरत चीज को पा लेने की चाह में इस हद तक गिरते हैं कि सामने वाले का जीना दूभर हो जाये. नतीजन घर वाले भी लड़की को तरह-तरह की हिदायतें देने लगते हैं कि घर जल्दी आये, ज्यादा से ज्यादा घर पर ही रहे. कोई बाहर का इंसान बैठने आये तो घर के अंदर चली जाये और ना जाने क्या-क्या…. और तो और कभी उसे अपनी पढाई घर रहकर करनी पड़ती है. इस घटिया सोच का खामियाजा एक बेकसूर, मासूम लडकी को भुगतना पड़ता है. “ज्यादा इतराओ मत. हम में से किसी एक को चुन लो. नहीं तो बदनाम कर देंगे. …कुछ ऐसा कर गुजरेंगे कि किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहोगी. …अगर हमारे खिलाफ आवाज उठाई तो एसिड से चेहरा बिगाड़ देंगे.”
“एक रोज कॉलेज जाते समय उस गुंडे ने उस पर एसिड भरा बल्ब फेंक दिया.”
देवेन्द्र ने ‘फांसी’ कहानी का गठन बहुत ही बेजोड़ ढंग से प्रस्तुत किया है. भारतीय न्यायव्यवस्था राजनीति पर आधारित जान पडती है. गरीब को न्याय नहीं, मीडिया पहले ही व्यक्ति को मुजरिम करार देती है. “देखो भाई! राजनीति, मीडिया के दबाव के चलते तो न जाने कितने केस बनाए होंगे. कितने बेगुनाहों को थर्ड डिग्री दी होगी. हां, कुछ मुठभेड़ जरूर हुई जो बिलकुल फर्जी थी, लेकिन हमें तो ऊपर वालों के आदेश का पालन करना था.”
प्रस्तुत कहानी संग्रह में देवेन्द्र कुमार मिश्रा की ‘सेवा संगठन’, ‘जीत या हार’, ‘प्रश्न’, ‘गुमनाम शिकायतें’, ‘खुदाई’, ‘आभिजात्य’ एवं ‘ईमानदार लाश’ भारतीय समाज के यथार्थवादी जीवन का सटीक वर्णन है.
क्योंकि औरत कट्टर नहीं होती’ डॉ. शिखा कौशिक ‘नूतन’ द्वारा लिखा गया लघु कथा संग्रह है जिसमें स्त्री और पुरुष की गैर बराबरी के विभिन्न पहलुओं को छोटी-छोटी कहानियों के माध्यम से सशक्त रूप में उजागर किया है. इस संग्रह में हमारे समाज की सामंती सोच को बहुत ही सरल और सहज ढंग से प्रस्तुत किया है, खासकर महिला विमर्श के बहाने समाज में उनके प्रति सोच व दोयम दर्जे की स्थिति को बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है. फिर मामला चाहे अस्तित्व का हो या अस्मिता का ही क्यों न हो.
लेखिका डॉ. शिखा कौशिक ‘नूतन’ अपनी कथाओं के जरिये बताती हैं कि बेशक आज देश उन्नति के शिखरों को चूम रहा हो लेकिन असल में लोगों की सोच अभी भी पिछड़ी, दकियानूसी और सामंती है. इसी सोच का नतीजा है कि हमारे समाज में आज भी महिलाओं को हमेशा कमतर समझा जाता है. किसी भी किस्म की दुश्मनी का बदला औरत जात को अपनी हवस का शिकार बनाकर ही किया जाता है, फिर मामला चाहे सांप्रदायिक हो या जातिगत -“जिज्जी बाहर निकाल उस मुसलमानी को!! …हरामजादों ने मेरी बहन की अस्मत रौंद डाली…मैं भी नहीं छोडूंगा इसको…!!!
लेखिका ने समान रूप से काम करने वाले बेटे-बेटी के बीच दोहरे व्यवहार को बखूबी दर्शाया है जो अक्सर ही हमारे परिवारों में देखने, सुनने या महसूस करने को मिल जाता है- “इतनी देर कहाँ हो गयी बेटा? एक फोन तो कर देते! तबियत तो ठीक है ना ? बेटा झुंझलाकर बोला- ओफ्फो… आप भी ना पापा… अब मैं जवान हो गया हूँ… बस ऐसे ही देर हो गयी. पिता ठहाका लगाकर हंस पड़े. अगले दिन बेटी को घर लौटने में देर हुई तो पिता का दिमाग सातवें आसमान पर पहुँच गया. बेटी के घर में घुसते ही पूछा …घड़ी में टाइम देखा है! किसके साथ लौटी हो?…पापा वो ऐसे ही. बेटी के ये कहते ही उलके गाल पर पिता ने जोरदार तमाचा जड़ दिया.”
डॉ. शिखा ने भारतीय समाज में व्याप्त लिंगीय भेदभाव पर बहुत ही तीखा प्रहार किया है और उन मिथकों को तोड़ने की भरसक कोशिश की है जो एक स्त्री होने की वजह से हर दिन झेलती है. लेखिका इस बात पर शुरू से लेकर अंत तक अडिग है कि औरत ही औरत की दुशमन नहीं होती बल्कि सामाजिक तथा आर्थिक सरंचना से महिलायें सामन्ती एवं पुरुष प्रधान मानसिकता से ग्रसित हो जाती हैं – “ऐ… अदिति… कहाँ चली तू? ढंग से चला फिरा कर… बारवें साल में लग चुकी है तू… ये ढंग रहे तो तुझे ब्याहना मुश्किल हो जायेगा. कूदने-फादने की उम्र नहीं है तेरी. दादी के टोकते ही अदिति उदास होकर अंदर चली गयी. तभी अदिति की मम्मी उसके भाई सोनू के साथ बाजार से शोपिंग कर लौट आयीं. सोनू ने आते ही कांच का गिलास उठाया और हवा उछालने लगा. …गिलास फर्श पर गिरा और चकनाचूर हो गया. सोनू पर नाराज होती हुई उसकी मम्मी बोली- “कितना बड़ा हो गया है अक्ल नहीं आई! …अरे चुपकर बहु एक ही बेटा तो जना है तूने …उसकी कदर कर लिया कर… अभी सत्रहवें ही में तो लगा है… खेलने-कूदने के दिन हैं इसके…”
प्रेम करना आज भी एक गुनाह है. अगर किसी लड़की ने अपनी मर्जी से अपना जीवन साथी चुना तो परिवार व समाज उसके इस फैंसले को कतई मंजूरी नहीं देते बल्कि इज्जत और मर्यादा के नाम पर उसको मौत के घाट उतार दिया जाता है. प्रेम के प्रति लोगों की सोच को नूतन कुछ इस तरह व्यक्त करती हैं- “याद रख स्नेहा जो भाई तेरी इज्जत की बचाने के लिए किसी की जान ले सकता है वो परिवार की इज्जत बचाने की लिए तेरी जान ले सकता है. …स्नेहा कुछ बोलती इससे पहले ही आदित्य रिवाल्वर का ट्रिगर दबा चुका था.”
हमारे समाज में आज भी लोगों के मन में जातिवाद घर बनाये हुए है. जातिवाद प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में हमारे सामने आ ही जाता है. स्कूल, कॉलेज, नौकरी-पेशा, शादी-विवाह या किसी भी कार्यक्रम के आयोजन ही क्यों न हो जाति कभी पीछा नहीं छोडती- “जातिवाद भारतीय समाज के लिए जहर है. इस विषय के संगोष्ठी के आयोजक महोदय ने अपने कार्यकर्ताओं को पास बुलाया और निर्देश देते हुए बोले- देख! वो सफाई वाला है ना. अरे वो चूड़ा. उससे धर्मशाला की सफाई ठीक से करवा लेना. वो चमार का लौंडा मिले. …उससे कहना जेनरेटर की व्यवस्था ठीक-ठाक कर दे. बामन, बनियों, सुनारों, छिप्पियों इन सबके साइन तू करवा लियो… ठाकुर और जैन साहब से कहियो कुर्सियों का इंतजाम करने को.”
किसी भी स्त्री और पुरुष की ताकत, हुनर, पहलकदमी, तरक्की को देखने का नजरिया एकदम अलग-अलग होता है. लेकिन स्त्री जाति के विषय में बात एकदम अलग है क्योंकि किसी भी स्त्री को डर, धमकी या मार द्वारा उसके लक्ष्य से कोई भी डिगा नहीं सकता. सिर्फ पुरुषवादी सोच ही स्त्री को चरित्रहीन कहकर ही उसको अपमानित करती है. “रिया ने उत्साही स्वर में कहा जनाब मुझे भी प्रोमोशन मिल गया है. ‘अमर’ हाँ, भाई क्यों न होता तुम्हारा प्रोमोशन, तुम खूबसूरत ही इतनी हो.”

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